रविवार, दिसंबर 6

फेसबुकिया साहित्यिक क्रान्ति की कोशिश

सोशल मीडिया के धुरंधर मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी, अन्ना और अरविन्द केजरीवाल इतनी प्रसिद्धि न पाए होते अगर फेसबुक न होता। इन सब को बनाने में सोशल मीडिया का अद्भुद योगदान है। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि अन्ना के आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका से रू-ब-रू होने के बाद से ही लोगों को यह आभास हो गया था कि विकल्प के रूप में हाथ लगा यह मीडिया टूल बड़े काम का है। कई लोगों ने इसे इस्तेमाल करके बुलंदी पर पहुंचने का ख्वाब भी पाला और लगे रहे, लेकिन बाजी मारी पहले नरेन्द्र मोदी ने और फिर अरविन्द केजरीवाल ने। हाल में हम कह सकते हैं कि इसी तरह की बाजी नितीश कुमार के हाथ भी लग गई। लोगों तक पहुंचने का इससे बेहतर रास्ता अब और कोई नजर ही नहीं आता है, ऐसा कहने वालों की जमात धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। यही वजह है कि राजनीति के पाले में धूम मचाने के बाद अब यह करामाती मीडिया साहित्यिकों को लुभा रहा है। आने वाले दिनों में कोई बड़ी साहित्यिक क्रांति अगर सोशल मीडिया के रास्त हम-आप तक पहुंचे तो कोई आश्चर्य मत कीजिएगा। 
इधर कई वर्षों से कई साहित्यकार और साहित्य सुधी फेसबुक पर सक्रिय हैं। कई ने बकायदा अपने पेज बना रखें हैं। कई का तो नियमित का शगल है कि वे कुछ न कुछ फेसबुक पर लिखते रहते हैं। अरे जब अपनी बातों को बेधडक़ चस्पा करने के लिए दनिया भर में दिखने और पढ़ी जा सकने वाली बड़ी दीवाल मिली हो तो किसका मन नहीं करेगा कि वह उस पर अपना नाम और अपनी रचना चस्पा कर ही दे। होड़ मची हुई है कि कौन क्या नया लिख दे। कोई कविताएं लिख रहा है तो कई शायरी के पृष्ठ दर पृष्ठ तैयार करे दे रहा है। किसी ने फेसबुक को अपनी लघु कथाओं को लोगों तक पहुंचाने का रास्ता बना लिया है तो कोई तमाम मुद्दों पर विचारों का जखीरा प्रस्तुत कर देने में जुटा हुआ है। यह अनायास नहीं है कि फेसबुक पर लिखे जा रहे साहित्य पर देश के बड़े प्रकाशकों की निगाह पड़ चुकी है और वे इन्हें प्रकाशित करने की पहल कर रहे हैं। हाल ही में रवीश कुमार के फेसबुक पर लिखी गईं लघु प्रेम कथाओं यानी लप्रेक को देश के एक बड़े प्रकाशक ने किताब रूप में प्रकाशित करके यह तो तय ही कर दिया कि सोशल मीडिया को नजरअंदाज कर देना समय की बड़ी भूल होगी। यहां मैं यह साफ कर दूं कि फेसबुकिया साहित्य में से अधिकांश बकवास और कूड़ा भी है। उसे इतर रखकर ही बात कर रहा हूं और ऐसा किया ही जाना चाहिए, यह मेरा मानना है।
बहरहाल मुद्दा यह है कि इन दिनों फेसबुकिया साहित्यिक क्रांति लाने की कोशिश हो रही है। वैसे तो छोटी-मोटी क्रांति लाने की कोशिश तो रुक-रुककर होती ही रहती है, लेकिन हाल के दिनों में कई साहित्यिकों ने संगठित रूप में यह प्रयास शुरू कर दिया है और एक बड़ी क्रांति करने की कवायद में जुटे नजर आ रहे हैं। वैसे आइडिया बुरा नहीं है, लेकिन इसके खतरे भी हैं और उनसे सावधान रहने और फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। विचारों में अतिरंजता साहित्य और नए जमाने के पढ़ाकुओं को साहित्य से दूर भी कर सकती है। हम चीजों को थोपने की बजाय सहभागी संचार के माध्यम से आगे बढ़ाएंगे तो सफलता हाथ लगने में कसर नहीं रहेगी। लेकिन दुखद यही है कि अभी तक की कोशिश में अतिरंजता और कट्टरख्याली अधिक है। साहित्य के जितने भी वाद और युग रहे हैं, उनमें शामिल रचनाकारों ने सहजता व समरसता के साथ दूसरे के विचारों को स्पेस देने की रवायत को नहीं छोड़ा। यही वजह रही कि वे अपने साहित्यिक आंदोलन में अधिक से अधिक लोगों को जोड़ पाने में सफल रहे। इसी बात को ध्यान में रखकर आगे बढऩे की कोशिश होनी चाहिए। बाकी सब.....।