मंगलवार, मई 10

विषय विचलन विषाणु

इन दिनों नये-नये विषाणुओं के खोजे जाने और उनसे होने वाले रोगों की खबरें मिल रही हैं। मैंने भी एक नये तरह का विषाणु खोज निकाला है। इस विषाणु का नाम है ‘ट्रिपिल वी’ यानी ‘विषय विचलन विषाणु’। इन दिनों गोष्ठी, सेमिनारों और बहसों में यह विषाणु किसी भी वक्ता में प्रवेश कर जाता है और फिर एक साथ कई वक्ताओं को इससे ग्रसित होते देर नहीं लगती है। बेचारा आयोजक! अपनी खोपड़ी पीट लेने के सिवाय उसे कुछ और नजर नहीं आता। वास्तव में इस विषाणु से संक्रमित होते ही पीडि़त विद्वान गोष्ठी या सेमिनार के विषय की ऐसी ‘ऐसी-तैसी’ करता है कि पूछिये ही नहीं। बोलना है धर्म पर तो बोलेंगे फिल्मों में फैल रही अश्लीलता पर। कविता पर बोलने को कह दिया जाये तो संस्मरण सुनाने लग जायेंगे। बारी आयेगी संस्मरण की तो संस्कृति में पूंजीवाद के प्रवेश का मुद्दा उठा बैठेंगे। स्थिति विदारक तब हो जाती है, जब एक को विषय विचलित होते देख सब के सब उसकी बात के खण्डन-मण्डन में विषय विचलन का शिकार हो जाते हैं। बात तब और अधिक बिगड़ जाती है जब कुछ श्रोताओं को इन विषाणु पीडि़त वक्ताओं का संक्रमण लग जाता है और देखते ही देखते उन्हें भी बोलास सवार हो जाती है। फिलहाल मैं इस विषाणु से छुटकारा दिलाने की जुगत में भी लगा हूं। सुना है किसी विषाणु का टीका उसी विषाणु को निष्क्रिय करके तैयार किया जाता है। मैं ऐसे वक्ताओं की सूची तैयार कर रहा हूं, जो कभी न कभी ‘ट्रिपिल वी’ के शिकार रहे हैं। दर्द इन्होंने दिया है तो दवा का रास्ता भी इन्हीं से होकर निकलेगा। आपके पास यदि कोई नाम हो तो मुझे अवश्य प्रषित करें।

मंगलवार, मई 3

खुशियों के अपने-अपने फ्रेम

पिछले दिनों देश की सीमा पर शहीद हुए एक जांबाज सैनिक के परिवार से मुलाकात करने को मिला। बूढ़े मां-बाप, पत्नी और उसका बेटा। सभी के पास शहीद सैनिक पर गर्व करने की अपनी वजहें और अपने तर्क। बातचीत में घर का पुराना फोटो एलबम निकल आया। पेशे से कालेज टीचर रहीं बूढ़ी मां ने बड़े ही चाव से एक-एक फोटो दिखाना और उनसे जुड़े संदर्भों को समझाना शुरू कर दिया। कभी वे बतातीं कि किस तरह उनका बेटा फलां फोटो के फ्रेम से बाहर हो रहा था तो उसके मामा ने उसे फ्रेम के भीतर किया और कभी बेटे द्वारा खींची गई फोटोग्राफ्स के फ्रेम और कम्पोजीशन की तारीफ करने लगतीं। हर फोटोग्राफ के फ्रेम के भीतर सिमटी-सहेजी हुई उनकी खुशियां रह-रह कर बाहर आ जाती थीं और उनका चेहरा इन खुशियों को पाकर दमकने लगता था। मेरे साथ पूरा घर एलबम में इस तरह झांक रहा था मानो पहली बार देख रहा हो। मेरे मन में आयी इस बात को भांपते हुए बूढ़ी मां ने बड़ी ही आत्मीयता से एलबम का पेज पलटते हुए कहा-ये हमारी खुशियों के फ्रेम्स हैं, जिनमें हम अपने और अपनों को ढंूढ़ लेते हैं और खुश हो लेते हैं। वास्तव में हम में से अधिकतर लोग अपने पास खुशियां न होने का रोना रोते मिल जाते हैं। हमारी खुशियों के अभाव का ठीकरा सीधे दुनिया बनाने वाले के सिर पर फूटता है। इस मामले में हम सब भा यवादी हो जाते हैं और सारा दोष अपना भाज्य गढऩे वाले ईश्वर पर मढक़र खुद की हिस्सेदारी हो गई मान लेते हैं। सच तो यह है कि खुशियां पाने और उसे गढऩे में सबसे बड़ी हिस्सेदारी हमारी ही है। हम खुद अपनी खुशियों के फ्रेम तय कर सकते हैं और उसमें खुद को फिट कर सकते हैं। पहल तो इस बात से ही हो जाती है कि हम तय करें कि हमें खुशी कब और कैसे मिलती है। हमारे आस-पास ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने खुद के खुश होने के बहाने और रास्ते खोज लिये हैं और उन्हीं में रम कर खुश हैं। अब मुम्बई के पार्थो भौमिक को ही लीजिये, अपने बियाण्ड साइट फाउण्डेशन के माध्यम से वे आंखों की रोशनी से वंचित युवाओं को फोटोग्राफी का प्रशिक्षण देने का अभियान चलाये हुए हैं। ‘टच एण्ड हियर’ तकनीक का सहारा लेकर ब्लाइण्ड यूथ्स को कैमरा चलाना सिखाने वाले पार्थो ने साइट, परसेप्शन और विजन जैसे शब्दों को बेमानी कर रखा है। पार्थो अपनी इस ‘शूट विदाउट साइट’ मुहिम के साथ बहुत खुश हैं। पार्थो की मुहिम में हिस्सेदारी निभाने वाले अंधता का शिकार युवाओं की खुशी देखते ही बनती है। वे अपनी कृतियां देख तो नहीं पाते, लेकिन उन्हें अहसास रहता है कि उन्होंने अपने कैमरे की आंख में जिस दुनिया को कैद किया है, वह सुन्दर और बेहतर ही है। पिछले महीने पार्थो अपने स्टूडेन्ट के साथ इंटरनेशनल डिसेबिलिटी आर्ट्स फेस्टिवल में भाग लेने भी गये और अपने अभियान को लोहा मनवाकर लौटे। खुशियां पाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसे बांटना भी है। सच तो यह है कि जब हम खुशियां बांटने निकलते हैं तभी हमें खुद की खुशी से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। तभी हम अपनी सोसायटी में खुद के होने के मायने समझ पाते हैं। खुद से खुद का मिलना एक अलग ढंग का अहसास देता है। यही अहसास हमें सोसायटी के लिए कुछ बेहतर कर गुजरने की पे्ररणा देता है और हमें एक बार और खुश हो लेने का मौका मिल जाता है। सच कहूं तो मैंने अपने इसी फण्डे का इस्तेमाल करके खुद को कई दुविधाओं से उबारने का काम किया है। बात खत्म करने से पहले एक मुलाकात का जिक्र करना चाहूंगा। मुझे अपनी पिछली यात्रा में एक बुजुर्ग व्यक्ति मिले, जिनका पूरा परिवार एक एक्सीडेंट में मारा गया था। कुछ दिनों दुख और अवसाद में बिताने के बाद इन्होंने तय किया कि वे देश के हर छोटे-बड़े अनाथालय में जायेंगे और वहां रहने वाले बच्चों को कुछ न कुछ उपहार देंगे। अब वे खुश हैं और बड़ी ही शिद्दत के साथ अपनी इस मुहिम में जुटे हैं। सच.... हम सब को अपने खुश होने के बहाने और रास्ते खोज लेना चाहिये।
(आई नेक्स्ट के सभी संस्करणों में प्रकाशित)

