रविवार, फ़रवरी 1

...आखिर कैसे बचे जल जमीन और जीवन




बदलते समय और बदलती दुनिया ने हमें जिस मोड़ पर लाकर खड़ा किया है, वहां से जल, जमीन और जीवन को बचाने का रास्ता कठिन सा दिखने लगा है। यह अनायास नहीं है कि केन्द्र सरकार के जल संसधन मंत्री को बीते वर्ष जल सप्ताहको प्रारम्भ करते वक्त यह कहना पड़ा था कि भारत पहले से ही जल की कमी के दबाव को झेल रहा है और आने वाला समय हमें जल दुर्लभता वाले देश में तब्दील कर देगा।समस्या नई नहीं है। सन 2002 में ही सुप्रीम कोर्ट ने देश में सूखा और बाढ़ सरीखी जल जनित प्राकृतिक आपदाओं और सरकारी नीतियों के बीच बिगड़ते  रिश्तों का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार को निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही देश की प्रमुख नदियों को जोडऩे के लिए आवश्यक कदम उठाए जायें। लेकिन, तमाम कवायदों के बाद भी हम रहे वही ढाक के तीन पात ही।

सच तो यह है कि किसी लोकतांत्रिक देश में यदि नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों के लिए कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़े तो इसके मायने तो यही हैं कि पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। आज पानी से जुड़े सरकारी और गैर सरकारी आंकड़े भी कठिन समय की गवाही दे रहे हैं। विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे हैं कि आने वाले समय में बढ़ती जनसंख्या और पानी की खपत के बीच रिश्ते और खराब होते जाएंगे। दूसरी तरफ बाजार की पानी को लेकर बढ़ती संवेदनशीलतादिनोंदिन बढ़ती जा रही है और पानी को लेकर होने वाली निपनिया राजनीति पानी पर कब्जा करने और उसे सोख जाने के लिए आतुर है।
ऐसे में यह प्रश्न चिंता तो देता ही है कि किस तरह हम अपने जल, जमीन और जीवन को बचा ले पाएं। न केवल बचा लें, बल्कि उसे भविष्य की पीढिय़ों के लिए सुरक्षित सहेज भी लें। अब यह जरूरी लगने लगा है कि जल्दी ही सरहदों के आर-पार पानी-सहयोग-संधिपर बात होनी चाहिए और उसे मूर्त रूप देने में देर नहीं करनी चाहिए। भले ही ये सरहदें अपने प्रदेशों के बीच की हों या फिर पड़ोसी देशों के बीच हों। वास्तव में हमारा यह समय वाटर फ्रेंडशिपको बढ़ावा देने और उसे लगातार मजबूत करने का है। दूसरी कवायद जन जागरूकता लाकर ऐसे सामाजिक दबाव समूहबनाने की है, जो नित नए पैदा हो रहे जल अधिपतियोंके खिलाफ नागरिक नाकेबंदीकरके उनकी दबंगई को खारिज कर दें। सही मायनों में तभी हम जल, जमीन और जीवन को बाजार के कब्जे में जाने से भी रोक पाएंगे।
कुछ अहम प्रयास सरकार की ओर से किये जाने भी जरूरी हैं। वास्तव में पानी के स्रोतों के सूखने, नष्ट होने या फिर नए स्रोतों की खोज और निर्माण न होने का कारण सरकारों की ओर से बरती जा रही लापरवाही का ही नतीजा हैं। सरकार के पास जल नीति तो है, लेकिन पानी के बेजा इस्तेमाल, अवैध दोहन, खपत की बढ़ती रफ्तार पर कमान कसने के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं हैं। लिहाजा हमारे जीवन का आधार कहे जाने वाला पानी अराजकता का शिकार हो गया है। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि किस तरह लोगों को जोडक़र पानी के स्रोतों को बचाने और उन्हें समृद्ध करने के प्रयास जारी रहें। वैसे केन्द्र सरकार ने  2012 की नेशनल वाटर पॉलिसी में एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धनकी बात कही है, लेकिन यह बिना जन जागरूकता और जन सहभागिता के असंभव ही है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी यह नहीं जानता कि जिस पानी को वह बेकार बह जाने दे रहा है, वह उसके जीवन का पर्याय है। उसका भोजन, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवेश, उसका पर्यावरण .. .. ..सब कुछ बिना पानी के क्षण भर भी ठहर नहीं सकता।