सोमवार, जनवरी 11

इलाहाबाद जिन्हें कभी भुला नहीं पाएगा


पंजाबियत उन पर फबती थी। मुम्बईया स्टाइल में वे कभी-कभी दिख जाया करते थे। दिल्ली उन्हें कामकाजी शहर लगता था। लेकिन, जिस शहर को वे अपनी रगों में महसूस किया करते थे, वह इलाहाबाद ही था। ठेठ इलाहाबादी। यानी पुराने शहर के रंग में रंगी-तपी तबीयत की शख्सियत। रानी मंडी में रहते हुए उन्होंने जो रिश्ते कमाए थे, उनकी दमक आज भी है। जिस गली में वे रहते थे और उनका प्रेस था, वहां उनके निधन की खबर पर उन्हें याद करते लोगों से मिल कर देखिए, पता लग जाएगा कि आखिर वे इलाहाबाद को अपने पसंदीदा शहरों में सबसे ऊपर क्यों रखा करते थे।
हालैण्ड हाल छात्रावास में उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों के पास इतना कुछ था कि यह तय करने में किसी को देर न लगे आखिर वह था इन्हीं में से कोई एक या फिर सब में वह। साठोत्तरी पीढ़ी के कहानीकारों में प्रसिद्ध चार यारों की चौकड़ी में से एक कथाकार दूधनाथ सिंह जब अपने दोस्त को याद करने खड़े हुए तो दोस्त की वे चुहलबाजियां याद आईं जो उसकी जिंदादिली का सुबूत थीं। वे याद करते गए और दोस्ती के कई दृश्य सबके सामने उभरते रहे। कई ने तो इस यादगार वक्तव्य को रिकार्ड किया तो कई इसे अपलक सुनते रहे। जो कोई भी उन पर बोलने खड़ा हुआ उसे उनके सानिध्य में बिताए आत्मीय क्षण ही याद आते रहे।
मुम्बई से फिल्म लेखक आनंद कक्कड़ कह रहे थे कि दिल्ली में रहते हुए भी वे इलाहाबाद को नहीं बिसराते थे। इलाहाबादी लेखकों, भले ही वह इलाहाबाद छोडक़र कहीं और रह रहे हों, की रचनाएं सामने आते ही नरम पड़ जाते थे और उसे एक सर्रे में पूरा पढ़ जाते थे। रचना अगर छापने के लिए भेजते तो उसे तत्काल फोन पर बात कर बता देते। पता चला कि वे जब गंगाराम हस्पताल में जीवन और मृत्य से संघर्ष कर रहे थे, तब उनके पीछ के पीढ़ी के तमाम रचनाकार वहां पहुंच गए थे। कोई रो रहा था तो कोई उनके स्वास्थ्य के संदर्भ में डाक्चरों से राय-मश्विरा कर रहा था। ये वही थे, जिन्हें उन्होंने न केवल बनाया, बल्कि लगातार मांजने और पहले से अधिक बेहत बनाने में लगे रहे।
फोन पर कवि यश मालवीय से बात हुई तो खूब रोए हम दोनों। कितनी बार हम निराश हुए, और हर बार किसी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा- आगे बढ़ो। रुको मत। बस हम उठ खड़े होते रहे। उनकी यही आदत सबको उनसे जोड़ती रही। परेशानियों में भी हंसने का बहाना खोज लिया करते थे। बहुत देर तक गंभीर होकर वे बैठ ही नहीं सकते। उनके वक्तव्यों में जरूर ऐसा कुछ न कुछ हुआ करता था जो रोचक और रोमांच भर देने वाला होता था। बीमारी को सेलिब्रेट करने का फण्डा मैंने उन्हीं से सीखा। वे हर दर्द की ब्राण्डिंग कुछ इस तरह करते कि सामने वाले को अहसास हो जाता कि वे खुद को राहत देने की कोशिश कर रहे हैं।  लेकिन, थोड़ी ही देर में सामने वाला जीवन जीने की इस कला का कायल हो जाता और भूल जाता कि वह किसी बीमार का हाल-चाल लेने आया था।
ऐसे ही अनगिनत क्षण और बातें हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे हैं कि अभी-अभी जो हम सब के बीच से चला गया है, वह दरअसल अपने शब्दों और बीते पलों की स्मृतियों में हमेशा मौजूद रहेगा। . ..इलाहाबाद शायद ही कभी उन्हें भुला पाएगा। विनम्र श्रद्धांजलि...कथाकार, उपन्यासकार, सम्पादक, दोस्तों के दोस्त ौर इन सबसे बढक़र एक लाजवाब इंसान... रवीन्द्र कालिया।


तो क्या खंडहर ...
तो क्या इलाहाबाद का साहित्यिक ताना-बाना खंडहर में बदलता जा रहा है? उत्तर आपके पास कुछ भी हो, लेकिन कथाकार दूधनाथ सिंह अपने दोस्त कालिया को याद करते हुए इस बात को इशारों ही इशारों में कहकर चिंता तो जता ही गए। यह सही है कि इलाहाबाद उन बड़े रचनाकारों से खाली होता जा रहा है, जिन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब और अपने से पीछे की पीढ़ी को तैयार करते रहने की रवायत को बखूबी निभाया। वैसे इसी तरह की बात उर्दू के आलोचक अली अहमद फातमी ने भी की। यह सही भी है और पीछे-पीछ चलकर आगे बढ़ रही पीढिय़ों के लिए चुनौती भी। हां, अच्छा लगा कि कवि संतोष चतुर्वेदी ने यह आश्वासन देने में देर नहीं की कि हम बुजुर्गों से मिली रवायत को निभाते रहेंगे।



