रविवार, दिसंबर 6

फेसबुकिया साहित्यिक क्रान्ति की कोशिश

सोशल मीडिया के धुरंधर मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी, अन्ना और अरविन्द केजरीवाल इतनी प्रसिद्धि न पाए होते अगर फेसबुक न होता। इन सब को बनाने में सोशल मीडिया का अद्भुद योगदान है। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि अन्ना के आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका से रू-ब-रू होने के बाद से ही लोगों को यह आभास हो गया था कि विकल्प के रूप में हाथ लगा यह मीडिया टूल बड़े काम का है। कई लोगों ने इसे इस्तेमाल करके बुलंदी पर पहुंचने का ख्वाब भी पाला और लगे रहे, लेकिन बाजी मारी पहले नरेन्द्र मोदी ने और फिर अरविन्द केजरीवाल ने। हाल में हम कह सकते हैं कि इसी तरह की बाजी नितीश कुमार के हाथ भी लग गई। लोगों तक पहुंचने का इससे बेहतर रास्ता अब और कोई नजर ही नहीं आता है, ऐसा कहने वालों की जमात धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। यही वजह है कि राजनीति के पाले में धूम मचाने के बाद अब यह करामाती मीडिया साहित्यिकों को लुभा रहा है। आने वाले दिनों में कोई बड़ी साहित्यिक क्रांति अगर सोशल मीडिया के रास्त हम-आप तक पहुंचे तो कोई आश्चर्य मत कीजिएगा। 
इधर कई वर्षों से कई साहित्यकार और साहित्य सुधी फेसबुक पर सक्रिय हैं। कई ने बकायदा अपने पेज बना रखें हैं। कई का तो नियमित का शगल है कि वे कुछ न कुछ फेसबुक पर लिखते रहते हैं। अरे जब अपनी बातों को बेधडक़ चस्पा करने के लिए दनिया भर में दिखने और पढ़ी जा सकने वाली बड़ी दीवाल मिली हो तो किसका मन नहीं करेगा कि वह उस पर अपना नाम और अपनी रचना चस्पा कर ही दे। होड़ मची हुई है कि कौन क्या नया लिख दे। कोई कविताएं लिख रहा है तो कई शायरी के पृष्ठ दर पृष्ठ तैयार करे दे रहा है। किसी ने फेसबुक को अपनी लघु कथाओं को लोगों तक पहुंचाने का रास्ता बना लिया है तो कोई तमाम मुद्दों पर विचारों का जखीरा प्रस्तुत कर देने में जुटा हुआ है। यह अनायास नहीं है कि फेसबुक पर लिखे जा रहे साहित्य पर देश के बड़े प्रकाशकों की निगाह पड़ चुकी है और वे इन्हें प्रकाशित करने की पहल कर रहे हैं। हाल ही में रवीश कुमार के फेसबुक पर लिखी गईं लघु प्रेम कथाओं यानी लप्रेक को देश के एक बड़े प्रकाशक ने किताब रूप में प्रकाशित करके यह तो तय ही कर दिया कि सोशल मीडिया को नजरअंदाज कर देना समय की बड़ी भूल होगी। यहां मैं यह साफ कर दूं कि फेसबुकिया साहित्य में से अधिकांश बकवास और कूड़ा भी है। उसे इतर रखकर ही बात कर रहा हूं और ऐसा किया ही जाना चाहिए, यह मेरा मानना है।
बहरहाल मुद्दा यह है कि इन दिनों फेसबुकिया साहित्यिक क्रांति लाने की कोशिश हो रही है। वैसे तो छोटी-मोटी क्रांति लाने की कोशिश तो रुक-रुककर होती ही रहती है, लेकिन हाल के दिनों में कई साहित्यिकों ने संगठित रूप में यह प्रयास शुरू कर दिया है और एक बड़ी क्रांति करने की कवायद में जुटे नजर आ रहे हैं। वैसे आइडिया बुरा नहीं है, लेकिन इसके खतरे भी हैं और उनसे सावधान रहने और फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। विचारों में अतिरंजता साहित्य और नए जमाने के पढ़ाकुओं को साहित्य से दूर भी कर सकती है। हम चीजों को थोपने की बजाय सहभागी संचार के माध्यम से आगे बढ़ाएंगे तो सफलता हाथ लगने में कसर नहीं रहेगी। लेकिन दुखद यही है कि अभी तक की कोशिश में अतिरंजता और कट्टरख्याली अधिक है। साहित्य के जितने भी वाद और युग रहे हैं, उनमें शामिल रचनाकारों ने सहजता व समरसता के साथ दूसरे के विचारों को स्पेस देने की रवायत को नहीं छोड़ा। यही वजह रही कि वे अपने साहित्यिक आंदोलन में अधिक से अधिक लोगों को जोड़ पाने में सफल रहे। इसी बात को ध्यान में रखकर आगे बढऩे की कोशिश होनी चाहिए। बाकी सब.....।  
 

सोमवार, अक्तूबर 19

ओह, हम उतने वफादार क्यों नहीं निकले

इस बात से हम कतई इंकार नहीं कर सकते कि हम अपने समाज और संस्कृति के प्रति उतने वफादार नहीं निकले, जितने कि हमारे पुरखे थे। टेक्नोलाजी के बल पर इतराने वाली मीडिया की चकाचौंध में हम यह समझ ही नहीं सके कि हमारी संस्कृति और सामाजिकता को धता बताया जा रहा है। हमारे संस्कारों को हमारे ही घर में हाशिये पर ढकेला जाता रहा और हम चुपचाप पड़े रह गये। किसी ने टोकने की कोशिश भी की तो हमने समय की मांग कहकर उसे टाल दिया। बंटाधार तो यह हुआ कि हमारा ध्यान समाज के उस तबके की ओर गया ही नहीं, जो इन परिवर्तनों को ही सच मान रहा था। यह इस लिए भी कि उसके सामने हमारे समाज और संस्कृति का सच था ही नहीं। और ये थे हमारे घर-परिवार-समाज के बच्चे। वास्तव में हमारे बच्चे उतने बच्चे नहीं रहे कि हम उनमें अपने बचपन की झलक भी पा सकें। इनकी उम्र अपनी असल उम्र से भी कहीं अधिक लगती है। इनकी तरह की मेच्योर बातें और हाव-भाव हमारे पास कभी नहीं रहे।
कभी-कभी लगता है कि ये बच्चे हमसे भी कई वर्ष अधिक बड़े हो गये हैं। कई-कई मायनों में हम इनके आगे बौने नजर आते हैं। ये बात करते हैं तो इनकी आंखों की चमक देखने लायक होती है। बातों और आंखों की चमक एक नये समय के नये विचारों के साम्राज्य के फैलने पसरने के संकेत देते हैं। बड़ी बात यह कि कभी-कभी इनकी आंखों में सपने नहीं बल्कि महत्वकांक्षायें नजर आती हैं। अपनी महत्वकांक्षाओं को साकार करने के तमाम वैध-अवैध गुर इन्हें मालूम हैं। खतरनाक तो यह कि इन्हें अपने परवरिशकर्ताओं की सलाह की कोई जरूरत नहीं है। बेवजह लगने वाली सलाहों को ये बड़ी ही बेरहमी से खारिज कर देते हैं, बिना इसकी परवाह किये कि पुश्त दर पुश्त चलती आ रही इन्हीं सलाहों को मान कर इनके परवरिशकर्ता अपनी जिन्दगी में सफलतायें अर्जित करते आये हैं।
फिलहाल अपने समय की भयावह होती जा रही फैंटेसी में किसी अदृश्य दैत्य की उंगली पकडक़र आगे बढ़ते हमारे समय के बच्चे अब हमारे लिए ही चुनौती बनते जा रहे हैं। चुनौती भी ऐसी कि हम सामना करने से या तो कतराएं या फिर जूझते हुए हारने के लिए तैयार रहें, क्योंकि टेक्नोलॉजी ने हमें यानी हमारी और हमसे पहले की पीढिय़ों को आउटडेटेड घोषित कर दिया है। अगर जीतना है तो हमें भी इन पीढिय़ों के संग-संग कदमताल करके आगे बढऩा होगा। नए जमाने की नई धुन के साथ थिरक नहीं सकते तो क्या हुआ हम झूम तो सकते ही हैं। और इससे बड़ा सच क्या हो सकता है कि यही तो बचा है हमारे हिस्से की लड़ाई में। सच तो यह कि जो कुछ हमारे सामने है, इसके लिए हम सब जिम्मेदार लोग खुद जिम्मेदार हैं। इसलिए चूं-चपड़ करने से बेहतर है कि नई पीढ़ी के संग हो लिया जाए और उनके संग-संग चलते हुए जो कुछ बेहतर किया जा सकता है, उसे बेहतर करना जारी रखा जाए। अबकी चूके तो यह तय है कि ‘ढंूढ़ते रह जाओगे’ की उक्ति हमारे साहित्य और संस्कृति पर फिट बैठेगी।

