सोमवार, नवंबर 28

‘मां देखो,ये बादल आए’ के बहाने बाल साहित्य पर बात




बाल दिवस यानी नवम्बर महीने की चौदह तरीख के ठीक एक दिन पहले मेरे हाथ बाल गीतों की पुस्तक ‘मां देखो, ये बादल आए’ लग गई। एक ही सर्रे में सारी कविताए पढ़ गया और सच कहूं तो हर कविता ने बचपन के किसी न किसी दृश्य को ताजा कर दिया। कुछ दृश्य तो ऐसे थे, जिनसे नई पीढ़ी अछूती सी है। वैज्ञानकि डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र द्वारा रचित इन कविताओं में नदी है तो बादल भी। हवा में तैरती पतंगें हैं तो धाराओं को काटकर रास्ता बानाती नाव भी है। चंदा मामा हैं तो घोसला बनाती चिडिय़ा, हाथी और नटखट बंदर भी। रेलगाड़ी है तो गुल्ली डंडा का खेल भी कविताओं में मिल जाता है। हर कविता में निहित गेयता का पुट उसे और भी सम्प्रेषणीय बना देता है। मुम्बई के परिदृश्य प्रकाशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह में पैंतीस कविताएं हैं जो बच्चों को अपने समय, समाज और संस्कृति से जोडऩे का सार्थक प्रयास करती हुई मिलती हैं।
यह कविता संग्रह ऐसे समय आया है, जब प्रकाशकों ने अपने खाते से बच्चों की किताबों को लगभग खारिज सा कर दिया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि बच्चों को किताबें पढऩे के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाने को भी कोई तैयार नहीं है। बच्चों के साहित्य पर कोई गम्भीर विमर्श भी कहीं होता नजर नहीं आ रहा। हां, एक दो पत्रिकाओं ने अवश्य ही हर वर्ष बाल दिवस पर बाल साहित्य पर विशेषांक निकालने की परम्परा निभाने की परम्परा निभाना जारी रखा है, लेकिन वे भी केवल आलोचना और समीक्षाएं ही छाप रहे हैं, बाल साहित्य नहीं। गंभीरता से विचार किया जाए तो हमने अपने पीछे आ रही पीढिय़ों को बनाने और मांजने में शामिल होने वाले साहित्य से उन्हें दूर कर दिया है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हम अपने समाज और संस्कृति के प्रति उतने वफादार नहीं निकले, जितने कि हमारे पुरखे थे। याद कीजिए उस दौर को जब बड़े से बड़ा रचनाकार बच्चों के लिए कुछ न कुछ जरूर लिखता था और प्रकाशक उसे बड़ी ही सहालयित के साथ छापा करते थे। समय बदला और उसके साथ हम भी बदलते चले गए। टेक्नोलाजी के बल पर इतराने वाली मीडिया की चकाचौंध में हम यह समझ ही नहीं सके कि हमारी संस्कृति और सामाजिकता को धता बताया जा रहा है। बंटाधार तो यह हुआ कि हमारा ध्यान समाज के उस तबके यानी उन बच्चों की ओर गया ही नहीं, जो इन परिवर्तनों को ही सच मान रहा था। यह इस लिए भी कि उसके सामने हमारे समाज और संस्कृति का सच था ही नहीं।
फिलहाल अपने समय की भयावह होती जा रही फैंटेसी में किसी अदृश्य दैत्य की उंगली पकडक़र आगे बढ़ते हमारे समय के बच्चे अब हमारे लिए ही चुनौती बनते जा रहे हैं। चुनौती भी ऐसी कि हम सामना करने से या तो कतराएं या फिर जूझते हुए हारने के लिए तैयार रहें, क्योंकि टेक्नोलॉजी ने हमें यानी हमारी और हमसे पहले की पीढिय़ों को आउटडेटेड घोषित कर दिया है। अगर जीतना है तो हमें भी इन पीढिय़ों के संग-संग कदमताल करके आगे बढऩा होगा और उन्हें उनका बचपन का हर लमहा शिद्दत से बिताना सिखाना होगा और इसमें हमारा कोई भरपूर साथ दे सकता है तो वह है हमारा साहित्य। एक बार फिर हमें बच्चों के साहित्य को समृद्ध करने की कवायद करनी होगी और साथ ही बच्चों को साहित्य से जोडऩे की मुहिम चलानी होगी। मैं आशान्वित हूं और इसका कारण है मेरे हाथ लगी पुस्तक ‘मां देखो, ये बादल आए’। मैं इस पुस्तक के रचनाकार और प्रकाशक दोनों को बधाई देता हूं कि उन्होंने इस गाढ़े समय में भी उम्मीद की किरण को जिंदा रखने में हिन्दी समाज की मदद की है। ढेर सारी शुभकामनाएं।


