शुक्रवार, जून 11

....अगर सोचा नहीं तो सोचो अभी

....तो क्या साहित्य अब पऱेरणा नहीं दे पाता। और क्या उसने भी रास्ते दिखाने बंद कर दिये हैं। किताबें उतनी मजबूती के साथ खड़े होकर आवाज क्यों नहीं बुलंद कर पाती। और न ही किताबें हमारे साथ चलते हुए जीवन संदभो की तलाश पूरी कर पा रही हैं। आखिर हमने अपने शब्दों के साथ जीवन लय को चलने से मना क्यों कर दिया। क्यों हमने शब्दों के जरूरी हिज्जों को खारिज हो जाने दिया। कमजोर शब्द सत्ता वाले समाजों का क्या हुआ है, यह हम कैसे भूल गये। इसी तरह के तमाम पऱश्नों के साथ हम अपने समय की कालजयी कही जा सकने वाली कृितयों की तलाश में हैं। यह अनायास नहीं है िक हमारे अपने समय में कालजयी कृतियों की तलाश कठिन हो गयी है। यह समय वह है जिसे यह सोचने की फुरसत नहीं कि आखिर अब क्यों निराला की सरोज स्मृति, महादेवी की दीपशिखा, पन्त की चिदम्बरा, और जयशंकर की कामायनी सरीखी कृतियां लोगों को नहीं मिल रही हैं। यह सही है कि हमारे समय में साहित्य की कई विभूतियां मौजूद हैं, लेकिन उतना बड़ा सच यह भी है कि एसी विभूतियां बहुत कम हैं, िजनकी कृतियां कालजयी कही जा सकें। यहां यह कहना गलत न होगा कि गुटों में बंटा हिन्दी साहित्य समाज और आलोचकों की खेमेबाजी ने भी कृितयों को लेखक की पहचान नहीं बनने दिया। बहरहाल कुछ करने की जरूरत है। कुछ सोचा नहीं तो सोचो अभी।