बुधवार, अक्तूबर 1

मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....


याद कीजिए वे दिन जब हमारे समाज में मनोरंजन और जनसंचार का काम हमारी लोक कलाएं ही किया करती थीं। लोक गीत, लोक कथाएं, लोक नृत्य, लोक आख्यान और लोक चित्र कला, यही वे सब उपक्रम थे, जिनके सहारे हमारे पूर्वज अपने समाज की बनावट और मंजावट का काम किया करते थे। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग इन्हें सहेजने में जुटा हुआ है। यह बात और है कि सरकारी सहयोग और आधुनिक सामाजिक मान्यताओं के उपेक्षात्मक रवैये ने इन्हें हाशिए में रख छोड़ा है और अब इनका हमारे बीच होना मात्र एक अनुष्ठान भर रह गया है।
पिछले दिनों इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन की एक संगोष्ठी में देश भर से आए लोक कलाकारों के बीट उपस्थित होने का मौका मिला। वहां उपस्थित हर कलाकार के पास अपने-अपने दुख थे, जिन्हें वह अपनों के संग बांट लेना चाहता था। इसी संगोष्ठीमें हमें फेडरेशन की ओर से ‘मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....’ शार्षक से एक पत्रक मिला। इस पत्रक में लोक कलाओंं और लोक कलाकरों की दशा का बड़ा ही मार्मिक बखान किया गया है। जो लोग लोक कलाओं और कलाकारों को करीब से जानते हैं उनको इस पत्रक पर सहजता से विश्वास हो जाएगा, लेकिन जिनके लिए लोक कलाएं जीवन और समाज के लिए जरूरी नहीं बल्कि मनोरंजन भर का एक साधन मात्र हैं उन्हें शायद ही इस पत्रक की सच्चाई और पीड़ा पर विश्वास हो सके। मैं ऐसे कई विद्वानों को जानता हूं जो लोक कलाओं के होने और उनकी जरूरतों पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जब उनके हक के लिए आवाज उठाने की बात आती है तो कन्नी काट जाते हैं। जब तमाम विद्वानों का यह हाल है तो फिर आम जन की तो बात ही छोडि़ए। वास्तव में सरकारों ने जो भी योजनाएं ऐसे कलाकारों के लिए बनाई हैं, उनकी मलाई कुछ लोग ही चट कर जाते हैं। इन कलाकारों के हिस्से में इन योजनाओं का कुछ सुख ही हाथ आ पाता है। मैं यह नहीं कहता कि विद्वानों के द्वारा लोक कलाओं पर शोध कार्य नहीं होना चाहिए, लेकिन साथ ही साथ इन लोक कलाकारों को प्रस्तुतियों की बारम्बारता और बेहतर मानदेय तो मिलना ही चाहिए।
बहरहाल इन लोक कलाकारों की आवाज बनने का बीड़ा  इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन ने उठाया है। इसका फैलाव बहुत कम समय में ही देश भर में हो चुका है और यह अपनी संगोष्ठियों व अन्य प्रस्तुतियों व आयोजनों के माध्यम से लोगों में इन कलाओं और कलाकारों के प्रति लोगों व सरकारों को जगाने का कम कर रहा है। फेडरेशन की मांगों में लोक कलाकारों की गणना, इन्हें राष्ट्रीय धरोहर घोषित करना, लोक कलाकारों के लिए वैकल्पिक आयवृद्धि योजना, स्वास्थ्य बीमा, 70 बरस से ऊपर के कलाकारों को पेंशन, कलाओ ंकी नियमित प्रस्तुतियों की व्यवस्था व उचित मानदेय की व्यवस्था करना शामिल है। फेडरेशन ने राष्ट्रीय लोक कला विकास व अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की मांग के साथ-साथ कई अन्य णांगें भी संस्कृति मंत्रालय से की हैं।
सच यही है कि लोक कलाएं पूरे समाज की होती हैं। समाज में रहने वाले समुदाय, जातीय समूह या परिवार इसके जन्म और विकास के लिए जिम्मेदार बनते हैं, लेकिन इन पर किसी का एक का अधिकार नहीं होता। जीवन के हर लमहों जुड़ी लोक कलाएं न केवल पीढिय़ों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन करती है, बल्कि कड़ी मेहनत के बाद राहत देने का काम भी करती हैं। लोक जीवन के अधिक निकट होने के कारण लोक कलाएं और इनके सभी प्रकारों के सम्बन्ध में समाज का हर सदस्य सहजता से जानता है और उसे अपना लेता है। यही नहीं वह अपनी परम्पराओं और जीवन शैली के अनुरूप थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इन लोक कलाओं का सहभागी बन जाता है। ऐसा होने के कारण ही लोक कला में कलाकार और श्रोता या दर्शक का कोई अंतर होता ही नहींं। कलाकार ही श्रोता या दर्शक होता है और दर्शक या श्रोता ही कलाकार। यही वजह है कि लोक कलाओंंके बिना हमारा स्वयं का अस्तित्व भी अधूरा सा ही है। तो क्यों न हम सभी भी इसके लिए उठती आवाजों के सहभागी बनें।