देर आए तो सही पर क्या दुरुस्त भी आए?

बरसों से साहित्यकारों की चुप्पी देख कर कोफ्त हुआ करती थी। बड़े-बड़े मुद्दे आए और निकल गए, लेकिन साहित्य बिरादरी चूं तक करने से बची रही। इक्का-दुक्का विरोध हुआ और इतिश्री मान लिया जाता रहा। मुझे याद है, जब चौरासी के दंगों में पूरे के पूरे सिक्ख खनादान ही मार दिए गए थे या फिर जला दिए गए थे, तब देश में कहीं भी इस तरह का विरोध नहीं दिखा था। न सम्प्रदायवादियों का और न ही सेक्युलरवादियों का। कितने घरों में भय का माहौल वर्षों तक बना रहा। कई-कई खानदान अपने जम-जमाए ठीहे से पलायन कर गए। अकेले इलाहाबाद से ही कितने परिवार पंजाब चले गए। लगता था कि इनकी आवाज उठाने वाला कोई है ही नहीं। आज जो लोग जागे हैं, उनमें से कई तब भी थे और आज से कहीं अधिक जवान और ऊर्जावान थे तब वे। फिलहाल जब जागो तभी सवेरा। लेकिन, ये जिन्हें बहुत पहले ही जाग जाना चाहिए था, वे अब जाग रहे हैं तो सवाल उठने लाजमी हैं। लोगों को इनके जागने में राजनीति दिख रही है तो गलत नहीं है।
वास्तव में सत्ता और साहित्य का हमेशा से छत्तीस आंकड़ा रहा है। साहित्य की प्रवृत्ति ही रही है कि वह व्यवस्था का विरोध करे और उसे जनता के हित में करने की पुरजोर कोशिश करे। सत्ता हमेशा जनता के पक्ष में होने और दिखने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन सच्चाई में वह हो नहीं पाती। चाहे वह कोई भी राजनीतिक दल हो वह चाह कर भी सभी को खुश नहीं कर सकता। भारतीय राजनीति में यह संभव ही नहीं है। जाति-धर्म-क्षेत्र जैसे मुद्दे हमेशा से आड़े आते रहे हैं। शोषण और पोषण के बीच की खाई को पाटने के लिए जनता ही इस्तेमाल में लाई जाती है। साहित्य इसी के खिलाफ आवाज बुलंद करता रहता है। इतिहास पलटकर देख लीजिए जनता के बीच वही साहित्य लोकप्रिय हुआ है, जिसने सत्ता के खिलाफ खड़े होकर जनता की आवाज बुलंद की हो। अब ऐसे में जनता अपनी जीवन यात्रा के हर मोड़ पर यह आशा लगाती ही है कि उसकी आवाज बुलंद करने का बीड़ा उसके अपने समय का साहित्य उठाए। अफसोस यह कि अपने देश में अस्सी के बाद से ऐसा होता दिखा ही नहीं।
इमरजेंसी के बाद थके-हारे साहित्यकारों ने जनता शासन और फिर कुछ सुधरे से दिखे कांग्रेस शासन के बाद यह मान लिया कि उनके अपने समय की लड़ाई खत्म हो गई और वे चुपचाप पड़े रहने में भलाई समझ बैठे। मुझे ऐसा कोई बड़ा आंदोलन याद नहीं आता, जो पिछली सदी में सन अस्सी के बाद से अब तक के समय में साहित्यकारों द्वारा चलाया गया हो। सब एक दूसरे की पीठ थपथपाने या फिर खुद ही खुद की पीठ थपथपाने में मस्त रहे। ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह के दे’ कहावत को चरितार्थ करते हुए पुरस्कार बांटे जाते रहे। संस्थाओं पर कब्जेदारी को लेकर जोड़-तोड़ की जाती रही। प्रकाशकों के साथ मिलकर सरकारी खरीद का लाभ साझा किया जाता रहा और रोना रोया जाता रहा कि पाठक कम हो रहे हैं। जनता कभी मंदिर-मस्जिद तो कभी मण्डल के नाम पर छली जाती रही और सब के सब चुप मार कर अपनी-अपनी सेंध में दुबककर बैठे रहे।  वादों और प्रतिवादों में बंटकर खुद की बात खुद की बनाई मंडली से की जाती रही और उन बातों को अनसुना किया जाता रहा जो इनके खेमे की नहीं थी। जनता ने साहित्य की ओर देखना ही बंद कर दिया तो नए समय और टेक्नोलॉजी को कोसना शुरू कर दिया गया। कह दिया गया कि जनता होड़ और हड़बड़ी में है। मीडिया को भी कोसा गया कि उसने जनता को साहित्य से दूर कर दिया। 
खैर बड़े दिन बाद सब जगे हैं। पुरस्कार वापस हो रहे हैं। ‘पुरस्कार वापसी’ को लेकर उसी तरह चर्चा हो रही है, जैसे कुछ दिनों पहले तक ‘घर वापसी’ और ‘काला धन वापसी’ पर चर्चाएं हो रही थीं। आरोप-प्रत्यारोप के बीच कई बड़े साहित्यकारों ने ‘पुरस्कार वापसी’ को उचित ठहराने में गुरेज किया है। चाहे प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह हों या फिर लेखक महीप सिंह। लेखिका मृदुला गर्ग हों या फिर गिरिराज किशोर, गोपालदास नीरज सरीखे बड़े रचनाकार। हम सुनें तो सही कि ये क्या कह रहे हैं। कहीं ये सही तो नहीं कह रहे। हम बहुत दिन बाद जगे हैं, तो सोचे-समझें। ऐसा न हो कि हम अपनी उसी शाख को काट डालें, जिस पर हम बैठे हैं।

सोमवार, फ़रवरी 16

कथाकार अमरकांत से धनंजय चोपड़ा की बातचीत


......वे जो  हमेशा अपने समय का सच रचते रहे 

वे अपने समय को बखूबी जीते थे, उसमें रम जाते थे, उसकी मिठास, कड़ुवाहट, उठा-पटक, उहापोह और जीवन संघर्ष का अनुभव लेते थे और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिन्दगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, मौत के नगर, दोपहर का भोजन, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी, इन्हीं हथियारों से जैसी सैकड़ों कालजयी कृतियां रच डालते थे। वे अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए मिलते थे, लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आती थी। वे जोश के साथ मुलाकात करते थे और लोगों को आत्मविश्वास भेंट कर देते थे। वे उम्र के कई अस्सी पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन किसी युवा रचनाकार से अधिक रचनाकर्म करते थे। यह सिर्फ इसलिए कि वे अमरकांत थे। वरिष्ठï कथाकार-पत्रकार अमरकांत!
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वे अमरकांत हैं। आजादी की लड़ाई केदिनों से ही उन्होंने जिस बेबाकपन को अपनाया वह किसी भी दौर में लिखते हुए भी उनकी पहचान बना रहा। नई कहानी के दौर से गुजरते हुए ही अमरकांत ने अद्ïभुत कलात्मक रचनायें देना शुरू कर दिया था। ‘बस्ती’ कहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आयी हताशा से साक्षात्कार कराती है। डिप्टी कलक्टरी अपने समय के एक बड़े सच को उजागर करती है तो गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां ढोंग और अवसरवादिता-काईंयापन पर चोट करती मिलती हैं।

