सोमवार, अप्रैल 18

मिशन, परमिशन और कमीशन

लोकतंत्र के चौथे खंभे के दरकने की आवाज तो आपने भी सुनी होगी। आवाज इतनी तेज और डरावनी थी कि देश का हर जागरुक नागरिक चौंक गया। चौंकता भी क्यों न, आखिर दरकने की यह तेज आवाज उस खंभे से आयी थी जिस पर उसका सबसे अधिक भरोसा था। यह सही है कि यह खंभा अपने अस्तित्व में आने के बाद से 'मिशन', 'परमिशन' और 'कमीशन' के दौर से गुजरता हुआ कई बार दरका, लेकिन इस बार इसने सभी को डरा दिया। डर तो खुद यह संभा भी गया है। बेचारे वे मीडियाकर्मी अब क्या करें जिन्होंने 'पेड न्यूज' के विपक्ष में 'खिलाफत आंदोलन' चला रखा था। एकाएक इन सबके सामने मीडिया के कई 'इलीट' कहे जाने वाले अलम्बरदार इस घराने का राग अलापने वालों में शामिल हैं और यही बात न केवल डरा रही है, बल्कि पूरे के पूरे खंभे पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दे रही है। आजादी के 64 साल बाद अगर आपको यह पढ़ने-सुनने को मिले कि 'भारत में गणतंत्र अब बिकाऊ है। इसकी नीलामी में बोली लगाने वालों में शामिल हैं देश के चुनिंदा शक्तिशाली लोग, कार्पोरेट घराने, लॉबीस्ट, नौकरशाह और पत्रकार....' तो आपको डर नहीं लगेगा। यहाँ उन जुगलबंदियों पर निगाह डालना जरूरी है, जिन्होंने यह डर पैदा किया है और वे हैं- कार्पोरेट घराने और मीडिया तथा लॉबिस्ट और मीडिया। हाँ, यह बात अलग है कि राडिया घराने के पत्रकार खुद को 'लॉबिस्ट' कहे जाने या इस शब्द के साथ जोड़े जाने पर विरोध जता रहे हैं। पहले बात कार्पोरेट मीडिया की। शायद आपमें से कई लोगों को वह दिन याद होगा कि जब पूर्व संचार मंत्री सुखराम के घर से बोरियों में भरे नोट मिले थे और तब के इकलौते टीवी समाचार बुलेटिन के प्रस्तुतकर्ता जाने-माने पत्रकार एस.पी. सिंह ने उसे इस तरह जनता तक पहुँचाने का काम किया था, मानों वे भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी मिशन में जुट गये हों। इसी के बरक्स अगर हाल के दिनों की कुछ टीवी खबरों को याद करें तो हमें दिखेगा कभी अंबानी का घर या फिर डी एल एफ के मालिकों के कारों का काफिला। वास्तव में राडिया प्रकरण के बाद से जो तथ्य सामने आये हैं उनसे यह तो तय हो जाता है कि देश की राजधानी में सत्ता की चकाचौंध में कार्पोरेट कम्युनिकेशन का बाजार फल-फूल रहा है। एक ऐसी मीडिया मंडी तैयार कर दी गई है, जिसमें नये-पुराने कई मीडियाकर्मियों को अपनी बैतरणी पार होती दिखने लगी है। अब एक बात पर गौर कीजिए कि एक राडिया जब इतना बड़ा 'हंगामा' सामने ला सकती हैं तो बाकी तो अभी और भी होंगी। दूसरी ओर जैसे ही 'इलीट' कहे जाने वाले कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडियाकर्मियों को 'लॉबिस्ट' कहा गया, वैसे ही इस खेमे में चिल्ल-पों मचनी शुरू हो गईं। 