सोमवार, मई 2

हाय, हम पानीदार न हुए

जब सारा देश अन्ना के साथ सुर में सुर मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहा था तब हम और हमारे मोहल्ले वाले अपनी गली के नुक्कड़ पर पानी के लिए हाय-हाय कर रहे थे। अव्वल तो पानी आता नहीं, आता है तो गंदा आता है। कितनी देर आयेगा तय नहीं होता। गंदे पानी के साफ होने तक इंतजार करिये तो बूंद भर पानी को तरसना पड़ सकता है। घर की औरतें दिन भर नल के पास खड़ी रहती हैं और किसी ‘एसआईपी’ की तरह घर के सभी बड़े बर्तनों में पानी का निवेश करके खुश होती रहती हैं।
बहरहाल पानी के लिए हाय-तोबा करते देख इलाके के एक समाज सेवी टाइप के नेता ने हमें बड़ी लानत-बलानत भेजी। हमें हमारी पानी को लेकर पैदा हुई संकुचित सोच के लिए बहुत कोसा। कहा कि जब सारा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाकर एकजुटता दिखा रहा है तो तुम पानी के लिए दिल जालाकर अलग-थलग पड़े हुए हो। अरे पानी तो रोज नहीं आता। इसमें नया क्या है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन नया है। ऐसा मौका बार-बार नहीं आता। फिर टीवी वाले तुम्हारे आंदोलन को नहीं दिखायेंगे। सोच के स्तर पर ऊपर उठो। थोड़ा सा राष्ट्रीय हो जाओ। तुम पानी के लिए चिल्लाने के लिए नहीं बने हो।
अपनी बड़ी सोच की बातों के बीच वे यह कहने से भी नहीं चूके कि पानी की समस्या तो रहीम जी के जमाने से है। वे भी पानी बचाने और सहेजने के लिए चिल्लाया करते थे। अरे जब रहीम जी की नहीं सुनी गयी तो तुम्हारी कौन सुनेगा। लिहाजा तुम्हारा पानी पाने और पानीदार होने का आंदोलन बेमानी है। और फिर पानी के लिए चिल्ल-पों मचाने का एक स्टेटस होता है। अरे जिस पानी के लिए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, जल संसाधन मंत्री, कई-कई आयोग, वैज्ञानिक वगैरह-वगैरह चिल्ला रहे हों तो आप चिल्लाकर क्या पा लेंगे। जनाब, जिस पानी के लिए चिल्लाते-चिल्लाते कई पीढिय़ां गुजर गयीं और जिसके नाम पर करोड़ों बहा दिये गये उसके लिए अपनी ऊर्जा खपाने से कुछ हासिल नहीं होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो जाइये। कुछ नहीं हुआ तो कम से कम आप टीवी पर दिख जायेंगे, आपको लोग पहचानेंगे और आपके जागरूक होने पर मुहर लग जायेगी।
अब हम उन्हें कैसे समझाते कि भ्रष्टाचार तो हमारी रगों में समा सा गया है। उससे निजात पाने के लिए भी कई-कई पीढिय़ां इंतजार करती रह जायेंगी। रही बात पानी की तो वह हमारी रगों से ही गायब होता जा रहा है। .. ..कहां से लायेंगे हम पानीदार पीढिय़ां।


(हिन्दुस्तान के इलाहाबाद संस्करण में प्रकाशित)