गुरुवार, जुलाई 28

यूं ही याद नहीं आ जाते हैं अपने प्रेमचन्द


भारतीय परम्परा में गांधी और प्रेमचन्द, दो ऐसी महान विभूतियां हैं, जिन्हें भुला पाना या इन्हें साथ लिए बिना आगे बढऩा किसी भी समय के किसी भी समाज के लिए संभव ही नहीं है। इस बात से कैसे कोई मुंह फेर सकता है कि प्रेमचन्द की प्रासंगिकता उनकी गहरी संवेदना से ही होकर हम तक पहुंचती है। प्रेमचन्द के समय या फिर उसके बाद के समय में भारतीय साहित्य परम्परा में कोई भी ऐसा लेखक नहीं हुआ जिसने एक साथ उन सभी सामाजिक संदर्भों पर अपनी कलम चलाई हो जिनका सीधा सम्बन्ध हर उस आदमी से था, रहता है और रहेगा जो अपने समय और समाज से जूझता हुआ मिलता है। बड़ी बात यह थी कि जब उन्हें महसूस होता था कि वे अपनों की बात साहित्य से पहुंचाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं तो वे पत्रकार के रूप में प्रकट हो जाते थे। उनके मर्यादा, जागरण और हंस में प्रकाशित लेख और टिप्पणियां इस बात की गवाही देती मिल जाती हैं।
प्रेमचन्द ने भीड़ में अपने को अलग करने के लिए जिन रास्तों को चुना था वह आसान नहीं था। वे अंतरराष्ट्रीयता, दलित चेतना, स्त्री स्वतंत्रता, किसान समस्या, शहरीकरण आदि प्रश्नों को उठाते हुए भी साम्राज्यवाद विरोध की अपनी सोच और समझ को किसी भी तरह से जाया होने नहीं देते थे। वे भोगे हुए सच को सामने रखते समय उम्मीद करते थे कि उन्हें पढऩे वाले को सही रास्ता मिल ही जाएगा और ऐसा होता था। यही उनकी जीत थी। बम्बई की फिल्मी दुनिया में हाथ अजमाने गए और जल्दी ही खिन्न और ऊब कर लौट आए और बड़े ही बेबाक ढंग से फिल्मी दुनिया की मीमांसा करके लोगों को आगाह किया कि किस तरह वहां भारतीय परम्पराओं और संस्कृति को हाशिए पर ढकेला जा रहा है। उन दिनों के लेखने में वे जिस बाजार के खतरे की बात कर रहे थे वे आज भी लगभग जस के तस हमारे सामने हैं।
यहीं रुककर फिराक साहब की इन पंक्तियों को दोहराना चाहूंगा-''प्रेमचन्द की रचनाओं के प्रत्येक पृष्ठ में सभ्यता के प्रवर्तकों के पहले कदमों की चाप सुनाई देती है। उनकी किताबों के द्वारा सामूहिक जीवन के सभी अमर, स्थायी और दृढ़ अंगों में फिर से नवीन जीवन का संचार हो गया था। भारतवर्ष की प्रचीन ऐतिहासिक सभ्यता, उसकी तूफान लाने वाली जाग्रति की पहली धीमी करवटें थीं जो उनकी कलम से कहानियों के रूप में प्रकट हुई थीं। इस तरह की कोई चीज बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय और दूसरे बंगाली लेखकों ने भी दुनिया के सामने पेश नहीं की।ÓÓ न जाने क्यों इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं उन दिनों को याद कर बैठा हूं जब कुछ सिरफिरे प्रेमचन्द की कृतियों को जलाकर अपनी कुंठाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। उन दिनों हमारे साहित्य समाज के कई अलम्बरदार अपनी-अपनी दुकानों के शटर गिराकर मैदान से भाग गये थे या कहीं कोने-अतरे में दुबक गए थे।
अगर यह कहा जाए कि प्रेमचन्द नए लेखकों के लिए पाठशाला की तरह हमारे साथ हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। फैज अहमद फैज ने एक जगह कहा भी है-''मौजूदा दिग्भ्रमित सामाजिक और साहित्यिक दुनिया में बहुत सी यूवा प्रतिभाएं अपनी पहचान के लिए भटक रही हैं। वे आत्मगत परपीड़ा सुख में लिप्त हैं और सभी तरह की सामाजिकता या आदर्शवादिता और उद्यमशीलता का सनकवादी परित्याग करते हुए अपने लोगों से कटे हुए हैं। वे कला की वास्तविक समस्याओं से जूझने की बजाय कलावादी उछलकूद में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में प्रेमचन्द का साहित्य संस्कृति, कला और यथार्थ का सच्चा परिप्रेक्ष्य निर्मित करने के लिए अब भी प्रासंगिक है। ÓÓ शायद यही वजह है कि प्रेमचन्द यूं ही याद नहीं आते। कई वजहें हैं उनके याद आते रहने की। यह बात और है कि हमारा साहित्य समाज उन्हें याद करने के लिए हर साल 31 जुलाई के दिन का इंतजार करता है। बहरहाल कोई याद तो करता है, यही क्या कम है।

