शनिवार, दिसंबर 23

तय करने होंगे खुशियों के अपने-अपने फ्रेम

कुछ वर्षों पहले की बात है। देश की सीमा पर शहीद हुए एक जांबाज सैनिक के परिवार से मुलाकात करने को मिला। बूढ़े मां-बाप, पत्नी और उसका बेटा। सभी के पास शहीद सैनिक पर गर्व करने की अपनी वजहें और अपने तर्क। बातचीत में घर का पुराना फोटो एलबम निकल आया। पेशे से कालेज टीचर रहीं बूढ़ी मां ने बड़े ही चाव से एक-एक फोटो दिखाना और उनसे जुड़े संदर्भों को समझाना शुरू कर दिया। कभी वे बतातीं कि किस तरह उनका बेटा फलां फोटो के फ्रेम से बाहर हो रहा था तो उसके मामा ने उसे फ्रेम के भीतर किया और कभी बेटे द्वारा खींची गई फोटोग्राफ्स के फ्रेम और कम्पोजीशन की तारीफ करने लगतीं। हर फोटोग्राफ के फ्रेम के भीतर सिमटी-सहेजी हुई उनकी खुशियां रह-रह कर बाहर आ जाती थीं और उनका चेहरा इन खुशियों को पाकर दमकने लगता था। मेरे साथ पूरा घर एलबम में इस तरह झांक रहा था मानो पहली बार देख रहा हो। मेरे मन में आयी इस बात को भांपते हुए बूढ़ी मां ने बड़ी ही आत्मीयता से एलबम का पेज पलटते हुए कहा-ये हमारी खुशियों के फ्रेम्स हैं, जिनमें हम अपने और अपनों को ढूंढ़ लेते हैं और खुश हो लेते हैं।
वास्तव में हम में से अधिकतर लोग अपने पास खुशियां न होने का रोना रोते मिल जाते हैं। हमारी खुशियों के अभाव का ठीकरा सीधे दुनिया बनाने वाले के सिर पर फूटता है। इस मामले में हम सब भा यवादी हो जाते हैं और सारा दोष अपना भाज्य गढऩे वाले ईश्वर पर मढक़र खुद की हिस्सेदारी हो गई मान लेते हैं। सच तो यह है कि खुशियां पाने और उसे गढऩे में सबसे बड़ी हिस्सेदारी हमारी ही है। हम खुद अपनी खुशियों के फ्रेम तय कर सकते हैं और उसमें खुद को फिट कर सकते हैं। पहल तो इस बात से ही हो जाती है कि हम तय करें कि हमें खुशी कब और कैसे मिलती है। हमारे आस-पास ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने खुद के खुश होने के बहाने और रास्ते खोज लिये हैं और उन्हीं में रम कर खुश हैं।
अब मुम्बई के पार्थो भौमिक को ही लीजिये, अपने बियाण्ड साइट फाउण्डेशन के माध्यम से वे आंखों की रोशनी से वंचित युवाओं को फोटोग्राफी का प्रशिक्षण देने का अभियान चलाये हुए हैं। टच एण्ड हियरतकनीक का सहारा लेकर ब्लाइण्ड यूथ्स को कैमरा चलाना सिखाने वाले पार्थो ने साइट, परसेप्शन और विजन जैसे शब्दों को बेमानी कर रखा है। पार्थो अपनी इस शूट विदाउट साइटमुहिम के साथ बहुत खुश हैं। पार्थो की मुहिम में हिस्सेदारी निभाने वाले अंधता का शिकार युवाओं की खुशी देखते ही बनती है। वे अपनी कृतियां देख तो नहीं पाते, लेकिन उन्हें अहसास रहता है कि उन्होंने अपने कैमरे की आंख में जिस दुनिया को कैद किया है, वह सुन्दर और बेहतर ही है। पिछले महीने पार्थो अपने स्टूडेन्ट के साथ इंटरनेशनल डिसेबिलिटी आर्ट्स फेस्टिवल में भाग लेने भी गये और अपने अभियान को लोहा मनवाकर लौटे।

खुशियां पाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसे बांटना भी है। सच तो यह है कि जब हम खुशियां बांटने निकलते हैं तभी हमें खुद की खुशी से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। तभी हम अपनी सोसायटी में खुद के होने के मायने समझ पाते हैं। खुद से खुद का मिलना एक अलग ढंग का अहसास देता है। यही अहसास हमें सोसायटी के लिए कुछ बेहतर कर गुजरने की पे्ररणा देता है और हमें एक बार और खुश हो लेने का मौका मिल जाता है। सच कहूं तो मैंने अपने इसी फण्डे का इस्तेमाल करके खुद को कई दुविधाओं से उबारने का काम किया है। बात खत्म करने से पहले एक मुलाकात का जिक्र करना चाहूंगा। मुझे अपनी पिछली यात्रा में एक बुजुर्ग व्यक्ति मिले, जिनका पूरा परिवार एक एक्सीडेंट में मारा गया था। कुछ दिनों दुख और अवसाद में बिताने के बाद इन्होंने तय किया कि वे देश के हर छोटे-बड़े अनाथालय में जायेंगे और वहां रहने वाले बच्चों को कुछ न कुछ उपहार देंगे। अब वे खुश हैं और बड़ी ही शिद्दत के साथ अपनी इस मुहिम में जुटे हैं। सच.... हम सब को अपने खुश होने के बहाने और रास्ते खोज लेना चाहिये।