अमरकांत अपनी रचनाओं में  इस बात से बखूबी परिचित मिलते हैं कि इस नंगे-भूखे देश में सबकुछ आशा और निराशा केबीच पेण्डुलम की तरह झूलता ही रहेगा। वे ‘व्यंग्य’ को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे और उसकी मार को दवा की तरह। भले ही अमरकांत सामाजिक-राजनीतिक उठापटक से अपने को तटस्थ रखते हों, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और हर एक विद्रूपता के खिलाफ चीखती, ‘इन्हीं हथियारों से’ वार करती और सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद जगाती मिलती हैं। अनगिनत कालजयी कृतियों देने वाले अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार सहित देश के कई बड़े सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। साहित्यकारों के पुरस्कार दिये जाने पर वे टिप्पणी करते हुए सहज भाव से कहते हैं कि ‘कोई लेखक पुरस्कार पाने के लिए थोड़े ही लिखता है। यह भी जान लीजिये कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते। प्रेमचन्द, रेणु, निराला बिना किसी पुरस्कार के ही अमर हैं। हां, यह अवश्य है कि पुरस्कार या सम्मान पाने वाले लेखक की अपने समाज और पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है।’
कथाकार अमरकांत से यह बातचीत उस लम्बी बातचीत का एक हिस्सा है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज की मीडिया रिसर्च सेल में धरोहर के रूप में सहेजने के लिए किया गया था।  हमें पता था कि अमरकांत जी से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है तो थमने का नाम ही नहीं लेता। उनके पास आजादी के संघर्ष का आंखों देखा और भोगा इतिहास है तो हिन्दी पत्रकारिता के मंजावट वाले दिनों का अनुभव भी है। वे साहित्य की रचना ही नहीं करते रहे हैं, बल्कि रचनाकारों की कई-कई पीढिय़ां तैयार करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया है। यही वजह थे कि हम वीडयिो कैमरा लगाकर बैठ गए और वे बोलते रहे .... अपने समय का इतिहास और  तैयार होते रहे आने वाली कई पीढिय़ों के लिए कई -कई अध्याय। प्रस्तुत हैं उनसे हुई इसी लम्बी बातचीत के कुछ अंश:

पहली कहानी कब लिखी?
प्रश्न सुनते ही मुस्कराते हैं अमरकांत जी। कुछ याद करते हुए कहते हैं- पढ़ाई के दिनों में शरतचन्द को पढक़र कुछ रोमांटिक कहानियां लिखी थीं, लेकिन वे सब कहीं छपी नहीं। वह समय 1940 के आस-पास का रहा होगा। छपने वाली पहली कहानी ‘बाबू’ थी, जो आगरा से निकलने वाले समाचार पत्र ‘सैनिक’ के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। शायद 1949-50 में (कुछ याद करते हुए)। दुखद यह रहा कि इस कहानी की न तो मेरे पास स्क्रिप्ट ही बची और न ही इसका प्रकाशित रूप। गुम गई ये कहानी। यही वजह है कि मैं हमेशा अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ को कहता हूं, जो पहले प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में मैंने पढ़ी और बाद में 1953 में ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई। इसी कहानी के बाद मैं सम्मानित लेखकों की श्रेणी में शामिल हो गया। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, जो आज तक जारी है। 
 
आज के कथा लेखकों और उनकी रचनाओं को आप किस रूप में पाते हैं? 
नए लेखकों के सामने उनका समय और उसकी सगााइयां हैं। इन दिनों नई परिवर्तित परिस्थितियां हैं, जो हमारे शुरुआती दिनों से एकदम भिन्न हैं। ऐसा नहीं है कि नए लेखक जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। नई-नई समस्याओं पर लगातार लिखा जा रहा है। कई लेखक तो अपने समय से जूझ कर बेहतर कृतियां देने में सफल भी हो रहे हैं। हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बहुत से नए लेखक हड़बड़ी में हैं। मेरा मानना है कि मेहनत के बिना अ'छी रचना नहीं लिखी जा सकती है। शैली और भाषा में नए प्रयोग की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन ऐसा कम ही लेखक कर रहे हैं। एक बात और, अब हमारे समय जैसा सहज और सरल समय नहीं रहा और यही वजह है कि नई पर्स्थितियों में रचनाकर्म कठिन होता जा रहा है।

और आलोचकों की परफार्मेंस पर आपकी क्या राय है?
साहित्य में आलोचना के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आलोचना का मतलब सिर्फ आलोचना करना ही नहीं होता, जैसा कि प्राय: देखने-पढऩे को मिलता है। पहले के टीकाकार जो काम करते थे, वही आलोचकों करना चाहिये। अब देखिये, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन की मूल प्रति है ही नहीं। उसकी टीका लिखी गयी। वही मिलती है। उसी से इस दर्शन को समझा जाता है। आलोचकों को चाहिये कि वे बेहतर कृतियों को खोजकर उनकी व्याख्या करें, टीका लिखें। मैं यह बात टुटपुंजिए आलोचकों के लिए नहीं कह रहा हूं। गम्भीर रूप से आलोचना कर्म में जुटे लोगों को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। कुछ युवा आलोचकों ने उम्मीद जगा रखी है।  

निष्क्रिय पड़ते जा रहे लेखकीय संगठनों को आप क्या सलाह देंगे?
मैं यह नहीं कहूंगा कि वे निष्क्रिय हो गये हैं। वे सब अपनी नई मान्यताओं के अनुरूप काम कर रहे हैं। देखिए, हमारे समय में ये संगठन बहुत अधिक सक्रिय हुआ करते थे। मैं प्रगतिशील विचारधारा का नहीं था, लेकिन ये प्रगतिशीलियों की सक्रियता ही थी कि वे मुझे अपनी ओर ले गये। मैंने अपनी पहली कहानी आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ही सुनाई। आगरा के बाद जब इलाहाबाद आया तो यहां भी इस संगठन के लोगों ने मुझे अपने से जोड़ लिया। यहां उन दिनों परिमल संगठन भी बहुत सक्रिय था। दोनों ही संगठनों के बीच लेखन में आगे निकल जाने की होड़ मची रहती थी। स्वस्थ्य विमर्श होते थे। मेरा मानना है कि मतभेद होना गलत नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। इसी से नये रास्त निकलते हैं। संगठनों में होने वाले विमर्श नई पीढ़ी को तैयार हेने का मंच और अवसर उपलब्ध कराते हैं। संगठनों को चाहिये कि मतैक्य न होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों को आगे बढ़ाने के लिए काम करें।