रविवार, मई 22

बढ़ती जनसंख्या और पर्यावरण



निदेशक, समाज सेवा सदन, इलाहाबाद/hindi.indiawaterportal.org/node/53282

सोमवार, फ़रवरी 22

समानांतर आवाजें भी महत्वपूर्ण होती हैं

कुछ लोग नारे लगा रहे थे। उनके नारों के प्रत्यत्तर में कुछ दूसरे लोग नारे लगाने लगे। दोनों को एक-दूसरे के नारे पसंद नहीं आ रहे थे। एकाएक दोनों के नारे आपस में टकराने लगे। फिर लोग आपसे में टकराने लगे। फिर दोनों तरफ से पहले पत्थर, फिर गोली और फिर बम चलने लगे। अफरा-तफरी मच गयी। लोग भगा दिए गए। नारे, जो जरूरी थे, गायब हो गए। फिर खो से गए। भिंची हुई मुट्ठियां खुल गईं। और, सब कुछ बदल देने वाले नारे किताबों में भी नहीं मिलते अब। सच ही है कि समानांतर आवाजों का समय अपनी बनावट से पहले ही खत्म हो जाया करता है। काश हर समय और हर समाज में यह समझा जा सकता कि समानांतर आवाजें जरूरी होती हैं। और, वहां तो और भी जहां जनतंत्र सांस लेने में गर्व महसूस करता हो।
गुटों में बंटे हमने समानांतर आवाजों की जगह बनाने में हमेशा से कोताही की है। हमने हमेशा से उन्हीं आवाजों को सुनना चाहा है जो हमें बेहतर लगती हैं। समय कोई भी रहा हो, सत्ता कोई भी रही हो, साहित्य और संस्कृति के पैरोकार कोई भी रहे हों, समाज चलाने वाले लोगों की मंशा और मकसद कुछ भी रही हो, सबने अपने-अपने लिहाज से समानांतर आवाजों को दबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हमें जो अपने पक्ष में लगी, उसी आवाज को हमने जरूरी माना और बाकी सबको बेमानी कहकर खारिज करने में तनिक भी देर नहीं लगाई। नतीजा हमारे सामने है। हम ऐसे समय में आन खड़े हैं, जहां कोई किसी को शिद्दत के साथ सुनना ही नहीं चाहता।
वास्तव में हमारे समाज की बनावट में समानांतर आवाजों का बहुत बड़ा यागदान रहा है। समाज बना और लगातार संवरा तो इन्हीं समानांतर गूंजती आवाजों के भरोसे। हमने सांस्कृतिक विविधता का ताना-बाना भी इन्हीं समानांतर आवाजों को आधार बनाकर तैयार किया। हमारी एकेडेमिक सोच और समझ का दायरा इन्हीं समानांतर आवाजों ने तय किया। हम शिक्षा के आलयों में इन्हीं आवाजों के बलबूते बने रह पाए और आगे बढ़ते रहे। लेकिन जब से हमने इन आवाजों का साथ निभाना छोड़ा है, तमाम जरूरी चाजें हमारा साथ छोडऩे लगी हैं। हम भीड़ में भी अकेले रह से गए हैं। जाहिर है कि अकेले होते जाते इस समय में अब लोगों का एक-दूसरे का साथ निभाना मुश्किल होता जा रहा है और यही वजह है कि समाज में बिखराव सा दिखने लगा है।
हां, समानांतर आवाजों के मायने भी बदल चुके हैं। विरोध के लिए विरोध करना परम्परा और संस्कृति का रूप लेने लगा है। विरोध का तर्क से रिश्ता खत्म सा है। अब केवल सामने वाले को नीचा दिखाने या फिर उसे और उसकी सोच को खारिज करने के लिए आवाजें की जा रही है। यह जानते-बूझते हुए कि ऐसी आवाजें समानांतर आवाजों का श्रेणी में नहीं आती, उन्हें समानांतर कहकर बुलंद किया जा रहा है। और अगर ऐसी तमाम आवाजें अपने मायने खो दे रही हैं तो फिर उस पर बहस कैसी? जरूरत है कि समानांतर आवाजों के मायने और समाज में उनकी जरूरत को समझा जाये और अपने समय में मौजूद तमाम पीढिय़ों को समझाया भी जाये।