और अब इस बार की कविता
इस बार प्रस्तुत है कवि अशोक बाजपेयी की ये पंक्तियां
हम चुप हैैं:
हमारे शब्दों का सम्बन्ध टूट गया है।
हम दूर जाते आदमी को
उसके थैले में ठुंसे दुख को,
उसके माथे की शिकनों को
महसूस नहीं कर पाते।
हम मुहल्ले में हो रहे शोर को,
मारो-काटो-पीटो की चीखों को,
औरतों-बच्चों के रोने को
ठीक से सुन नहीं पाते।
हम चुप हैं,
हमारे शब्दों ने हमें छोड़ दिया है।
सी. धनंजय




रविवार, जनवरी 10

प्रयोगधर्मी सम्पादक थे रवीन्द्र कालिया


‘हम सब रवि को यूं ही जाने नहीं देंगे। भरोसा रखो वे वापस लौटेंगे।’ तीन दिनों पहले ममता जी ने जब ये कहा था तो अनायास ही लगने लगा था कि शायद कुछ आश्चर्यजनक घटे और कालिया जी एक बार फिर हम सब के बीच हों। पर नहीं, ऐसा नहीं हो सका। हम सब के बीच से एक ऐसा व्यक्तित्व विदा ले गया है, जिसने रचनाकारों और पत्रकारों की कई-कई पीढिय़ों को बनाने और मांजने-संवारने का काम  किया। जालंधरी मस्ती, बम्बईया अंदाज और इलाहाबादी ठसक लिए हुए कालिया जी साथ हों तो जीने के मायने कुछ अलग ही हो जाया करते थे। वे सिखाते, हंसाते और फिर बेहतर करने का उत्साह बड़ी ही सहजता से दे देते।
मुझे उनके साथ तब के चर्चित साप्ताहिक गंगा-जमुना में सीखने और कुछ बेहतर कर गुजरने का मौका मिला। वे शीर्षकों को लगाते समय और खबरों को जीवंतता देते समय बड़ी ही सतर्कता बरतते और साहितियक चुहल से उनमें रोमांच और रोचकता भर देते। कई बार तो गंगा जमुना में छपने वाले आलेख या खबर अपने शीर्षकों से ही चर्चा में आ जाते थे। मैंने उनसा प्रयोगधर्मी सम्पादक नहीं देखा। उन्होंने देश की वागर्थ और नया ज्ञानोदय पत्रिका का सम्पादन करते हुए साहित्यिक पत्रकारिता को एक नए ढंग के तेवर से लैस कर दिया। ज्ञानोदय में तो उन्होंने लेखकों का परिचय देने में जो प्रयोग किया वह अद्भुद था। वे किसी मुद्दे पर अपनी राय बनाते थे और फिर वे उसपर अडिग रहते थे। हम लोगों के साथ किसी विषय पर चर्चा होती तो हमेशा अभिभावक की मुद्रा में आ जाते और पहले सबको सुन लेते तब अपनी बात रखते।
मुझे याद है, जब इलाहाबाद की रानी मंडी में स्थित अपने निवास को वे छोड़ रहे थे और किताबों को ढेर अलमारियों से बाहर आया हुआ था। उनकी इलाहाबाद प्रेस में छपी कई किताबें भी उस ढेर में थीं। रचनाओं की इतनी अकूत सम्पदा मेरे सामने थी। मैं उस बड़ी ही कातर दृष्टि से निहार रहा था। वे तपाक से बोले- कुछ किताबें लेनी हो तो उठा सकते हो। बस फिर क्या था मैंने तड़ातड़ कई किताबें छांट लीं। उन्होंने उन किताबों को देखा और कहा कि-  तुम पास हो गए। अगर फेल हुए होते तो मैं किताबें वापस धरवा लेता। मैंने पूछा कि पास होने से आपका क्या मतलब है? तो वे बड़ी ही सहजता से बोले- किताबों का चयन। नई पीढ़ी में पढऩे-लिखने की आदत पड़े, इसे लेकर वे हमेशा कुछ न कुछ सुझाते रहते थे। मैंने उन्हें जब भी विश्वविद्यालय में अपने विभाग सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज में बुलाया वे समय निकालकर दिल्ली से आए और कुछ नया बता कर-सिखाकर गए।
मुझे व्यंग्य लिखने की आदत उन्हीं ने डलवाई। गंगा जमुना में ‘बैठे ठाले’ कॉलम में मेरे लिखे व्यंग्य छपा करते थे। पिछले वर्ष जब उनका संग्रह आया तो वे दिल्ली से इलाहाबाद उसका विमोचन करने आए। यह मरे लएि बड़ी बात था, लेकिन उन्होंने कहा कि तुम मेरे दोस्त हो और दोस्त की बात भला कोई टाल सकता है। मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा था, लेकिन वे हमेशा अपने छोटों के बीच उन सा ही हो जाया करते थे। यही वजह थी कि युवाओं की फौज को वे संवारने का काम बड़ी ही सहजता से कर सके। वे कई पीढिय़ों तक भुलाए नहीं जा सकेंगे। उनके शब्द हमेशा साथ निभाते रहें।