शनिवार, अगस्त 12

 

कबीरा इश्क का मारा...

 

 डॉ. धनंजय चोपड़ा

कहने को कबीर एक जुलाहे परिवार से थे, लेकिन असल में तो वे जिंदगी का ताना-बाना बुनने के लिए इस धरती पर आए थे। उन्होंने अपने समय, समाज, सरोकार, संस्कृति, सुख-दुख और संतोपों को बखूबी पढ़ा और फिर जो कुछ भी रचा, वह हर काल-समय की कसौटी पर खरा उतरता चला जा रहा है। आज जब हम कबीर की ओर देखते हैं, तो वे केवल कवि नजर नहीं आते, बल्कि मानवीय संचेतना की सबसे मुकम्मल जमीन तैयार करने वाले किसान लगते हैं। वे सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों से मुक्ति की फसल उगाते हैं और बंधन मुक्त संस्कृति की गाथा गाते हुए मिलते हैं। दरअसल कबीर एक मुक्त उड़ान भरती संस्कृति हैं तो मानवीय चेतना का निरंतर परिष्कार करने वाली परंपरा भी हैं। कबीर रगों में बहने वाला संगीत हैं तो जुबान पर रच बस जाने वाली भाषा भी हैं। कबीर एक सामाजिक आंदोलन हैं तो एक गुरु पंथ भी हैं। यही वजह है कि कबीर को पढ़ते-पढ़ते उनके शब्दों से इश्क हो जाता है। वे उस परम सत्ता से खुद भी इश्क करते हैं, जिसने इस दुनिया को बनाया है और अपने पाठकों को भी उससे बेइंतहा इश्क करना सिखा देते हैं। 




सच तो यह है कि कबीर का इश्क दुनियावी झंझटों से मुक्ति का रास्ता दिखाता है। वे उस मालिक से इश्क करते हैं, जो हमारे भीतर है, हमारी सांसों में है। यह कबीरी इश्क ऐसा-वैसा नहीं है। पक्के विश्वास और लाभ-हानि से परे का इश्क है। ऐसा इश्क जो अपने मालिक के साथ केवल आत्मसात होना चाहता है। सुख-दुख से ऊपर उठना चाहता है और अपने मालिक को सभी लोगों में महसूस करना चाहता है, ताकि सबके वह काम आ सके। अब यह यूं ही तो नहीं था, जो कबीर उठे.....

हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या।

रहें आजा़द या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या।।

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर बदर फिरते।

हमारा यार है हम में, अमन को इंतिजा़री क्या।।

खलक़ सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है।

हमन गुरु नाम सांचा है, हमन दुनिया से यारी क्या।।

न पल बिछुड़ें पिया हम से, न हम बिछुड़ें पियारे से।

उन्हीं से नेह लागी है, हम न को बेक़रारी क्या।।

कबीरा इश्क का मारा, दूई को दूर कर दिल से।

जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।।

 

कबीर हिंदी के आदि कवि थे। भक्ति और कविताई, दोनों मोर्चों पर अद्वितीय कवि। ऐसे कवि, जो अपने समय समाज और जीवन को परखते हुए, अपने संग चल रहे लोगों को रास्ता दिखाने का काम तो कर ही रहे थे, साथ आने वाले समय और समाज पर भी निगाह टिकाए हुए थे। यही वजह है कबीर हर समय में साथ बने हुए हैं और बने रहेंगे। दरअसल कबीर का समय एक ऐसा समय था, जो सही मायने में संक्रमण काल कहा जा सकता है। धार्मिक तौर पर भी संक्रमण काल था और राजनीतिक तौर पर भी। जहां एक तरफ लंबे समय से चले आ रहे मुस्लिम शासनकाल ने मुस्लिम धर्म को मजबूत स्थिति में ला दिया था, वहीं दूसरी तरफ हिंदू धर्म के लोग धार्मिक अंतर्विरोधों, विद्रूपताओं और जातीय जड़ता से जूझ रहे थे। यह वह समय था, जब लोगों को सही रास्ता दिखाते हुए आत्मिक मजबूती देना जरूरी हो गया था। यही वजह रही होगी कि तुलसी, मीरा, रैदास के साथ-साथ कबीर ने भी भक्ति को कविता का रास्ता बनाया और लोगों को आत्मविश्वास पाने में मदद की। यहां यह कहना जरूरी है कि कबीर भक्ति का रास्ता बनाते हुए समाजिक विद्रूपताओं और जातीय जड़ताओं से मुक्ति का रास्ता भी सुझाते हैं-

मन लागो मेरो यार फ़कीरी में।।

जो सुख पावो नाम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।

भला बुरा सब को सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।

प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनि आई सबूरी में।

हाथ में कूंडी बगल में सोंटा, चारों दिसा जगीरी में।

आखिर यह तन खाक मिलैगा, कहां फिरत मधुरी में।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, साहेब मिलै सबूरी में।।

 