 

सोमवार, जनवरी 11

इलाहाबाद जिन्हें कभी भुला नहीं पाएगा


पंजाबियत उन पर फबती थी। मुम्बईया स्टाइल में वे कभी-कभी दिख जाया करते थे। दिल्ली उन्हें कामकाजी शहर लगता था। लेकिन, जिस शहर को वे अपनी रगों में महसूस किया करते थे, वह इलाहाबाद ही था। ठेठ इलाहाबादी। यानी पुराने शहर के रंग में रंगी-तपी तबीयत की शख्सियत। रानी मंडी में रहते हुए उन्होंने जो रिश्ते कमाए थे, उनकी दमक आज भी है। जिस गली में वे रहते थे और उनका प्रेस था, वहां उनके निधन की खबर पर उन्हें याद करते लोगों से मिल कर देखिए, पता लग जाएगा कि आखिर वे इलाहाबाद को अपने पसंदीदा शहरों में सबसे ऊपर क्यों रखा करते थे।
हालैण्ड हाल छात्रावास में उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों के पास इतना कुछ था कि यह तय करने में किसी को देर न लगे आखिर वह था इन्हीं में से कोई एक या फिर सब में वह। साठोत्तरी पीढ़ी के कहानीकारों में प्रसिद्ध चार यारों की चौकड़ी में से एक कथाकार दूधनाथ सिंह जब अपने दोस्त को याद करने खड़े हुए तो दोस्त की वे चुहलबाजियां याद आईं जो उसकी जिंदादिली का सुबूत थीं। वे याद करते गए और दोस्ती के कई दृश्य सबके सामने उभरते रहे। कई ने तो इस यादगार वक्तव्य को रिकार्ड किया तो कई इसे अपलक सुनते रहे। जो कोई भी उन पर बोलने खड़ा हुआ उसे उनके सानिध्य में बिताए आत्मीय क्षण ही याद आते रहे।
मुम्बई से फिल्म लेखक आनंद कक्कड़ कह रहे थे कि दिल्ली में रहते हुए भी वे इलाहाबाद को नहीं बिसराते थे। इलाहाबादी लेखकों, भले ही वह इलाहाबाद छोडक़र कहीं और रह रहे हों, की रचनाएं सामने आते ही नरम पड़ जाते थे और उसे एक सर्रे में पूरा पढ़ जाते थे। रचना अगर छापने के लिए भेजते तो उसे तत्काल फोन पर बात कर बता देते। पता चला कि वे जब गंगाराम हस्पताल में जीवन और मृत्य से संघर्ष कर रहे थे, तब उनके पीछ के पीढ़ी के तमाम रचनाकार वहां पहुंच गए थे। कोई रो रहा था तो कोई उनके स्वास्थ्य के संदर्भ में डाक्चरों से राय-मश्विरा कर रहा था। ये वही थे, जिन्हें उन्होंने न केवल बनाया, बल्कि लगातार मांजने और पहले से अधिक बेहत बनाने में लगे रहे।
फोन पर कवि यश मालवीय से बात हुई तो खूब रोए हम दोनों। कितनी बार हम निराश हुए, और हर बार किसी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा- आगे बढ़ो। रुको मत। बस हम उठ खड़े होते रहे। उनकी यही आदत सबको उनसे जोड़ती रही। परेशानियों में भी हंसने का बहाना खोज लिया करते थे। बहुत देर तक गंभीर होकर वे बैठ ही नहीं सकते। उनके वक्तव्यों में जरूर ऐसा कुछ न कुछ हुआ करता था जो रोचक और रोमांच भर देने वाला होता था। बीमारी को सेलिब्रेट करने का फण्डा मैंने उन्हीं से सीखा। वे हर दर्द की ब्राण्डिंग कुछ इस तरह करते कि सामने वाले को अहसास हो जाता कि वे खुद को राहत देने की कोशिश कर रहे हैं।  लेकिन, थोड़ी ही देर में सामने वाला जीवन जीने की इस कला का कायल हो जाता और भूल जाता कि वह किसी बीमार का हाल-चाल लेने आया था।
ऐसे ही अनगिनत क्षण और बातें हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे हैं कि अभी-अभी जो हम सब के बीच से चला गया है, वह दरअसल अपने शब्दों और बीते पलों की स्मृतियों में हमेशा मौजूद रहेगा। . ..इलाहाबाद शायद ही कभी उन्हें भुला पाएगा। विनम्र श्रद्धांजलि...कथाकार, उपन्यासकार, सम्पादक, दोस्तों के दोस्त ौर इन सबसे बढक़र एक लाजवाब इंसान... रवीन्द्र कालिया।