आपने लगभग चालीस वर्ष पत्रकारिता की है। तब और अब की पत्रकारिता में क्या फर्क महसूस करते हैं? 
बहुत फर्क आया है। वेतन के मामले में कई अखबारों व पत्रिकाओं ने सार्थक पहल की है। हमारा समय वेतन के मामले में इतना बेहतर नहीं था। हमने आपातकाल भोगा है और उन दिनों पत्रकारों के समक्ष आने वाले संकट को भी। फिलहाल अब  पत्रिकाओं और अखबारों की प्रस्तुतियों और कंटेंट के वैविध्य में तो ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं,जिनकी कल्पना भर हम अपने समय में करते थे। पत्रकारों के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। ठीक उसी तरह की चुनौतियां हैं, जैसी लेखकों के सामने हैं। (अमरकांत जी टीवी पत्रकारिता पर कुछ नहीं कहते, शायद कहना नहीं चाहते।)  

आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने वाले अमरकांत से आज के हालात पर टिप्पणी मांगी जाये तो क्या होगी?
इस प्रश्न पर कुछ देर संयत रहने के बाद अमरकांत जी हंसते हुए कहते हैं-अब भ्रष्टाचार और घोटालों वाले इन हालातों पर क्या टिप्पणी की जाये। हाल के आंदोलन अपने समय को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। बदली परिस्थितियों में राजनीति और उसके मानक बदल गये हैं। लोगों की आकांक्षायें बढ़ी हैं और जागरूकता भी। हमारे देश की व्यवस्था जनतंत्र को संतुष्ट कर पाने में विफल सी हो रही है। गांव के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गयी है तो शहरी लोगों में राजनीति के प्रति ऊबाहट बढ़ी है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की गारंटी की लड़ाई जरूरी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि देश में एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है। एक बात और जिस देश में प्रगतिशील जनतंत्र नहीं होता वह कमजोप पड़ता जाता है।

एक लेखक के रूप में आप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं?
हां, यह सवाल बहुत जरूरी है। मैं जब सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लेने रूस गया था तो मुझे वहां टालस्टाय और चेखव के घर देखने का मौका मिला। वहां की सरकार ने दोनों ही लेखकों के घर, उनकी चीजों, उनकी किताबों और उन पर लिखी गयी किताबों को धरोहर के रूप में सम्भालने की जिम्मेदारी उठी रखी है। हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है कि महादेवी, पंत और निराला के घरों और उनकी चीजों का क्या हश्र हुआ है। सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी है। अरे भाई, किसी लेखक को पुरस्कार या सम्मान दे देने भर से कुछ नहीं होता। पुरस्कार या सम्मान तो लेखन के लिए होता है। सरकार को चाहिये कि बेघर लेखक को घर देने, प्रकाशकों से समय पर उचित रायल्टी दिलाने और उन्हें आर्थिक तंगी से उबारने  की दिशा में भी कदम उठाने की पहल करे और ठोस नीतियां बनाये। सुना है कि बंगाल में ऐसी कोई नीति बनी है, लेकिन पता नहीं यह कितना सच है। हिन्दी लेखकों के लिए तो इस तरह की अब तक कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को नए लेखकों और शोधार्थियों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। पढऩे और लिखने की प्रवृत्तियों को जितना प्रत्साहन मिलेगा उतना ही बेहतर समाज और देश हम बना पायेंगे।

आजकल आप क्या लिख रहे हैं? 
नियमित लेखन नहीं हो पा रहा है। ‘एक थी गौरा’ उपन्यास को पुरा करने में जुटा हूं। एक वर्ष में पूरा कर लेने की योजना है। पत्रकारिता पर भी एक उपन्यास लिखने की योजना बनी है। ‘खबरों का सूरज’ नाम के इस उपन्यास में मैं ‘सैनिक’, ‘उजाला’, ‘भारत’ व ‘अमृत पत्रिका’ आदि दैनिक व साप्ताहिक पत्रों व मित्र प्रकाशन की ‘मनोरमा’ पत्रिका में काम करते हुए मिले अनुभवों को पाठकों के साथ बाटूंगा। यह उपन्यास पत्रकारों के संघर्ष और संघर्ष के दौरान यूनियन के नेताओं से मिले धोखे पर आधारित होगा।

एक लम्बी बातचीत के बाद भी उनका चेहरा एक स्फूर्तिभरी दमक लिए हुए दिख रहा था। वे बात करते वक्त यह अहसास ही नहीं होने देते हैं कि हम एक बड़े लेखक के साथ हैं, जिसे देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और अनगिनत शोधकर्मी जिनपर शोध कर रहे हैं। वे जिस अंदाज में बात करते हैं, वह अपने आप में एक अलग शैली का निर्माण करता है। जीवन की विषमताओं पर लिखते समय या फिर जीवन संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते समय, हर बार यही लगता है कि वे अपने यूवा दिनों का स्वतंत्रता आंदोलनकारी रूप को अभी तक भूल नहीं पाये हैं। दूसरों के दुखों, कष्टों, संघर्षों, दुविधाओं को नितांत निजी मानकर रचना कर देने वाले अमरकांत चलते-चलते अपने समय के सच से मुठभेड़ करने की सीख देना नहीं भूलते।

...और अब ‘मोबाइल’ पर निबंध व साहित्य का जमाना


आज से पैंतीस साल पहले जब मैं दसवीं क्लास का छात्र था तो मुझे ‘मेरा प्रिय अखबार’ पर निबन्ध लिखने को दिया गया था और मुझे याद है कि मैंने अपने अखबार की ढेर सारी खूबियां गिना डालीं थीं। मसलन मेरा अखबार देश-दुनिया की खबरें देता है, नॉलेज बढ़ाता है, नई-नई इनफॉर्मेशन देता है, नई फिल्मों के बारे में बताता है, साहित्य पढ़ाता है, घूमने की जगहों से परिचित कराता है,  बेरोजगारों को नौकरी पाने की राह बताता है, कुंवारों की जोड़ी बनाने में हेल्प करता है आदि-आदि। तीस साल बाद मेरे बेटे के स्कूल में ‘माय डियर मोबाइल’ पर निबंध लिखने को मिला है और मेरे लिए यह आश्चर्य से कम नहीं कि वह मोबाइल की लगभग वैसी ही खूबियां गिना रहा है, जैसी मैंने अपने अखबार की गिनायीं थीं। बड़ी बात यह कि न मैं तब गलत था और न वह अब।
मेरे बेटे ने कुछ इस तरह मोबाइल की खूबियां गिनायीं। ‘माय डियर मोबाइल’ देश-दुनिया की खबरें देता है, नई-नई इनफॉर्मेशन देता है और पलक झपकते उन्हें अपडेट कर देता है, नई फिल्मों के बारे में ही नहीं बताता, बल्कि उन्हें दिखाता भी है, पापा को शेयर बाजार से जोड़े रखता है, क्रिकेट के स्कोर से अपडेट करता है, बेरोजगारों को नौकरी पाने की राह ही नहीं बताता, उन्हें नौकरी दिलाता भी है, कुंवारों की जोड़ी बनाने में हेल्प भी करता है। रेल और प्लेन के सम्बन्ध में इनफॉर्मेशन देता है। हमारा भविष्य बांचता है और हमें बेहतर लाइफ स्टाइल के टिप्स देता है। बड़ी बात यह कि माय डियर मोबाइल रेडियो, टेलीविजन के साथ-साथ अखबार की तरह भी हमारे साथ रहता है। उससे भी बड़ी बात यह कि इसने हमारे रिश्तदारों और दोस्तों के बीच होने वाली चिट्ठी-पत्री की जगह ले ली है। माय डियर मोबाइल कैमरे की तरह काम करता है और हमसेे सिटीजन जर्नलिस्ट की तरह काम भी करा लेता है। माय डियर मोबाइल मुझे इंटरनेट से भी जोड़ देता है। आदि-आदि।
‘माय डियर मोबाइल’ में मुझे यह भी पढऩे को मिला कि मंहगी और मंहगी होती दुनिया में एक पैसे की बात कहीं हो रही है तो वह मोबाइल की ही दुनिया है। मजेदार बात यह कि जब हम एक पैसे के मायने और अहमियत भूल चुके थे तब मोबाइल ने हमें उससे जोड़ दिया है। एक पैसे में एक सेकण्ड बात का फण्डा कारगर हुआ है और एक नये पैसे की याद ताजा हो उठी है। काश! वह एक नये पैसे का सिक्का अपने पास होता और मैं ‘माय डियर मोबाइल’ निबंध में इस फण्डे का जिक्र कर रहे अपने बेटे को वह दिखा पाता। फिलहाल मोबाइल ने अनायास ही मेरे बेटे और उसकी पीढ़ी के साथ-साथ आगे-पीछे की कई पीढिय़ों को एक-एक पैसे की अहमियत जता दी है। रूपयों के हिसाब के प्रति गैर-जिम्मेदार ये पीढिय़ां कम से कम एक-एक पैसे के प्रति जिम्मदार होती नजर तो आने लगी हैं।
चलते-चलते एक खबर यह भी कि अखबारों की तरह ही मोबाइल पर भी साहित्य की धमक सुनाई देने लगी है। मेरे एक मित्र आजकल अपनी कविताएं मोबाइल पर लिख रहे हैं और उन्हें लगातार अपने मित्र मंडली को मैसेज के जरिए भेज भी दे रहे हैं। पिछले दिनों एक महाशय ने पूरी महाभारत की कहानी ट्विटर के जरिए कह डाली। एक सज्जन मोबाइल पर उपन्यास लिख रहे हैं तो एक ने लघु कथाएं लिखना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि आने वाले दिनों में मोबाइल साहित्य विमर्श के जानकार और आलोचकों की जरूरत पड़ सकती है। तैयार रहिए।