कबीर का आगमन एक ऐसे समय में हुआ था, जो तरह-तरह के अंधकारों से भरा पड़ा था। इन अंधकारों को दूर करने में तुलसी, मीरा, रैदास जैसे कवियों ने मोर्चा संभाल रखा था। दरअसल उस समय के रचनाकारों को लगा था अंधकार से यदि कोई लड़ सकता है तो वह भक्ति का ही रास्ता होगा। कबीर इस भक्ति के रास्ते के पर चलते हुए सामाजिक और व्यवहारिक ज्ञान को भी साथ में लिए हुए थे। उनकी व्यवहारिक ज्ञान की पाठशाला आडंबरविहीन थी और उसका विस्तार असीम था। उन्होंने अपने निशाने पर उस समय की दो प्रमुख धार्मिक धाराओं को रखा, एक हिंदू और दूसरी मुस्लिम। हिंदी के बड़े आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक स्थान पर लिखा है- कबीरदास का रास्ता उल्टा था। उन्हें सौभाग्यवश सुयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैं, वे प्रायः सभी उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे, हिंदू होकर भी हिंदू नहीं थे, वे साधु होकर भी साधु नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे, वे योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से ही सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे। वास्तव में कबीर का पंथ निराला था। तभी तो वे अपनी ही धुन में गा उठे-

मोको कहां ढूंढो बंदे, मैं तो तेरे पास में।।

ना मैं छगरी, ना मैं भेड़ा, ना मैं छूरी गंड़ास में।।

नहीं खाल में नहीं पूंछ में, ना हड्डी ना मांस में।।

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।।

ना तौ कौनो क्रिय कर्म में, नहीं जोग बैराग में।।

खोजी होए तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।।

मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।

 

कबीर अपने समय-समाज के सभी रंगों को साथ लेकर चलना चाहते थे। दरअसल वे बहुरंगी भारतीय समाज को बखूबी समझ चुके थे। शायद यही वजह थी कबीर ने अपनी बातों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए बहुरंगी भाषा का प्रयोग किया। उनकी भाषा में अवधी रंग था तो ब्रज का भी रंग था। पंजाबी, राजस्थानी, भोजपुरी और खड़ी बोली का भी रंग उनकी भाषा में शामिल था। इसी बहुरंगी गुण के कारण बहुतेरे भाषा विज्ञानी, कबीर की वाणी को पंचमेल सुधक्कड़ी कहते हैं। कबीर जानते थे कि यदि अपनी बातों को विविधताओं से भरे बड़े जनसमूह तक पहुंचाना है तो उसमें हर किसी की भाषा की महक होनी ही चाहिए। लोगों को अपने शब्द मिलेंगे तो उन्हें हर बात अपनी सी लगेगी। यही वजह रही कि कबीर की बातें सदियों से अपना असर दिखाती आ रही हैं। अब यहां कबीरी भाषा का कमाल देखिए, कबीर माया को रमैया की दुल्हन बताकर, लोगों के उसकी गिरफ्त में आने की बात को किस तरह प्रस्तुत करते हैं। यहां ध्यान देना होगा कि कबीर जब माया की बात कहते हैं तो वह धन, स्त्री, इच्छा, आसक्ति की ओर इशारा कर रहे होते हैं। वे माया को ठगनी कहकर बुलाते हैं और उससे बचने के लिए सबको खबरदार भी करते हैं-

रमइया की दुलहिन ने लूटा बाजार।।

सुरपुर लूटा नागपुर लूटा, तीन लोक पड़ा हा हा कार।

ब्रह्मा लुटे महादेव लुटे, नारद मुनि के पड़ी पिछार

श्रृंगी की मिंगी कर डाली, पाराशर का उदर विकार।

कनफूका चिदाकाशी लुटे, योगीश्वर लूटे करत विचार।।

हम तो बच गए स्वामी दया से, शब्द डोर गए उतरे पार।

कहीं कबीर सुनो भाई साधो, इस ठगनी से रहो होशियार।।

 

मेरा मानना है कि कबीर, भक्ति और मानवीय व्यवहार के रास्ते को रहस्यमयी नहीं बनाते। वे बड़ी सहजता से अपनी बानी को लोगों की लय और तान का अंदाज देते हैं। वे पुचकारते भी हैं तो ललकारते भी हैं। वे निरा ज्ञान नहीं देते और न ही किसी तरह के व्यवहार या सरोकार की सिफारिश करते हैं, बल्कि जीवन के उलझाव व भटकाव से मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं। वे प्रतिरोध के कवि नहीं हैं, बल्कि समभाव व सद्भाव के रचयिता हैं। वे ईश्वर यानी परम पिता परमेश्वर को कभी अपना यार बताते हैं, तो कभी साईं, कभी साहेब और कभी कुल मालिक कहकर पुकारते हैं। वे योगी हैं और अपने कुल मालिक को भीतर-भीतर बहता महसूस करने की तरकीबें भी बताते हैं-

 

