सोमवार, फ़रवरी 16

कथाकार अमरकांत से धनंजय चोपड़ा की बातचीत


......वे जो  हमेशा अपने समय का सच रचते रहे 

वे अपने समय को बखूबी जीते थे, उसमें रम जाते थे, उसकी मिठास, कड़ुवाहट, उठा-पटक, उहापोह और जीवन संघर्ष का अनुभव लेते थे और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिन्दगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, मौत के नगर, दोपहर का भोजन, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी, इन्हीं हथियारों से जैसी सैकड़ों कालजयी कृतियां रच डालते थे। वे अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए मिलते थे, लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आती थी। वे जोश के साथ मुलाकात करते थे और लोगों को आत्मविश्वास भेंट कर देते थे। वे उम्र के कई अस्सी पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन किसी युवा रचनाकार से अधिक रचनाकर्म करते थे। यह सिर्फ इसलिए कि वे अमरकांत थे। वरिष्ठï कथाकार-पत्रकार अमरकांत!
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वे अमरकांत हैं। आजादी की लड़ाई केदिनों से ही उन्होंने जिस बेबाकपन को अपनाया वह किसी भी दौर में लिखते हुए भी उनकी पहचान बना रहा। नई कहानी के दौर से गुजरते हुए ही अमरकांत ने अद्ïभुत कलात्मक रचनायें देना शुरू कर दिया था। ‘बस्ती’ कहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आयी हताशा से साक्षात्कार कराती है। डिप्टी कलक्टरी अपने समय के एक बड़े सच को उजागर करती है तो गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां ढोंग और अवसरवादिता-काईंयापन पर चोट करती मिलती हैं।

अमरकांत अपनी रचनाओं में  इस बात से बखूबी परिचित मिलते हैं कि इस नंगे-भूखे देश में सबकुछ आशा और निराशा केबीच पेण्डुलम की तरह झूलता ही रहेगा। वे ‘व्यंग्य’ को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे और उसकी मार को दवा की तरह। भले ही अमरकांत सामाजिक-राजनीतिक उठापटक से अपने को तटस्थ रखते हों, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और हर एक विद्रूपता के खिलाफ चीखती, ‘इन्हीं हथियारों से’ वार करती और सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद जगाती मिलती हैं। अनगिनत कालजयी कृतियों देने वाले अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार सहित देश के कई बड़े सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। साहित्यकारों के पुरस्कार दिये जाने पर वे टिप्पणी करते हुए सहज भाव से कहते हैं कि ‘कोई लेखक पुरस्कार पाने के लिए थोड़े ही लिखता है। यह भी जान लीजिये कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते। प्रेमचन्द, रेणु, निराला बिना किसी पुरस्कार के ही अमर हैं। हां, यह अवश्य है कि पुरस्कार या सम्मान पाने वाले लेखक की अपने समाज और पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है।’
कथाकार अमरकांत से यह बातचीत उस लम्बी बातचीत का एक हिस्सा है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज की मीडिया रिसर्च सेल में धरोहर के रूप में सहेजने के लिए किया गया था।  हमें पता था कि अमरकांत जी से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है तो थमने का नाम ही नहीं लेता। उनके पास आजादी के संघर्ष का आंखों देखा और भोगा इतिहास है तो हिन्दी पत्रकारिता के मंजावट वाले दिनों का अनुभव भी है। वे साहित्य की रचना ही नहीं करते रहे हैं, बल्कि रचनाकारों की कई-कई पीढिय़ां तैयार करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया है। यही वजह थे कि हम वीडयिो कैमरा लगाकर बैठ गए और वे बोलते रहे .... अपने समय का इतिहास और  तैयार होते रहे आने वाली कई पीढिय़ों के लिए कई -कई अध्याय। प्रस्तुत हैं उनसे हुई इसी लम्बी बातचीत के कुछ अंश:

पहली कहानी कब लिखी?
प्रश्न सुनते ही मुस्कराते हैं अमरकांत जी। कुछ याद करते हुए कहते हैं- पढ़ाई के दिनों में शरतचन्द को पढक़र कुछ रोमांटिक कहानियां लिखी थीं, लेकिन वे सब कहीं छपी नहीं। वह समय 1940 के आस-पास का रहा होगा। छपने वाली पहली कहानी ‘बाबू’ थी, जो आगरा से निकलने वाले समाचार पत्र ‘सैनिक’ के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। शायद 1949-50 में (कुछ याद करते हुए)। दुखद यह रहा कि इस कहानी की न तो मेरे पास स्क्रिप्ट ही बची और न ही इसका प्रकाशित रूप। गुम गई ये कहानी। यही वजह है कि मैं हमेशा अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ को कहता हूं, जो पहले प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में मैंने पढ़ी और बाद में 1953 में ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई। इसी कहानी के बाद मैं सम्मानित लेखकों की श्रेणी में शामिल हो गया। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, जो आज तक जारी है। 
 
आज के कथा लेखकों और उनकी रचनाओं को आप किस रूप में पाते हैं? 
नए लेखकों के सामने उनका समय और उसकी सगााइयां हैं। इन दिनों नई परिवर्तित परिस्थितियां हैं, जो हमारे शुरुआती दिनों से एकदम भिन्न हैं। ऐसा नहीं है कि नए लेखक जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। नई-नई समस्याओं पर लगातार लिखा जा रहा है। कई लेखक तो अपने समय से जूझ कर बेहतर कृतियां देने में सफल भी हो रहे हैं। हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बहुत से नए लेखक हड़बड़ी में हैं। मेरा मानना है कि मेहनत के बिना अ'छी रचना नहीं लिखी जा सकती है। शैली और भाषा में नए प्रयोग की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन ऐसा कम ही लेखक कर रहे हैं। एक बात और, अब हमारे समय जैसा सहज और सरल समय नहीं रहा और यही वजह है कि नई पर्स्थितियों में रचनाकर्म कठिन होता जा रहा है।

और आलोचकों की परफार्मेंस पर आपकी क्या राय है?
साहित्य में आलोचना के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आलोचना का मतलब सिर्फ आलोचना करना ही नहीं होता, जैसा कि प्राय: देखने-पढऩे को मिलता है। पहले के टीकाकार जो काम करते थे, वही आलोचकों करना चाहिये। अब देखिये, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन की मूल प्रति है ही नहीं। उसकी टीका लिखी गयी। वही मिलती है। उसी से इस दर्शन को समझा जाता है। आलोचकों को चाहिये कि वे बेहतर कृतियों को खोजकर उनकी व्याख्या करें, टीका लिखें। मैं यह बात टुटपुंजिए आलोचकों के लिए नहीं कह रहा हूं। गम्भीर रूप से आलोचना कर्म में जुटे लोगों को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। कुछ युवा आलोचकों ने उम्मीद जगा रखी है।  

निष्क्रिय पड़ते जा रहे लेखकीय संगठनों को आप क्या सलाह देंगे?
मैं यह नहीं कहूंगा कि वे निष्क्रिय हो गये हैं। वे सब अपनी नई मान्यताओं के अनुरूप काम कर रहे हैं। देखिए, हमारे समय में ये संगठन बहुत अधिक सक्रिय हुआ करते थे। मैं प्रगतिशील विचारधारा का नहीं था, लेकिन ये प्रगतिशीलियों की सक्रियता ही थी कि वे मुझे अपनी ओर ले गये। मैंने अपनी पहली कहानी आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ही सुनाई। आगरा के बाद जब इलाहाबाद आया तो यहां भी इस संगठन के लोगों ने मुझे अपने से जोड़ लिया। यहां उन दिनों परिमल संगठन भी बहुत सक्रिय था। दोनों ही संगठनों के बीच लेखन में आगे निकल जाने की होड़ मची रहती थी। स्वस्थ्य विमर्श होते थे। मेरा मानना है कि मतभेद होना गलत नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। इसी से नये रास्त निकलते हैं। संगठनों में होने वाले विमर्श नई पीढ़ी को तैयार हेने का मंच और अवसर उपलब्ध कराते हैं। संगठनों को चाहिये कि मतैक्य न होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों को आगे बढ़ाने के लिए काम करें।

आपने लगभग चालीस वर्ष पत्रकारिता की है। तब और अब की पत्रकारिता में क्या फर्क महसूस करते हैं? 
बहुत फर्क आया है। वेतन के मामले में कई अखबारों व पत्रिकाओं ने सार्थक पहल की है। हमारा समय वेतन के मामले में इतना बेहतर नहीं था। हमने आपातकाल भोगा है और उन दिनों पत्रकारों के समक्ष आने वाले संकट को भी। फिलहाल अब  पत्रिकाओं और अखबारों की प्रस्तुतियों और कंटेंट के वैविध्य में तो ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं,जिनकी कल्पना भर हम अपने समय में करते थे। पत्रकारों के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। ठीक उसी तरह की चुनौतियां हैं, जैसी लेखकों के सामने हैं। (अमरकांत जी टीवी पत्रकारिता पर कुछ नहीं कहते, शायद कहना नहीं चाहते।)  

आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने वाले अमरकांत से आज के हालात पर टिप्पणी मांगी जाये तो क्या होगी?
इस प्रश्न पर कुछ देर संयत रहने के बाद अमरकांत जी हंसते हुए कहते हैं-अब भ्रष्टाचार और घोटालों वाले इन हालातों पर क्या टिप्पणी की जाये। हाल के आंदोलन अपने समय को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। बदली परिस्थितियों में राजनीति और उसके मानक बदल गये हैं। लोगों की आकांक्षायें बढ़ी हैं और जागरूकता भी। हमारे देश की व्यवस्था जनतंत्र को संतुष्ट कर पाने में विफल सी हो रही है। गांव के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गयी है तो शहरी लोगों में राजनीति के प्रति ऊबाहट बढ़ी है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की गारंटी की लड़ाई जरूरी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि देश में एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है। एक बात और जिस देश में प्रगतिशील जनतंत्र नहीं होता वह कमजोप पड़ता जाता है।

एक लेखक के रूप में आप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं?
हां, यह सवाल बहुत जरूरी है। मैं जब सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लेने रूस गया था तो मुझे वहां टालस्टाय और चेखव के घर देखने का मौका मिला। वहां की सरकार ने दोनों ही लेखकों के घर, उनकी चीजों, उनकी किताबों और उन पर लिखी गयी किताबों को धरोहर के रूप में सम्भालने की जिम्मेदारी उठी रखी है। हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है कि महादेवी, पंत और निराला के घरों और उनकी चीजों का क्या हश्र हुआ है। सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी है। अरे भाई, किसी लेखक को पुरस्कार या सम्मान दे देने भर से कुछ नहीं होता। पुरस्कार या सम्मान तो लेखन के लिए होता है। सरकार को चाहिये कि बेघर लेखक को घर देने, प्रकाशकों से समय पर उचित रायल्टी दिलाने और उन्हें आर्थिक तंगी से उबारने  की दिशा में भी कदम उठाने की पहल करे और ठोस नीतियां बनाये। सुना है कि बंगाल में ऐसी कोई नीति बनी है, लेकिन पता नहीं यह कितना सच है। हिन्दी लेखकों के लिए तो इस तरह की अब तक कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को नए लेखकों और शोधार्थियों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। पढऩे और लिखने की प्रवृत्तियों को जितना प्रत्साहन मिलेगा उतना ही बेहतर समाज और देश हम बना पायेंगे।

आजकल आप क्या लिख रहे हैं? 
नियमित लेखन नहीं हो पा रहा है। ‘एक थी गौरा’ उपन्यास को पुरा करने में जुटा हूं। एक वर्ष में पूरा कर लेने की योजना है। पत्रकारिता पर भी एक उपन्यास लिखने की योजना बनी है। ‘खबरों का सूरज’ नाम के इस उपन्यास में मैं ‘सैनिक’, ‘उजाला’, ‘भारत’ व ‘अमृत पत्रिका’ आदि दैनिक व साप्ताहिक पत्रों व मित्र प्रकाशन की ‘मनोरमा’ पत्रिका में काम करते हुए मिले अनुभवों को पाठकों के साथ बाटूंगा। यह उपन्यास पत्रकारों के संघर्ष और संघर्ष के दौरान यूनियन के नेताओं से मिले धोखे पर आधारित होगा।

एक लम्बी बातचीत के बाद भी उनका चेहरा एक स्फूर्तिभरी दमक लिए हुए दिख रहा था। वे बात करते वक्त यह अहसास ही नहीं होने देते हैं कि हम एक बड़े लेखक के साथ हैं, जिसे देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और अनगिनत शोधकर्मी जिनपर शोध कर रहे हैं। वे जिस अंदाज में बात करते हैं, वह अपने आप में एक अलग शैली का निर्माण करता है। जीवन की विषमताओं पर लिखते समय या फिर जीवन संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते समय, हर बार यही लगता है कि वे अपने यूवा दिनों का स्वतंत्रता आंदोलनकारी रूप को अभी तक भूल नहीं पाये हैं। दूसरों के दुखों, कष्टों, संघर्षों, दुविधाओं को नितांत निजी मानकर रचना कर देने वाले अमरकांत चलते-चलते अपने समय के सच से मुठभेड़ करने की सीख देना नहीं भूलते।