रविवार, फ़रवरी 15

...तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को


आज पन्द्रह फरवरी को लक्ष्मीकांत वर्मा का  जन्मदिन है। यूं तो उन्हें रंगकर्म की कई संस्थाएं याद करती रहती हैं, लेकिन किसी साहित्यिक संस्था या संगठन द्वारा उनकी याद में कोई कार्यक्रम न करना खलता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक पीढ़ी ऐसी है इस शहर में जो उन्हें बहुत ही शिद्दत के साथ याद रखती है। अभी इस शहर में उनके साथ साहित्यिक संगोष्ठियों में मौजूद रहने वाले भी कई हैं जो उनकी यादों को बहुत करीने से सहेजे होंगे। कारण केवल इतना कि उनके जैसा सहज और सरल व्यक्तित्व साहित्य में जल्दी नहीं मिलता।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैं साहित्यिक खबरें खोजता इस शहर में फिरा करता था, उन दिनों लक्ष्मीकांत हम जैसे कई पत्रकारों के सबसे बड़े पैरोकार हुआ करते थे। वे न केवल साहित्य की राजनीति की दीक्षा दिया करते थे, बल्कि अपने उदाहरणों से हमें अपने समय से जूझने का सलीका  भी सिखाया करते थे।  वास्तव में तमाम उठापटकों और सामाजिक-साहित्यिक बवंडरों के बीच के बीच अपनी ठसक बनाकर लगातार सक्रिय रहना, केवल और केवल लक्ष्मीकांत के ही वश में था। वे एक साथ कई-कई पीढिय़ों में सक्रिय और लोकप्रिय थे। मुझे याद है कि वे शहर में होने वाले सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में पहुंचने की कोशिश करते और हर नए रचनाकार का हौसला बढ़ाने में लगे रहते।
पेश से पत्रकार रह चुके लक्ष्मीकांत वर्मा सामाजित घटनाओं के प्रति जितनी सजगता रखते थे, उतनी ही राजनीतिक सतर्कता भी उनमें दिखती थी। लेकिन, मजाल है कि लाभ के लिए वे अपनी साख और मान्यताओं से किसी तरह का समझौता कर लें। वे जिस शिद्दत के साथ पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों के प्रति चिंतित रहते थे, मैंने अन्य किसी साहित्यकार को चिंतित होते नहीं देखा। वे केवल चिंता जता कर इतिश्री कर लेने वालों में से नहीं थे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रदेश सरकार को पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों की बेहतरी के लिए नीतियां बनाने और उन्हें अमल में लाने के लिए बकायदा एक मसौदा तैयार करके दिया था। यदि उस मसौदे पर अमल हुआ होता तो तस्वीर का रुख और ही होता।
लक्ष्मीकांत वर्मा ने अपने पीछे की पीढिय़ों को अपनी बात बेबाकी से रखना तो सिखाया ही, साथ ही उस पर इमानदारी के साथ डटे रहना भी सिखाया। मुझे यह बात कई बार दुहराने में कोई गुरेज नहीं है कि हमारे समय की कई पीढिय़ों की बनावट और मंजावट में लक्ष्मीकांत वर्मा का बहुत बड़ा योगदान था। अपने समय को समझना और फिर उस अपने समाज के बने-बनाए खांचे में इस तरह फिट कर देना कि हर किसी को वही सच लगने लगे, यह उन्हें बखूबी आता था। उनके कविता संग्रह ‘रू-ब-रू लक्ष्मीकांत’ में इस बात को सच होते देखा जा सकता है। तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को। उनकी स्म़तियों को सहेजते हुए उन्हें उनके जन्मदिन पर नमन।

रविवार, फ़रवरी 1

...आखिर कैसे बचे जल जमीन और जीवन




बदलते समय और बदलती दुनिया ने हमें जिस मोड़ पर लाकर खड़ा किया है, वहां से जल, जमीन और जीवन को बचाने का रास्ता कठिन सा दिखने लगा है। यह अनायास नहीं है कि केन्द्र सरकार के जल संसधन मंत्री को बीते वर्ष जल सप्ताहको प्रारम्भ करते वक्त यह कहना पड़ा था कि भारत पहले से ही जल की कमी के दबाव को झेल रहा है और आने वाला समय हमें जल दुर्लभता वाले देश में तब्दील कर देगा।समस्या नई नहीं है। सन 2002 में ही सुप्रीम कोर्ट ने देश में सूखा और बाढ़ सरीखी जल जनित प्राकृतिक आपदाओं और सरकारी नीतियों के बीच बिगड़ते  रिश्तों का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार को निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही देश की प्रमुख नदियों को जोडऩे के लिए आवश्यक कदम उठाए जायें। लेकिन, तमाम कवायदों के बाद भी हम रहे वही ढाक के तीन पात ही।