झीनी झीनी बीनी चदरिया।।

काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौने तार से बीनी चदरिया।।

इंगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया।।

आठ कमल दल चरखा डोलै, पांच तत्त गुन तीनी चदरिया।।

सांई को सियत मास दस लोगे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ि के मैली कीन्हीं चदरिया।।

दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।।

 

कबीर के विरोधी अगर धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले थे तो उनका विरोध उनके समय की कट्टरपंथी सत्ता भी करती थी। दरअसल कबीर एक जनसंचारक यानी असल पत्रकार की तरह लोगों की दुरूहताएं बढ़ाने वाली व्यवस्था के विरोध में खड़े रहते थे। अब यह व्यवस्था धर्म की हो, जाति की हो, भाषा की हो, संस्कृति की हो या फिर सत्ता की हो, इससे कबीर को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे बिना किसी भी तरह के स्वार्थ से बहुत ऊपर उठकर लोगों को जागरूक करने में लगे रहते थे। कबीर का व्यक्तित्व बड़ा ही रोमांचकारी और चमत्कारिक था। वे अपने विरोधी को बहुत जल्दी ही अपना दोस्त बना लेते थे। कहते हैं कि एक बार कबीर कट्टरपंथियों की साजिश का शिकार हो गए। उस समय के बादशाह सिकंदर लोदी ने कबीर को जंजीर से बांधकर गंगा नदी में फिकवा दिया, लेकिन सकुशल नदी से बाहर आ गए। कभी उन्हें देग में बंद करके आग पर चढ़ाया गया, कभी उन पर तलवार से वार किए गए और कभी तोप से उड़ाने की कोशिश की गई। कबीर हर बार चमत्कारिक ढंग से बच गए। बादशाह उनकी रुहानी बादशाहत को पहचान गया और उनका मुरीद हो गया। बाद के दिनों में कबीर बादशाह सिकंदर लोदी के साथ इलाहाबाद यात्रा पर भी आए थे। कहते हैं कि उनके पुत्र कमाल का जन्म इलाहाबाद में ही हुआ था। जनश्रुतियों में कमाल के जन्म को लेकर दो कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार सिकंदर लोदी के साथ जब कबीर इलाहाबाद आए थे, तब उन्होंने गंगा में बहते हुए एक बच्चे के शव को छूकर जिंदा कर दिया था। यही बच्चा आगे चलकर उनका बेटा कमाल कहलाया। दूसरी कहानी में लोई को कबीर की पत्नी बताया जाता है, जिससे उनकी दो संताने हुईं- पुत्र कमाल और पुत्री कमाली। यह कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि संत कबीर ने जब पूरे समाज को ही अपनी संतान मान लिया था, तब उनके लिए कमाल या कमाली का होना कोई मायने नहीं रखता था।

कबीर मस्त और फक्कड़ प्रकृति के थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि कबीर की यह घर-फूंक मस्ती, फक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनकी अखंड आत्मविश्वास का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान को, अपने गुरु को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा।  वे अपनी अलमस्ती का रहस्य कुछ इस तरह बताते हैं- 

 

दरस दिवाना बावरा, अलमस्त फकीरा।

एक अकेला ह्वै रहा, अस मत का धीरा।।

हिरदे में महबूब है, हर दम का प्याला।

पिएगा कोई जौहरी, गुरु मुख मतवाला।।

 

बनारस के पास लहरतारा तालाब में प्रकट होने वाले कबीरदास मगहर में अंतर्धान हो गए। प्रकट होने की तारीख विक्रम संवत 1455 यानी 1398 ईसवी और अंतर्धान होने की तारीख विक्रम संवत 1575 यानी 1518 ईसवी बताई जाती है। तारीखों को लेकर मतभेद बहुत है, पर इतना जरूर है कि कबीर इस धरती पर जिस काम के लिए अवतरित हुए थे, उसे उन्होंने बखूबी पूरा किया। अचानक कभी नीरू और नीमा के हिस्से में आए कबीर को जिसने भी पढ़ा-समझा-जाना, उसने अपने हिस्से का कबीर अपने जेहन में बसा लिया। अब देखिए न, कबीर ने जब प्राण त्यागे तो उनके हिंदू समर्थक चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार वे करें, जबकि मुसलमान अपनी रीत रिवाज से उन्हें विदाई देना चाहते थे। अभी झगड़ा चल ही रहा था तेज हवा का झोंका आया...... कबीर के शव से चादर हट गया...... सबकी आंखें फटी रह गई....... कबीर के शव की जगह फूलों का ढेर पड़ा था...... कबीर जैसे दुनिया में आए थे वैसे ही चले भी गए। हिंदू और मुसलमानों ने अपने अपने हिस्से के फूल उठा लिए...... हिंदुओं ने फूलों की समाधि बनाई और मुसलमानों ने मकबरा। दुनिया को सच्ची व सही राह दिखाने वाला कहीं गया ही नहीं। वह तो कहता ही रहा  .....दूर गवन तेरो हंसा हो, घर अगम अपार।

('नवनीत' पत्रिका एवं साधो रे पुस्तक में प्रकाशित)