...और अब ‘मोबाइल’ पर निबंध व साहित्य का जमाना


आज से पैंतीस साल पहले जब मैं दसवीं क्लास का छात्र था तो मुझे ‘मेरा प्रिय अखबार’ पर निबन्ध लिखने को दिया गया था और मुझे याद है कि मैंने अपने अखबार की ढेर सारी खूबियां गिना डालीं थीं। मसलन मेरा अखबार देश-दुनिया की खबरें देता है, नॉलेज बढ़ाता है, नई-नई इनफॉर्मेशन देता है, नई फिल्मों के बारे में बताता है, साहित्य पढ़ाता है, घूमने की जगहों से परिचित कराता है,  बेरोजगारों को नौकरी पाने की राह बताता है, कुंवारों की जोड़ी बनाने में हेल्प करता है आदि-आदि। तीस साल बाद मेरे बेटे के स्कूल में ‘माय डियर मोबाइल’ पर निबंध लिखने को मिला है और मेरे लिए यह आश्चर्य से कम नहीं कि वह मोबाइल की लगभग वैसी ही खूबियां गिना रहा है, जैसी मैंने अपने अखबार की गिनायीं थीं। बड़ी बात यह कि न मैं तब गलत था और न वह अब।
मेरे बेटे ने कुछ इस तरह मोबाइल की खूबियां गिनायीं। ‘माय डियर मोबाइल’ देश-दुनिया की खबरें देता है, नई-नई इनफॉर्मेशन देता है और पलक झपकते उन्हें अपडेट कर देता है, नई फिल्मों के बारे में ही नहीं बताता, बल्कि उन्हें दिखाता भी है, पापा को शेयर बाजार से जोड़े रखता है, क्रिकेट के स्कोर से अपडेट करता है, बेरोजगारों को नौकरी पाने की राह ही नहीं बताता, उन्हें नौकरी दिलाता भी है, कुंवारों की जोड़ी बनाने में हेल्प भी करता है। रेल और प्लेन के सम्बन्ध में इनफॉर्मेशन देता है। हमारा भविष्य बांचता है और हमें बेहतर लाइफ स्टाइल के टिप्स देता है। बड़ी बात यह कि माय डियर मोबाइल रेडियो, टेलीविजन के साथ-साथ अखबार की तरह भी हमारे साथ रहता है। उससे भी बड़ी बात यह कि इसने हमारे रिश्तदारों और दोस्तों के बीच होने वाली चिट्ठी-पत्री की जगह ले ली है। माय डियर मोबाइल कैमरे की तरह काम करता है और हमसेे सिटीजन जर्नलिस्ट की तरह काम भी करा लेता है। माय डियर मोबाइल मुझे इंटरनेट से भी जोड़ देता है। आदि-आदि।
‘माय डियर मोबाइल’ में मुझे यह भी पढऩे को मिला कि मंहगी और मंहगी होती दुनिया में एक पैसे की बात कहीं हो रही है तो वह मोबाइल की ही दुनिया है। मजेदार बात यह कि जब हम एक पैसे के मायने और अहमियत भूल चुके थे तब मोबाइल ने हमें उससे जोड़ दिया है। एक पैसे में एक सेकण्ड बात का फण्डा कारगर हुआ है और एक नये पैसे की याद ताजा हो उठी है। काश! वह एक नये पैसे का सिक्का अपने पास होता और मैं ‘माय डियर मोबाइल’ निबंध में इस फण्डे का जिक्र कर रहे अपने बेटे को वह दिखा पाता। फिलहाल मोबाइल ने अनायास ही मेरे बेटे और उसकी पीढ़ी के साथ-साथ आगे-पीछे की कई पीढिय़ों को एक-एक पैसे की अहमियत जता दी है। रूपयों के हिसाब के प्रति गैर-जिम्मेदार ये पीढिय़ां कम से कम एक-एक पैसे के प्रति जिम्मदार होती नजर तो आने लगी हैं।
चलते-चलते एक खबर यह भी कि अखबारों की तरह ही मोबाइल पर भी साहित्य की धमक सुनाई देने लगी है। मेरे एक मित्र आजकल अपनी कविताएं मोबाइल पर लिख रहे हैं और उन्हें लगातार अपने मित्र मंडली को मैसेज के जरिए भेज भी दे रहे हैं। पिछले दिनों एक महाशय ने पूरी महाभारत की कहानी ट्विटर के जरिए कह डाली। एक सज्जन मोबाइल पर उपन्यास लिख रहे हैं तो एक ने लघु कथाएं लिखना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि आने वाले दिनों में मोबाइल साहित्य विमर्श के जानकार और आलोचकों की जरूरत पड़ सकती है। तैयार रहिए।