'राडिया टेप' को यदि सही माने तो इसमें साफ-साफ सुनाई देता है कि 'जनाब' लॉबीइंग कर रहे हैं या फिर करने का आश्वासन दे रहे हैं तो फिर नकारने की रणनीति अपनाकर अपनी और अधिक छीछालेदर कराने से क्या फायदा। वैसे इतिहास गवाह है कि सत्ता और मीडिया की जुगलबंदी जब से शुरू हुई तभी से 'मीडिया तमाशों' की बाढ़ सी आ गई है। हमारे सम्पादकों और 'बड़े पत्रकारों' ने हमेशा यही सिखाया कि भाई, व्यवस्था के खिलाफ रहोगे तो जनता के पास रहोगे। अब के तथाकथित बड़े पत्रकार कहते हैं कि व्यवस्था के भीतर जितना घुसते जाओगे उतना ही फायदा उठाते जाओगे और शायद यही वजह है कि इस तरह तेज आवाज करके चौथा खंभा दरका तो पत्रकारिता के पास रहने वाली और अपने हिस्से की खबर का इंतजार करने वाली जनता सहम सी गई। वैसे हमारे संग-संग चल रहे ये दिन लोकतंत्र के हर खंभे के दरकने पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई थी, जैसी 'चौथे खंभे' के दरकने पर दिखाई है। सवाल तो यह भी किया जा रहा है कि चौथा खंभा है कहाँ ? है भी या नहीं। यह तो सच है कि मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खंभे की उपमा आपातकाल के दौरान और उसके बाद की उसकी भूमिका पर दी गई थी। तब से लेकर अब तक इस खंभे ने खुद को बचाने के कई प्रयास किये, लेकिन इसका दरकना जारी ही रहा। लासेन ब्रदर्स, कुंवर नारायण, रोमेश शर्मा आदि से जुड़े जो भी भंडाफोड़ हुए उनमें कई-कई पत्रकारों के नाम आते रहे। इनमें से कई बड़े मीडिया घरानों में काम कर रहे थे और उनका नाम देश में जाना-पहचाना था। एक बड़े पत्रकार की इस बात में दम है कि तब के खुलासों में पत्रकारों के खिलाफ सबूत नहीं मिले थे, लेकिन राडिया भंडाफोड़ में पत्रकारों के खिलाफ ठोस सबूत हैं। अब इस बात का तो कोई जवाब नहीं है कि 'राजा' गिरफ्तार हो जाता है, लेकिन 'राडिया' नहीं। राडिया के खिलाफ सबूत नहीं मिले। जब राडिया बचेगी तो राडिया घराने के सभी बचेंगे। चलते-चलते एक टिप्पणी अपने समय के मीडिया के चाल-चलन पर। हमारा समय ब्रैण्डिंग का है। सत्ता और कार्पोरेट के चाल-चलन के साथ सुर में सुर मिलाता मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस पत्रकारिता एथिक्स को गढ़ रहा है उसे बाजार की चकाचौंध में मुनाफा कमाने का एथिक्स कहा जाये तो गलत नहीं होगा। कुछ वर्षों पहले कुछ पत्रकारों ने मीडिया-मनी और मसल के गठजोड़ पर आपत्ति जताई थी, तब नये समय में मीडिया के विस्तार के लिए पूंजी और मुनाफे की बात करके इस आपत्ति को दरकिनार कर दिया गया। हाल ही में 'पेड न्यूज' पर बहस शुरू हुई। पहले लुक-छिप कर होने वाला यह कार्य जब खुल्लमखुल्ला कई मीडिया घरानों की नीति में शामिल हो गया तो इसके पक्ष में लाबीइंग करने वाले भी सामने आ गये। अब लाबीइंग का पूरा का पूरा 'राडिया घराना' ही हमारे सामने है और इसके पक्ष में भी लाबीइंग की जा रही है। कुछ सवाल जनता के भी। क्या मीडिया से आम आदमी के रुखसती के दिन आ गये ? क्या अब हमारे हिस्से की खबर जांबाजी के साथ कोई सामने नहीं ला सकेगा ? और क्या पत्रकार नहीं लॉबिस्ट मिला करेंगे ? आदि-आदि। पुराने दिन गवाह हैं कि मीडिया ने समय में बदलाव और तकनीकी विकास के साथ अपने को बनाये रखने की मुहिम कभी नहीं छोड़ी है। एक वरिष्ठ पत्रकार जब यह कहते हैं कि सुखराम को आज की पीढ़ी नहीं जानती। आने वाली पीढ़ी राजा और कालमाड़ी और कई ऐसों को भूल जायेगी। लेकिन, पराड़कर राजेन्द्र माथुर, प्रभास जोशी, बी जी वर्गीज जैसे पत्रकार हमेशा याद रखे जायेंगे, जिनके एशेंस पीढ़ी दर पीढ़ी अपने समय के पत्रकारों में मिल जाते हैं।

(माया, नई दिल्ली, में प्रकाशित)