तो क्या खंडहर ...
तो क्या इलाहाबाद का साहित्यिक ताना-बाना खंडहर में बदलता जा रहा है? उत्तर आपके पास कुछ भी हो, लेकिन कथाकार दूधनाथ सिंह अपने दोस्त कालिया को याद करते हुए इस बात को इशारों ही इशारों में कहकर चिंता तो जता ही गए। यह सही है कि इलाहाबाद उन बड़े रचनाकारों से खाली होता जा रहा है, जिन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब और अपने से पीछे की पीढ़ी को तैयार करते रहने की रवायत को बखूबी निभाया। वैसे इसी तरह की बात उर्दू के आलोचक अली अहमद फातमी ने भी की। यह सही भी है और पीछे-पीछ चलकर आगे बढ़ रही पीढिय़ों के लिए चुनौती भी। हां, अच्छा लगा कि कवि संतोष चतुर्वेदी ने यह आश्वासन देने में देर नहीं की कि हम बुजुर्गों से मिली रवायत को निभाते रहेंगे।



और अब इस बार की कविता
इस बार प्रस्तुत है कवि अशोक बाजपेयी की ये पंक्तियां
हम चुप हैैं:
हमारे शब्दों का सम्बन्ध टूट गया है।
हम दूर जाते आदमी को
उसके थैले में ठुंसे दुख को,
उसके माथे की शिकनों को
महसूस नहीं कर पाते।
हम मुहल्ले में हो रहे शोर को,
मारो-काटो-पीटो की चीखों को,
औरतों-बच्चों के रोने को
ठीक से सुन नहीं पाते।
हम चुप हैं,
हमारे शब्दों ने हमें छोड़ दिया है।
सी. धनंजय




