गुरुवार, जुलाई 28

यूं ही याद नहीं आ जाते हैं अपने प्रेमचन्द


भारतीय परम्परा में गांधी और प्रेमचन्द, दो ऐसी महान विभूतियां हैं, जिन्हें भुला पाना या इन्हें साथ लिए बिना आगे बढऩा किसी भी समय के किसी भी समाज के लिए संभव ही नहीं है। इस बात से कैसे कोई मुंह फेर सकता है कि प्रेमचन्द की प्रासंगिकता उनकी गहरी संवेदना से ही होकर हम तक पहुंचती है। प्रेमचन्द के समय या फिर उसके बाद के समय में भारतीय साहित्य परम्परा में कोई भी ऐसा लेखक नहीं हुआ जिसने एक साथ उन सभी सामाजिक संदर्भों पर अपनी कलम चलाई हो जिनका सीधा सम्बन्ध हर उस आदमी से था, रहता है और रहेगा जो अपने समय और समाज से जूझता हुआ मिलता है। बड़ी बात यह थी कि जब उन्हें महसूस होता था कि वे अपनों की बात साहित्य से पहुंचाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं तो वे पत्रकार के रूप में प्रकट हो जाते थे। उनके मर्यादा, जागरण और हंस में प्रकाशित लेख और टिप्पणियां इस बात की गवाही देती मिल जाती हैं।
प्रेमचन्द ने भीड़ में अपने को अलग करने के लिए जिन रास्तों को चुना था वह आसान नहीं था। वे अंतरराष्ट्रीयता, दलित चेतना, स्त्री स्वतंत्रता, किसान समस्या, शहरीकरण आदि प्रश्नों को उठाते हुए भी साम्राज्यवाद विरोध की अपनी सोच और समझ को किसी भी तरह से जाया होने नहीं देते थे। वे भोगे हुए सच को सामने रखते समय उम्मीद करते थे कि उन्हें पढऩे वाले को सही रास्ता मिल ही जाएगा और ऐसा होता था। यही उनकी जीत थी। बम्बई की फिल्मी दुनिया में हाथ अजमाने गए और जल्दी ही खिन्न और ऊब कर लौट आए और बड़े ही बेबाक ढंग से फिल्मी दुनिया की मीमांसा करके लोगों को आगाह किया कि किस तरह वहां भारतीय परम्पराओं और संस्कृति को हाशिए पर ढकेला जा रहा है। उन दिनों के लेखने में वे जिस बाजार के खतरे की बात कर रहे थे वे आज भी लगभग जस के तस हमारे सामने हैं।
यहीं रुककर फिराक साहब की इन पंक्तियों को दोहराना चाहूंगा-''प्रेमचन्द की रचनाओं के प्रत्येक पृष्ठ में सभ्यता के प्रवर्तकों के पहले कदमों की चाप सुनाई देती है। उनकी किताबों के द्वारा सामूहिक जीवन के सभी अमर, स्थायी और दृढ़ अंगों में फिर से नवीन जीवन का संचार हो गया था। भारतवर्ष की प्रचीन ऐतिहासिक सभ्यता, उसकी तूफान लाने वाली जाग्रति की पहली धीमी करवटें थीं जो उनकी कलम से कहानियों के रूप में प्रकट हुई थीं। इस तरह की कोई चीज बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय और दूसरे बंगाली लेखकों ने भी दुनिया के सामने पेश नहीं की।ÓÓ न जाने क्यों इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं उन दिनों को याद कर बैठा हूं जब कुछ सिरफिरे प्रेमचन्द की कृतियों को जलाकर अपनी कुंठाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। उन दिनों हमारे साहित्य समाज के कई अलम्बरदार अपनी-अपनी दुकानों के शटर गिराकर मैदान से भाग गये थे या कहीं कोने-अतरे में दुबक गए थे।
अगर यह कहा जाए कि प्रेमचन्द नए लेखकों के लिए पाठशाला की तरह हमारे साथ हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। फैज अहमद फैज ने एक जगह कहा भी है-''मौजूदा दिग्भ्रमित सामाजिक और साहित्यिक दुनिया में बहुत सी यूवा प्रतिभाएं अपनी पहचान के लिए भटक रही हैं। वे आत्मगत परपीड़ा सुख में लिप्त हैं और सभी तरह की सामाजिकता या आदर्शवादिता और उद्यमशीलता का सनकवादी परित्याग करते हुए अपने लोगों से कटे हुए हैं। वे कला की वास्तविक समस्याओं से जूझने की बजाय कलावादी उछलकूद में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में प्रेमचन्द का साहित्य संस्कृति, कला और यथार्थ का सच्चा परिप्रेक्ष्य निर्मित करने के लिए अब भी प्रासंगिक है। ÓÓ शायद यही वजह है कि प्रेमचन्द यूं ही याद नहीं आते। कई वजहें हैं उनके याद आते रहने की। यह बात और है कि हमारा साहित्य समाज उन्हें याद करने के लिए हर साल 31 जुलाई के दिन का इंतजार करता है। बहरहाल कोई याद तो करता है, यही क्या कम है।