सच तो यह है कि किसी लोकतांत्रिक देश में यदि नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों के लिए कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़े तो इसके मायने तो यही हैं कि पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। आज पानी से जुड़े सरकारी और गैर सरकारी आंकड़े भी कठिन समय की गवाही दे रहे हैं। विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे हैं कि आने वाले समय में बढ़ती जनसंख्या और पानी की खपत के बीच रिश्ते और खराब होते जाएंगे। दूसरी तरफ बाजार की पानी को लेकर बढ़ती संवेदनशीलतादिनोंदिन बढ़ती जा रही है और पानी को लेकर होने वाली निपनिया राजनीति पानी पर कब्जा करने और उसे सोख जाने के लिए आतुर है।
ऐसे में यह प्रश्न चिंता तो देता ही है कि किस तरह हम अपने जल, जमीन और जीवन को बचा ले पाएं। न केवल बचा लें, बल्कि उसे भविष्य की पीढिय़ों के लिए सुरक्षित सहेज भी लें। अब यह जरूरी लगने लगा है कि जल्दी ही सरहदों के आर-पार पानी-सहयोग-संधिपर बात होनी चाहिए और उसे मूर्त रूप देने में देर नहीं करनी चाहिए। भले ही ये सरहदें अपने प्रदेशों के बीच की हों या फिर पड़ोसी देशों के बीच हों। वास्तव में हमारा यह समय वाटर फ्रेंडशिपको बढ़ावा देने और उसे लगातार मजबूत करने का है। दूसरी कवायद जन जागरूकता लाकर ऐसे सामाजिक दबाव समूहबनाने की है, जो नित नए पैदा हो रहे जल अधिपतियोंके खिलाफ नागरिक नाकेबंदीकरके उनकी दबंगई को खारिज कर दें। सही मायनों में तभी हम जल, जमीन और जीवन को बाजार के कब्जे में जाने से भी रोक पाएंगे।
कुछ अहम प्रयास सरकार की ओर से किये जाने भी जरूरी हैं। वास्तव में पानी के स्रोतों के सूखने, नष्ट होने या फिर नए स्रोतों की खोज और निर्माण न होने का कारण सरकारों की ओर से बरती जा रही लापरवाही का ही नतीजा हैं। सरकार के पास जल नीति तो है, लेकिन पानी के बेजा इस्तेमाल, अवैध दोहन, खपत की बढ़ती रफ्तार पर कमान कसने के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं हैं। लिहाजा हमारे जीवन का आधार कहे जाने वाला पानी अराजकता का शिकार हो गया है। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि किस तरह लोगों को जोडक़र पानी के स्रोतों को बचाने और उन्हें समृद्ध करने के प्रयास जारी रहें। वैसे केन्द्र सरकार ने  2012 की नेशनल वाटर पॉलिसी में एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धनकी बात कही है, लेकिन यह बिना जन जागरूकता और जन सहभागिता के असंभव ही है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी यह नहीं जानता कि जिस पानी को वह बेकार बह जाने दे रहा है, वह उसके जीवन का पर्याय है। उसका भोजन, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवेश, उसका पर्यावरण .. .. ..सब कुछ बिना पानी के क्षण भर भी ठहर नहीं सकता।   


मंगलवार, जनवरी 27

जो दिलों में रहते हों, उन्हें स्मारकों की जरूरत नहीं


निराला सम्मान लेने के बाद प्रख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल ने कहा कि हिन्दी के साहित्यकारों को वह सम्मान नहीं मिलता जो अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को मिलता है। खासकर हमारी सरकारें हमें उस तरह नहीं लेतीं, जैसे कि अन्य भारतीय भाषाओं के प्रदेशों की सरकारें अपने साहित्यकारों को लेती हैं। उन्होंने बांग्ला और तमिल भाषा के साहित्यकारों के साथ रूस के साहित्यकारों के सम्मान में होने वाली गतिविधियों का जिक्र किया और समारोह में उपस्थित लोगों का आह्वान किया कि वे केन्द्र सरकार और प्रदेश सरकार को चिट्ठियां लिखकर यह मांग करें कि नई बनने वाली कालोनियों, हवाई अड्डों और सडक़ों के नाम हमारे साहित्यकारों के नाम पर करें, ताकि लोग अपने साहित्यकारों को करीब से महसूस कर सकें।
क्या आप समझते हैं कि ऐसा किया जाना जरूरी है? मेरी समझ में इस तरह की कोई भी पहल बेमानी ही साबित होगी। अव्वल तो हिन्दी के साहित्यकार अपने पाठकों से दूर हैं, ऐसा गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता। सच यह है कि अन्य भारतीय भाषाओं में बड़े साहित्यकारों की संख्या बहुत कम होती है। लिहाजा जब उनके लिए कोई कार्यक्रम होता है तो बहुत बढ़-चढक़र लोग भाग लेते हैं और यह अहसास होता है कि वे अपने साहित्यकारों को बहुत सम्मान दे रहे हैं। बरक्स इसके हिन्दी में बड़े साहित्यकारों की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त है। हिन्दी साहित्य की लगातार बनी रहने वाली सक्रियता भी नित ने बड़े साहित्यकारों का नाम इस फेहरिस्त में जोड़ती रहती है।
दूसरी बात यह कि इतनी बड़ी संख्या में साहित्यकारों का होना विचारों की टकराहट का कारण बना रहता है। यही वजह है कि पूरा हिन्दी साहित्य वादों और विवादों में बंटा हुआ है। अब बेचारा हिन्दी का पाठक, किसी वाद-विवाद का हिस्सा बने अगर किसी साहित्यकार को चाहना भी चाहे तो वह ऐसा नहीं कर सकता। वह इसलिए कि हमारे यहां इस तरह का कोई प्रयास नहीं होता कि लोगों को सीधे अपने लेखक से संवाद का मौका मिल सके। बड़े-बड़े स्वनामधन्य लेखकीय संगठन महज बयानिया टाइप के संगठन बन कर रह जा रहे हैं। कभी-कभी तो उनकी चुप्पी पर गुस्सा भी आता है, लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर कुछ कहा तो वे तत्काल से आपको अपना विरोधी घोषित कर देंगे।
जब साहित्य समाज आती जाती सरकारों में अपने लिए ‘स्पेस’ तलाशता है तो वह जनता का नहीं रह जाता। कुछ लोग ही उसके साथ होते हैं और वह भी पार्टी लाइन पर सोच और समझ रखने वाले। मेरे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जब पुरनिया संगठनियों ने अपने-अपने संगठन महज इसलिए छोड़ दिए कि वे जनता से कटे-कटे से रहते हैं। अब चाहे वह नरेश मेहता हों या फिर अमरकांत और चाहे कोई अन्य। सभी ने यह माना कि वादों में बंटकर साहित्य और साहित्यकारों का अहित ही हुआ है। क्षत्रप बनने की ख्वाइश पाले कुछ लोगों ने स्थिति को और भी बिगाडक़र रखा हुआ है।
फिलहाल चित्रा जी की अपील पर कितना अमल होता है यह तो भविष्य ही बताएगा। मुझे जहां तक याद है कि इस शहर में महाप्राण निराला को जनता का सम्मान भी मिलता रहता है। दारागंज में बसंत पंचमी के दिन उनकी मूर्ति पर माला चढ़ाने की होड़ सी लगी रहती है या फिर आज भी होली के दिन लोग महादेवी के निवास पर पहुंचना नहीं भूलते। इलाहाबाद में साहित्यिक ठीहे किसी की कोशिश के मोहताज नहीं होते वे खुद-ब-खुद गुलजार हो जाया करते हैं। इलाहाबादी ठसक शायद ही चित्रा जी की अपील पर अमल कर सके। शायद मैं गलत साबित हो जाऊं। शायद...। कुछ भी हो सकता है। क्या होगा? यह आने वाला समय बताएगा।

रविवार, जनवरी 25


यह कुकुर पुराण मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आयोजित 2006 के कला मेला में सुनाया था। 

सैंया भये कोतवाल तो.. ..