रविवार, जनवरी 10

प्रयोगधर्मी सम्पादक थे रवीन्द्र कालिया


‘हम सब रवि को यूं ही जाने नहीं देंगे। भरोसा रखो वे वापस लौटेंगे।’ तीन दिनों पहले ममता जी ने जब ये कहा था तो अनायास ही लगने लगा था कि शायद कुछ आश्चर्यजनक घटे और कालिया जी एक बार फिर हम सब के बीच हों। पर नहीं, ऐसा नहीं हो सका। हम सब के बीच से एक ऐसा व्यक्तित्व विदा ले गया है, जिसने रचनाकारों और पत्रकारों की कई-कई पीढिय़ों को बनाने और मांजने-संवारने का काम  किया। जालंधरी मस्ती, बम्बईया अंदाज और इलाहाबादी ठसक लिए हुए कालिया जी साथ हों तो जीने के मायने कुछ अलग ही हो जाया करते थे। वे सिखाते, हंसाते और फिर बेहतर करने का उत्साह बड़ी ही सहजता से दे देते।
मुझे उनके साथ तब के चर्चित साप्ताहिक गंगा-जमुना में सीखने और कुछ बेहतर कर गुजरने का मौका मिला। वे शीर्षकों को लगाते समय और खबरों को जीवंतता देते समय बड़ी ही सतर्कता बरतते और साहितियक चुहल से उनमें रोमांच और रोचकता भर देते। कई बार तो गंगा जमुना में छपने वाले आलेख या खबर अपने शीर्षकों से ही चर्चा में आ जाते थे। मैंने उनसा प्रयोगधर्मी सम्पादक नहीं देखा। उन्होंने देश की वागर्थ और नया ज्ञानोदय पत्रिका का सम्पादन करते हुए साहित्यिक पत्रकारिता को एक नए ढंग के तेवर से लैस कर दिया। ज्ञानोदय में तो उन्होंने लेखकों का परिचय देने में जो प्रयोग किया वह अद्भुद था। वे किसी मुद्दे पर अपनी राय बनाते थे और फिर वे उसपर अडिग रहते थे। हम लोगों के साथ किसी विषय पर चर्चा होती तो हमेशा अभिभावक की मुद्रा में आ जाते और पहले सबको सुन लेते तब अपनी बात रखते।
मुझे याद है, जब इलाहाबाद की रानी मंडी में स्थित अपने निवास को वे छोड़ रहे थे और किताबों को ढेर अलमारियों से बाहर आया हुआ था। उनकी इलाहाबाद प्रेस में छपी कई किताबें भी उस ढेर में थीं। रचनाओं की इतनी अकूत सम्पदा मेरे सामने थी। मैं उस बड़ी ही कातर दृष्टि से निहार रहा था। वे तपाक से बोले- कुछ किताबें लेनी हो तो उठा सकते हो। बस फिर क्या था मैंने तड़ातड़ कई किताबें छांट लीं। उन्होंने उन किताबों को देखा और कहा कि-  तुम पास हो गए। अगर फेल हुए होते तो मैं किताबें वापस धरवा लेता। मैंने पूछा कि पास होने से आपका क्या मतलब है? तो वे बड़ी ही सहजता से बोले- किताबों का चयन। नई पीढ़ी में पढऩे-लिखने की आदत पड़े, इसे लेकर वे हमेशा कुछ न कुछ सुझाते रहते थे। मैंने उन्हें जब भी विश्वविद्यालय में अपने विभाग सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज में बुलाया वे समय निकालकर दिल्ली से आए और कुछ नया बता कर-सिखाकर गए।
मुझे व्यंग्य लिखने की आदत उन्हीं ने डलवाई। गंगा जमुना में ‘बैठे ठाले’ कॉलम में मेरे लिखे व्यंग्य छपा करते थे। पिछले वर्ष जब उनका संग्रह आया तो वे दिल्ली से इलाहाबाद उसका विमोचन करने आए। यह मरे लएि बड़ी बात था, लेकिन उन्होंने कहा कि तुम मेरे दोस्त हो और दोस्त की बात भला कोई टाल सकता है। मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा था, लेकिन वे हमेशा अपने छोटों के बीच उन सा ही हो जाया करते थे। यही वजह थी कि युवाओं की फौज को वे संवारने का काम बड़ी ही सहजता से कर सके। वे कई पीढिय़ों तक भुलाए नहीं जा सकेंगे। उनके शब्द हमेशा साथ निभाते रहें।