रविवार, फ़रवरी 15

...तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को


आज पन्द्रह फरवरी को लक्ष्मीकांत वर्मा का  जन्मदिन है। यूं तो उन्हें रंगकर्म की कई संस्थाएं याद करती रहती हैं, लेकिन किसी साहित्यिक संस्था या संगठन द्वारा उनकी याद में कोई कार्यक्रम न करना खलता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक पीढ़ी ऐसी है इस शहर में जो उन्हें बहुत ही शिद्दत के साथ याद रखती है। अभी इस शहर में उनके साथ साहित्यिक संगोष्ठियों में मौजूद रहने वाले भी कई हैं जो उनकी यादों को बहुत करीने से सहेजे होंगे। कारण केवल इतना कि उनके जैसा सहज और सरल व्यक्तित्व साहित्य में जल्दी नहीं मिलता।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैं साहित्यिक खबरें खोजता इस शहर में फिरा करता था, उन दिनों लक्ष्मीकांत हम जैसे कई पत्रकारों के सबसे बड़े पैरोकार हुआ करते थे। वे न केवल साहित्य की राजनीति की दीक्षा दिया करते थे, बल्कि अपने उदाहरणों से हमें अपने समय से जूझने का सलीका  भी सिखाया करते थे।  वास्तव में तमाम उठापटकों और सामाजिक-साहित्यिक बवंडरों के बीच के बीच अपनी ठसक बनाकर लगातार सक्रिय रहना, केवल और केवल लक्ष्मीकांत के ही वश में था। वे एक साथ कई-कई पीढिय़ों में सक्रिय और लोकप्रिय थे। मुझे याद है कि वे शहर में होने वाले सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में पहुंचने की कोशिश करते और हर नए रचनाकार का हौसला बढ़ाने में लगे रहते।
पेश से पत्रकार रह चुके लक्ष्मीकांत वर्मा सामाजित घटनाओं के प्रति जितनी सजगता रखते थे, उतनी ही राजनीतिक सतर्कता भी उनमें दिखती थी। लेकिन, मजाल है कि लाभ के लिए वे अपनी साख और मान्यताओं से किसी तरह का समझौता कर लें। वे जिस शिद्दत के साथ पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों के प्रति चिंतित रहते थे, मैंने अन्य किसी साहित्यकार को चिंतित होते नहीं देखा। वे केवल चिंता जता कर इतिश्री कर लेने वालों में से नहीं थे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रदेश सरकार को पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों की बेहतरी के लिए नीतियां बनाने और उन्हें अमल में लाने के लिए बकायदा एक मसौदा तैयार करके दिया था। यदि उस मसौदे पर अमल हुआ होता तो तस्वीर का रुख और ही होता।
लक्ष्मीकांत वर्मा ने अपने पीछे की पीढिय़ों को अपनी बात बेबाकी से रखना तो सिखाया ही, साथ ही उस पर इमानदारी के साथ डटे रहना भी सिखाया। मुझे यह बात कई बार दुहराने में कोई गुरेज नहीं है कि हमारे समय की कई पीढिय़ों की बनावट और मंजावट में लक्ष्मीकांत वर्मा का बहुत बड़ा योगदान था। अपने समय को समझना और फिर उस अपने समाज के बने-बनाए खांचे में इस तरह फिट कर देना कि हर किसी को वही सच लगने लगे, यह उन्हें बखूबी आता था। उनके कविता संग्रह ‘रू-ब-रू लक्ष्मीकांत’ में इस बात को सच होते देखा जा सकता है। तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को। उनकी स्म़तियों को सहेजते हुए उन्हें उनके जन्मदिन पर नमन।