‘अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बोल, अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ में लगा धागा, चोर निकल के भागा’ इसी के साथ शुरू होता था बच्चों का एक खेल जिसमें हम ही चोर थे और हम ही पुलिस। भले ही चोर-पुलिस का यह खेल अब की पीढ़ी के खाते से बाहर हो गया हो, लेकिन अपने शहर में ऊंचे स्तर पर चोर-पुलिस का खेल चालू है। ठीक उसी पुरनिया पड़ गये खेल की तर्ज पर चोर-पुलिस एक ही घर या मोहल्ले के निकल रहे हैं और ठीक-ठीक उसी तरह खेल रहे हैं। अब जरा इमेजिन कीजिये कि पुलिस के घर पुलिस पहुंचे और चोर को पकड़ ले, चोर पुलिस वाले का बेटा या भाई निकले.. .. क्या सीन है भाई, एकदम फिल्मी।
अब देखिए न, पिछले दिनों एक ही घर और मोहल्ले से पुलिस और चोर दोनों के साथ-साथ  के होने की खबर मिली। इस खबर ने एक प्रसिद्ध कहावत को तो चरितार्थ होने का मौका भी उपलब्ध करा दिया। चरितार्थ होने का सुख पाने वाली कहावत यह कि जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। अब सैंया न सही लेकिन पिता और भाई पुलिस में हों तो चोरी-छिनैती का सुख उठाने में काहे का डर। हां, यह बात भी दीगर है कि पुलिस वाले रिश्तेदार हों तो जेल की हवा खाने का भी अपना अलग ही मजा है। अब जब पुलिस के घर में चोर रह सकते हैं तो पुलिस को सैंया मान लेने की कवायद में पुलिस लाइन में रहने वाले कहां पीछे रह सकते हैं।  इस तर्क को साबित किया पुलिस लाइन में रहने वाले एक चेन स्नेचर ने।
वैसे अपने शहर में चोरों की वैराइटीज में लगातार इजाफा होता जा रहा है। पिछले दिनों जब एटीएम चोर की नई वैराइटी सामने आयी थी तो कई लोग चौंक गये थे। इस बार ट्रैक्टर चोर की वैराइटी मिली है। इस वैराइटी ने जिस तरह टवेरा और ट्रैक्टर की जुगलबंदी का सच उगला है, वह चौंकाने वाला तो है ही साथ ही चोरी के क्षेत्र में हो रहे इनोवेटिव प्रयोगों की पोल भी खोलता है। .. ..कौन कहता है कि इस सदी के अगले इनोवेटिव आइडियाज वाले दशक में हम पीछे रहेंगे। हां इसके लिए शहर हो तो मेरे शहर जैसा, जहां के चोर भी हमेशा नया-नया सृजन करने में लगे रहते हैं।    

रविवार, जनवरी 18

अब नहीं रहे वे साहित्यिक अड्डे


इलाहाबाद और अड्डेबाजी। कोई जोड़ नहीं है इस जुगलबंदी का। तरह-तरह के अड्डे और तरह-तरह के अड्डेबाज। बचपन में अहियापुर की चबूतरेबाजी देखा करता था। लाजवाब हुआ करता था मोहल्ले के हर घर के बाहर बने चबूतरे पर होने वाला विमर्श। तब लगता था कि यह महज समय काटने का जरिया है। टेलीविजन तो था नहीं, रेडियो पर धीमे-धीमे गाने बजा करते थे और निर्धारित समय पर समाचार को तेज आवाज में सुना जाता था और फिर उस पर ‘सामाजिक विमर्श’ हुआ करता था। हर किसी का अंदाज निराला था। हर कोई ‘गुरू’ था और हर ‘गुरू’ के पास अपने-अपने सिद्धांत। बता दीजिए दुनिया का कोई और शहर, जहां इतनी शिद्दत से तमाम गुरू एक साथ बैठकर देश-दुनिया की किसी सम्स्या पर विमर्श करते हों।  
बड़ा हुआ तो साहित्यिक अड्डेबाजी का सुख उठाने को मिलने लगा। यह पिछली सदी के अंतिम दो दशकों की बात है। शहर में कई-कई साहित्यिक अड्डे थे। काफी हाउस, एजी ऑफिस के बाहर, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संग्रहालय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन और लोकभारती। मुझे याद है कि उन दिनों हमें किसी साहित्यकार को खोजना होता था तो हम दोपहर से पहले कॉफी हाउस या लोकभारती और दोपहर बाद एजी ऑफिस के बाहर पहुंच जाया करते थे। कॉफी हाउस के भीतर एक टेबल को घेरकर बैठे रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, रामकमल राय, सत्यप्रकाश मिश्र, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया गप लड़ाते मिलते तो एजी के बाहर उमाकांत मालवीय, सरनबली श्रीवास्तव, नौबत राय पथिक, अमरनाथ श्रीवास्तव समेत कई लोग। उन दिनों हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद संग्रहालय और  हिन्दी साहित्य सम्मेलन की संगोष्ठियां यादगार हुआ करती थीं। हमारी पीढ़ी ने इन गोष्ठियों में अपने समय के तमाम साहित्यकारों के साथ महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, इलाचन्द जोशी, नरेश मेहता, अमरकांत, रघुवंश को यहीं कई-कई बार सुना और बोलना-रचना सीखा।
वास्तव में ये अड्डे ही हमारी पीढ़ी के तमाम लेखकों के लिए सृजन की पाठशाला हुआ करते थे। हमने साहित्य के कई फलसफे इन्हीं अड्डों पर बैठकर सीखे। बड़ी बात यह थी कि इन साहित्यिक अड्डों पर उपस्थित हर रचनाकार अपने पीछे आने वाली पीढ़ी की बनावट और मंजावट की जिम्मेदारी बखूबी निभाता था। यही वजह है कि हम इन अड्डों को किसी तीर्थ की तरह देखा करते थे। आज जब इन अड्डों की ज्यादा जरूरत है तो ये नहीं हैं। और, अगर हैं भी तो वैसे नहीं रहे जैसे पहले हुआ करते थे। काश वे दिन लौटाए जा सकते।

