सोमवार, फ़रवरी 22

समानांतर आवाजें भी महत्वपूर्ण होती हैं

कुछ लोग नारे लगा रहे थे। उनके नारों के प्रत्यत्तर में कुछ दूसरे लोग नारे लगाने लगे। दोनों को एक-दूसरे के नारे पसंद नहीं आ रहे थे। एकाएक दोनों के नारे आपस में टकराने लगे। फिर लोग आपसे में टकराने लगे। फिर दोनों तरफ से पहले पत्थर, फिर गोली और फिर बम चलने लगे। अफरा-तफरी मच गयी। लोग भगा दिए गए। नारे, जो जरूरी थे, गायब हो गए। फिर खो से गए। भिंची हुई मुट्ठियां खुल गईं। और, सब कुछ बदल देने वाले नारे किताबों में भी नहीं मिलते अब। सच ही है कि समानांतर आवाजों का समय अपनी बनावट से पहले ही खत्म हो जाया करता है। काश हर समय और हर समाज में यह समझा जा सकता कि समानांतर आवाजें जरूरी होती हैं। और, वहां तो और भी जहां जनतंत्र सांस लेने में गर्व महसूस करता हो।
गुटों में बंटे हमने समानांतर आवाजों की जगह बनाने में हमेशा से कोताही की है। हमने हमेशा से उन्हीं आवाजों को सुनना चाहा है जो हमें बेहतर लगती हैं। समय कोई भी रहा हो, सत्ता कोई भी रही हो, साहित्य और संस्कृति के पैरोकार कोई भी रहे हों, समाज चलाने वाले लोगों की मंशा और मकसद कुछ भी रही हो, सबने अपने-अपने लिहाज से समानांतर आवाजों को दबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हमें जो अपने पक्ष में लगी, उसी आवाज को हमने जरूरी माना और बाकी सबको बेमानी कहकर खारिज करने में तनिक भी देर नहीं लगाई। नतीजा हमारे सामने है। हम ऐसे समय में आन खड़े हैं, जहां कोई किसी को शिद्दत के साथ सुनना ही नहीं चाहता।
वास्तव में हमारे समाज की बनावट में समानांतर आवाजों का बहुत बड़ा यागदान रहा है। समाज बना और लगातार संवरा तो इन्हीं समानांतर गूंजती आवाजों के भरोसे। हमने सांस्कृतिक विविधता का ताना-बाना भी इन्हीं समानांतर आवाजों को आधार बनाकर तैयार किया। हमारी एकेडेमिक सोच और समझ का दायरा इन्हीं समानांतर आवाजों ने तय किया। हम शिक्षा के आलयों में इन्हीं आवाजों के बलबूते बने रह पाए और आगे बढ़ते रहे। लेकिन जब से हमने इन आवाजों का साथ निभाना छोड़ा है, तमाम जरूरी चाजें हमारा साथ छोडऩे लगी हैं। हम भीड़ में भी अकेले रह से गए हैं। जाहिर है कि अकेले होते जाते इस समय में अब लोगों का एक-दूसरे का साथ निभाना मुश्किल होता जा रहा है और यही वजह है कि समाज में बिखराव सा दिखने लगा है।
हां, समानांतर आवाजों के मायने भी बदल चुके हैं। विरोध के लिए विरोध करना परम्परा और संस्कृति का रूप लेने लगा है। विरोध का तर्क से रिश्ता खत्म सा है। अब केवल सामने वाले को नीचा दिखाने या फिर उसे और उसकी सोच को खारिज करने के लिए आवाजें की जा रही है। यह जानते-बूझते हुए कि ऐसी आवाजें समानांतर आवाजों का श्रेणी में नहीं आती, उन्हें समानांतर कहकर बुलंद किया जा रहा है। और अगर ऐसी तमाम आवाजें अपने मायने खो दे रही हैं तो फिर उस पर बहस कैसी? जरूरत है कि समानांतर आवाजों के मायने और समाज में उनकी जरूरत को समझा जाये और अपने समय में मौजूद तमाम पीढिय़ों को समझाया भी जाये।