रविवार, दिसंबर 30

आज सडक़ों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख



साल के अंतिम दिन कवि दुष्यंत की ये पंक्तियां दोहरा लेने का मन कर रहा है- आज सडक़ों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घर अंधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख। राख, कितनी राख है चारों तरफ बिखरी हुई, राख में चिनगारियां ही देख, अंगारे न देख।
बहुत कठिन समय बिताते हुए हम सब नए साल में प्रवेश कर रहे हैं। सन दो हजार बारह कई मायनों में संघर्षों का साल रहा। हमने कई-कई लड़ाइयां लड़ीं और हार-जीत के समीकरण से जूझते रहे। हमारी खुशियों ने हमारा साथ छोड़ा, पर हम खुश थे कि हम चुप नहीं हैं और आवाज बुलंद कर रहे हैं। हमारे हिस्से के सुख और अधिकार सत्तासीनों ने हड़प लिए,पर हम खुश थे कि हम चुप नहीं हैं और आवाज बुलंद कर रहे हैं। हमारे अपने समाज की अस्मत खतरे में आती रही, पर हम खुश थे कि हम चुप नहीं हैं और आवाज बुलंद कर रहे हैं। सत्ता को ललकारने और सत्ता पाने के खेल में हमारा इस्तेमाल होता रहा,पर हम खुश थे कि हम चुप नहीं हैं और आवाज बुलंद कर रहे हैं। .... आवाज बुलंदी के इस खेल में कब हमारी आवाज नक्कार खाने की तूती समझ ली गई, हम समझ ही न पाए। हम आवाज बुलंद करते रह गए और खेल खत्म करके दूसरे खेल के शुरू होने की घोषणा कर दी गई और हम ठगे से मुट्ठियों को हवा में लहराते रह गए। हमारे खुद के होने को बेमानी कर दिया गया और मोमबत्तियां जलाकर आंसू बहाने वालों के साथ खड़े हम रोते हुए दिखने लगे। हम यानी साधारण जीवन जीने वाले लोग महज इसी लिए बने हैं क्या? यह सवाल इस साल भी बिना उत्तर पाये ही रह गया।
वास्तव में पीछे मुडक़र देखने पर देश-दुनिया की एक ही तस्वीर उभरकर सामने आती है। सडक़ों पर भीड़ है और जुबान पर सत्ता को धिक्कारते नारे। पुलिस की लाठियां हैं और फूटते आंसू गैस के गोले। सत्ता की बयानबाजी है और सत्ता पाने के लोभ में बिखरते लोग। आवाज उठाते लोग और हाशिये पर जाते अलम्बरदार। हर बार टूट कर बिखरते और फिर खड़े होकर मुठ्ठियां तानते लोग। ऐसे में अगर कुछ शेष है तो बस विडम्बनाओं भरे समय से गुजर कर पकते और पुख्ता होते हम यानी हमसे बनने वाला जनमानस ही तो है जो कुछ आशा बंधाता दिख रहा है। तो आइये हम सब इसी जनमानस का हिस्सा बनकर नए साल सन दो हजार तेरह में प्रवेश कर जाएं। हम रोशनी हैं उन पीढिय़ों के लिए, जो हमारे पीछे बहुत विश्वास के साथ बढ़ती चली आ रही हैं। हम हारे तो तय है कि फिर कई पीढिय़ों के खाते में हम दुश्वारियों का पुलिंदा ही दे जाएंगे। तो अपनी आशाएं बरकरार रखने की आदत को ताजा कीजिए और निकल पडि़ए नई यात्रा पर। नया साल देहरी पर मुस्कराकर नई खुशियों को सहेजने और नई मंजिलें तय करने का आमंत्रण दे रहा है। शुभकामनाएं।