मंगलवार, जनवरी 13

पेरिस,पत्रकारिता और पस्त होती दुनिया


साल के जाते-जाते पाकिस्तान के पेशावर शहर में मानवता को धता बताती घटना ने पूरी दुनिया का दिल दहला दिया था और तब दुनिया भर की पत्रकारिता ने इस घटना का ब्योरा देते हुए चीख-चीख कर मानवता पर मंडराते खतरे के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। हर संवेदनशील आदमी इस घटना की निंदा करता मिल रहा था। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों ने इसके फिर न दोहराए जाने की दुआ भी की थी। पर किसे पता था कि कुछ ही दिनों के बाद पत्रकारिता के ऊपर भी इसी तरह का हमला होने वाला है। पेरिस की व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ के पत्रकारों की शहादत ने दुनिया की समूची पत्रकारिता को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब अभिव्यक्ति की आजादी के दिन लद गए? क्या अपने समय, अपने समाज और खुद अपने पर हंसने और व्यंग्य करने पर पाबंदी लग जाएगी? वैसे सच कहा जाए तो इस तरह की शुरूआत कुछ वर्षों पहले ही हो चुकी थी। याद कीजिए जब अपने देश में एम.एफ. हुसैन की एक पेंटिंग को लेकर हंगामा बरप गया था और एक पुराने प्रकाशित कार्टून को लेकर संसद का अहम समय हंगामे की भेंट चढ़ गया था। बहरहाल देश दुनिया में इस तरह की कई घटनाएं हैं जो इस बात की तस्दीक कर सकती हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी हमेशा से निशाने पर रही है। लेकिन, इस बार जो कुछ हुआ, उसकी कल्पना नहीं की गई थी।
अपने शायर अकबर इलाहाबादी ने बरसों पहले बड़े ही शान और विश्वास के साथ लिख दिया था कि - ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’। बार-बार स्तब्ध कर देने वाले इस समय में न जोने क्यों कभी-कभी अकबर की ये पंक्ति बेमानी से लगने लगती है। लेकिन, जिस एक पंक्ति के सहारे हमारी पत्रकारिता हर तरह के विरोध से जूझती आई हो उसे इस तरह झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। यही वजह है कि देश-दुनिया की स्तब्ध पत्रकारिता जगत ने एकबार फिर सच व इंसाफ के लिए जूझते रहने का जज्बा दोहराया है। मीडिया के सारे उपक्रम इस घटना के विरोध में एकजुट तो हैं, लेकिन उन्हें राजनीति और समाज से जो मुखर सम्बल मिलना चाहिए था, वह गायब है। साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी भी चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझ रहे हैं। शिक्षा जगत भी इस मुद्दे पर लगभग पल्ला झाड़े खड़ा है। आखिर ऐसा क्यों? उत्तर हर प्रश्न समझने वाले के पास है।
वास्तव में हमारा यह समय बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता है कि चूक कहां हो रही है। ऐसे समय में पता नहीं यह कहना ठीक है या नहीं, लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जाता कि क्या पत्रकारिता के मिशनरी मानकों और अभिव्यक्ति की आजादी पर लगते सवालिया निशानों पर हमें बदलती दुनिया और बदलते समय के हिसाब से सोचना नहीं चाहिए? यही नहीं एक बार फिर ‘सेल्फ रेगुलेशन’ की आवाज भी उठने लगी है। अब देखिए न शार्ली एब्दो पर हमले से घबराए टर्की के एक अखबार ने तत्काल यह घोषणा कर दी कि आगे से हम विवादित कार्टून नहीं छापेंगे। अब यह कौन तय करेगा और कैसे तय करेगा कि कौन सा कार्टून विवादित है और कौन सा नहीं। कार्टून विधा के माहिरों की मानें तो हर कार्टून किसी न किसी व्यक्ति या घटना या विचार पर कटाक्ष करता ही सामने आता है। तो फिर वह हर उसके लिए विवादित ही होगा जिसके खिलाफ उसे तैयार किया गया है। तो क्या कार्टून ही बनने बंद हो जाएं? या फिर कार्टून छापने से पहले सेंसर बोर्ड से अनुमति ली जाए? तो क्या सेंसर बोर्ड से पारित कार्टून सबको मान्य होंगे और उनपर विवाद नहीं होगा। पेंच दर पेंच और जवाब कुछ भी नहीं।
समाजशास्त्री और सामाजिक अलम्बरदार इसे माने या न माने पर सच यही है कि राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारे अपने समाज को अधिक असहिष्णु, दुरावग्रस्त, कट्टर धार्मिक और जातिगत प्रतिस्पर्धा रखने वाला बना दिया है। इसके लिए हमारी वे सामाजिक संस्थाएं भी दोषी हैं, जिनको हमने अपने समाज को बनाने, मांजने और गतिशील बनाने के लिए मान्यता दे रखी है और वे इनमें से कोई भी दायित्व सही ढंग से नहीं निभा पा रही हैं। यह कहना भी गलत न होगा कि टेक्नोलॉजी ने इन तथाकथित सामाजिक विशेषताओं के पुष्पित-पल्लवित होने का मौका दिया है। और, जब तक हम ऐसे सामाजिक ताने-बाने को बुनते रहेंगे या इनकी बुनावट से उदासीन बने रहेंगे तब तक किसी न किसी चित्रकार को एम.एफ.हुसैन की तरह देश छोडक़र जाते रहना पड़ेगा, किसी न किसी लेखक को अरुण शौरी के लेख पर हुए हल्ले की तरह का हल्ला सहना पड़ेगा, नेहरू और अम्बेडकर पर बने पुराने कार्टून की तरह किसी और कार्टून पर संसद का समय जाया होता रहेगा और शार्ली एब्दो की तरह किसी और अखबार या पत्रिका पर हमले जारी रहेंगे। सबको सम्मति दे भगवान...।

रविवार, जनवरी 11

चलो, एकबार हम भी ‘विवादित’ हो जाएं


लिक्खाड़ों की दुनिया में विवादों में बने रहने का एक अजीब सा नशा है। इस साहित्यिक कही जाने वाली दुनिया में विवाद में रहने के मायने है कि आप केन्द्र में हैं और लोगों की नजर में हैं। विवाद में बने रहने के मायने यह भी हैं कि आप तथाकथित बड़ों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। ‘विवाद की साइज’ आपकी ‘हैसियत की साइज’ तय करती है। अरे वह लेखक ही क्या जिसके आचार, व्यवहार, सोच पर कभी विवाद ही न हुआ हो। अगर लिखे पर कोई विवाद नहीं हुआ तो कहे पर विवाद तो होना ही चाहिए। और, अगर कहे पर भी विवाद नहीं हुआ तो चरित्र पर ही विवाद हो जाना चाहिए। किताब छपे तो विवाद, पुरस्कार मिले तो विवाद, प्रेम करे तो विवाद , किसी पार्टी के नेता से हाथ मिला ले तो विवाद,किसी जुलूस में जाए तो विवाद, न जाए तो विवाद। विवाद होगा तभी तो संवाद की गुंजाइश बनेगी। विवादों में बने रहने में माहिर लोग पहले ही ताड़ लेते हैं कि मीडिया में कौन सा विवाद कितनी दूर तक उछलेगा और कौन दोतरफा टीआरपी का मजा देगा। इसी आधार पर वे सधे हुए अंदाज में कदम बढ़ाते हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि हमारी दुनिया विचारों की दुनिया है, तरह-तरह के विचार आपस में टकरायेंगे नहीं तो मंथन होकर सार्थक चीजें बाहर कहां से आयेंगी।
बहरहाल साहित्य में विवाद, विवादियों, विवादपरस्त और विवादग्रस्तों को देखकर कई बार तो विश्वास करना ही मुश्किल हो जाता है कि ये लोग एक ऐसी दुनिया से सम्बन्ध रखते हैं, जिसे सबसे अधिक संवेदनशील समझा जाता है। तरह-तरह के वादों में बंटे साहित्य समाज के लोग सदे-बदे अंदाज में जब अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होते हैं, तो यह भांपना मुश्किल होता है कि सच क्या है और झूठ क्या है। वैसे मीडिया के विस्तार के साथ ही साहित्य में विवादों को विस्तार मिला है और विवादों की कई-कई वैराइटी हमारे सामने आयी है। यही नहीं धुरंधर विवादबाजों के साथ कई नए-नए रंगरूट विवादबाज भी पैदा होते जा रहे हैं। अगर यह कह दिया जाए कि साहित्य में छत्रप कह जाने वाले लोगों के पास विवाद फैलाने वालों की फौज है तो गलत नहीं होगा। देश की राजधानी से लेकर प्रदेशों की साहित्यिक राजधानियों में इनके फ्रेंचाइजी एजेंट मौजूद रहते हैं और इशारा पाते ही कूद-फांद मचाना शुरू कर देते हैं। विवाद पर बयान, विवाद पर संगोष्ठी, विवाद पर प्रदर्शन, विवाद पर टिप्पणियों का प्रकाशन, विवाद को बनाए रखने के लिए लगातार आलेखों और पत्रिकाओं में सम्पादक के नाम पत्र लेखन आदि का काम इन्हीं प्रेंचाइजी एजेंटों के जिम्मे होता है। मजेदार यह कि विवादों में बने रहने के लिए कई छुटभइये कलमकार जोकरी की हदें पार कर जाते हैं।
देश की कई पत्रिकाएं भी साहित्य में विवादों को पैदा करने और उसे लगातार जिंदा रखने की कवायद करती रहती हैं। पत्रिकाओं के इतिहास को पलटें तो साहित्य के कई विवाद बिखरे हुए मिल जाते हैं। फर्क बस इतना है कि इन एतिहासिक दस्तावेजों में साहित्य के विवाद को दर्ज करने का काम किया गया है। विवाद को जन्म देने और उसे आगे बढ़ाने का काम कम ही दिखता है। दूसरी तरफ आज की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएं गाहे-बगाहे ऐसे कारनामे करती रहती हैं कि साहित्य समाज में बेमानी बहसें चलती रहें और उनके चहेते लेखक चर्चा में बने रहें। बहरहाल अपना शहर तो है ही इस कार्य में माहिर। वादों और विवादों को जन्म देने और उसे पुष्पित-पल्लवित करने में जितना योगदान अपने शहर इलाहाबाद का उतना शायद किसी का नहीं।