रविवार, फ़रवरी 1

...आखिर कैसे बचे जल जमीन और जीवन




बदलते समय और बदलती दुनिया ने हमें जिस मोड़ पर लाकर खड़ा किया है, वहां से जल, जमीन और जीवन को बचाने का रास्ता कठिन सा दिखने लगा है। यह अनायास नहीं है कि केन्द्र सरकार के जल संसधन मंत्री को बीते वर्ष जल सप्ताहको प्रारम्भ करते वक्त यह कहना पड़ा था कि भारत पहले से ही जल की कमी के दबाव को झेल रहा है और आने वाला समय हमें जल दुर्लभता वाले देश में तब्दील कर देगा।समस्या नई नहीं है। सन 2002 में ही सुप्रीम कोर्ट ने देश में सूखा और बाढ़ सरीखी जल जनित प्राकृतिक आपदाओं और सरकारी नीतियों के बीच बिगड़ते  रिश्तों का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार को निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही देश की प्रमुख नदियों को जोडऩे के लिए आवश्यक कदम उठाए जायें। लेकिन, तमाम कवायदों के बाद भी हम रहे वही ढाक के तीन पात ही।

सच तो यह है कि किसी लोकतांत्रिक देश में यदि नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों के लिए कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़े तो इसके मायने तो यही हैं कि पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। आज पानी से जुड़े सरकारी और गैर सरकारी आंकड़े भी कठिन समय की गवाही दे रहे हैं। विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे हैं कि आने वाले समय में बढ़ती जनसंख्या और पानी की खपत के बीच रिश्ते और खराब होते जाएंगे। दूसरी तरफ बाजार की पानी को लेकर बढ़ती संवेदनशीलतादिनोंदिन बढ़ती जा रही है और पानी को लेकर होने वाली निपनिया राजनीति पानी पर कब्जा करने और उसे सोख जाने के लिए आतुर है।
ऐसे में यह प्रश्न चिंता तो देता ही है कि किस तरह हम अपने जल, जमीन और जीवन को बचा ले पाएं। न केवल बचा लें, बल्कि उसे भविष्य की पीढिय़ों के लिए सुरक्षित सहेज भी लें। अब यह जरूरी लगने लगा है कि जल्दी ही सरहदों के आर-पार पानी-सहयोग-संधिपर बात होनी चाहिए और उसे मूर्त रूप देने में देर नहीं करनी चाहिए। भले ही ये सरहदें अपने प्रदेशों के बीच की हों या फिर पड़ोसी देशों के बीच हों। वास्तव में हमारा यह समय वाटर फ्रेंडशिपको बढ़ावा देने और उसे लगातार मजबूत करने का है। दूसरी कवायद जन जागरूकता लाकर ऐसे सामाजिक दबाव समूहबनाने की है, जो नित नए पैदा हो रहे जल अधिपतियोंके खिलाफ नागरिक नाकेबंदीकरके उनकी दबंगई को खारिज कर दें। सही मायनों में तभी हम जल, जमीन और जीवन को बाजार के कब्जे में जाने से भी रोक पाएंगे।
कुछ अहम प्रयास सरकार की ओर से किये जाने भी जरूरी हैं। वास्तव में पानी के स्रोतों के सूखने, नष्ट होने या फिर नए स्रोतों की खोज और निर्माण न होने का कारण सरकारों की ओर से बरती जा रही लापरवाही का ही नतीजा हैं। सरकार के पास जल नीति तो है, लेकिन पानी के बेजा इस्तेमाल, अवैध दोहन, खपत की बढ़ती रफ्तार पर कमान कसने के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं हैं। लिहाजा हमारे जीवन का आधार कहे जाने वाला पानी अराजकता का शिकार हो गया है। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि किस तरह लोगों को जोडक़र पानी के स्रोतों को बचाने और उन्हें समृद्ध करने के प्रयास जारी रहें। वैसे केन्द्र सरकार ने  2012 की नेशनल वाटर पॉलिसी में एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धनकी बात कही है, लेकिन यह बिना जन जागरूकता और जन सहभागिता के असंभव ही है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी यह नहीं जानता कि जिस पानी को वह बेकार बह जाने दे रहा है, वह उसके जीवन का पर्याय है। उसका भोजन, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवेश, उसका पर्यावरण .. .. ..सब कुछ बिना पानी के क्षण भर भी ठहर नहीं सकता।