रविवार, अक्तूबर 5

ओह,लाल बत्ती पर रुकने लगा है शहर!


कुछ दिनों पहले एक इलाहाबादी साहित्यकार के हाथ में स्मार्ट फोन देखकर बैचेनी बढ़ी थी। लगा था कि अब छपे हुए शब्दों पर आस्थाएं मूल स्थान पर से ही डिगने लगेंगी। स्मार्ट फोन के मायने ही हैं कि आपके पास नए जमाने के ऐसे ‘एप्स’ आ जाते हैं कि आप महज ‘सेल्फी’ पर विश्वास करके ‘सेल्फिश’ होने की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हाला कि इलाहाबादी शब्दकोश में इन सेल्फी और सेल्फिश जैसे शब्दों का कोई स्थान ही नहीं है और न ही इन जैसे शब्दों के मायने तलाशने और पाने की जरूरत ही महसूस की जाती है, लेकिन स्मार्ट फोन के संक्रमण का क्या भरोसा। अच्छे भले इलाहाबादी साहित्यकार को बदल दे तो कोई आश्चर्य नहीं। वैसे धक्का तो तब लगा जब मांने उन साहित्यकार को एक महिला रचनाकार के बगल में खड़े होकर सेल्फी खींचते देख लिया। कई दिनों तक सोचता रहा कि क्या अपना इलाहाबाद भी बदलाव की बयार के संग बह चला है क्या?
अभी इस सेल्फिश ख्याल से बाहर आ पाता कि अमरीका से खबर आई कि अपना इलाहाबाद भी स्मार्ट होने जा रहा है। मुआ ‘स्मार्ट’ शब्द एक बार फिर हमारे सामने था। अब आप ही सोचिए कि जो आदमी एक इलाहाबादी के पास स्मार्ट फोन से अपने इलाहाबाद में बदलाव की बयार बहते देख घबरा रहा हो, उसे समूचे शहर के स्मार्ट होने की खबर मिल जाए तो क्या हो। बहुत साल पहले दिल्ली बसने का ख्याल आया था। गया भी। लेकिन, भागती-दौड़ती दिल्ली में खुद को फिट न कर पाने पर यह कहकर वापस हो लिया था कि हम जैसे इलाहाबादियों के लिए यह शहर नहीं है। कुछ ज्यादा ही ‘स्मार्ट’ लोग रहते हैं यहां। अब देखिए उसी इलाहाबाद को ‘स्मार्ट’ बनाने पर आमादा हो गए हैं लोग। अरे जरा सोचिए कि कहीं यह हमारी इलाहाबादियत को छीनने की साजिश तो नहीं? स्मार्ट-स्मार्ट कहकर इन्होंने कई शहरों को फेसबुकिया टाइप के शहरों में तब्दील कर दिया है। बस मैसेजों में सिमटी रिश्तेदारी और कुछ लाइक्स में सिमटकर रह गई दोस्तियां। बड़े- बुजुर्गों की नजर में स्मार्टनेस तो अपना काम-काज समय से और बढिय़ा से कर लेने से ही आ जाती था और किसी टेक्नोलॉजी में क्या दम जो किसी शहर को स्मार्ट बना सके। लेकिन अब कौन इसे मान रहा है। अमरीका से खबर आई है तो लोगों को विश्वास करना पड़ रहा है। इसी बीच मैं जापानी शहर क्योटो की तरह होने जा रहे अपने सहोदर शहर बनारस भी हो आया। ढलुआ रिक्शे पर बैठकर यह विश्वास हो ही नहीं पाया कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान टेलीविजन में दिख रहे क्योटो शहर की तरह हमारा बनारस भी हो जाएगा।
आखिर ऐसे कैसे बदल सकते हैं लोगों की बरसों पुरानी रवायतों को और मानसिक ढंाचों को? कैसे कोई शहर अपने होने को झुठलाकर दूसरे शहर की नकल बन सकता है? बन क्यों नहीं सकता। जब अपना इलाहाबाद सारी ऐंठ को दरकिनार कर लाल बत्ती पर खुद-ब-खुद रुकने लगे तो कहा जा सकता है कि बदलते समय में अब वह सबकुछ हो सकता है, जिसकी कल्पना हम नहीं कर पा रहे हैं। हां, यह बदलाव किस हद तक और किस किस्म का होगा, यह अभी से कह पाना मुश्किल है। पहली बार जब लाल बत्ती पर ठिठकते इलाहाबाद को देखा तो डर सा लगा था कि अरे यह क्या हो गया अपने शहर को। न कोई ट्रैफिक पुलिस और न कोई वसूली पर लगा सिपाही। फिरभी शहर क्यों ठिठक कर खड़ा हो गया। कहते हैं कि बदलते समय के साथ जो नहीं बदलता उसे समय हाशिए पर ढकेल कर आगे निकल जाता है। लेकिन इलाहाबाद और बनारस जैसे शहरों ने लाख कोशिशों के बावजूद अपने आप को नहीं बदला और अपने-अपने हिस्से की जीवंतता को बनाए रखने की हर संभव कोशिश की है। शहर के अनियोजित विस्तार ने भले ही शहर की संस्कृति को कुछ हद तक प्रभावित किया हो लेकिन शहर अपनी सारी सरकारी-गैरसरकारी दुरूहताओं को अपनी अलमस्त अदाओं से किनारे ढकेलकर आगे बढ़ता आया है। ऐसे में इसके एकाएक स्मार्ट हो जाने पर शक तो होता ही है।
लाल बत्ती पर कुड़बुड़ाते एक ठेठ इलाहाबादी का यह कहना कि  ‘साले, सब के सब पगलाय गए हैं। अब एका (इलाहाबाद को) दिल्ली बनाय पर तुले हैं। अब इनका कउन समझाय कि ई इलाहाबाद है। बड़े-बड़े तीसमार खां आएं और चले गयें। एका कुछ नय बिगाड़ पायें। देख्यो, चार दिन के बाद ई सब लाइट-लुईट, लाल-हरा सब टांय-टांय फिस्स होय जाई।’ मायने रखता है।  ईश्वर करे....। आमीन।

बुधवार, अक्तूबर 1

मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....


याद कीजिए वे दिन जब हमारे समाज में मनोरंजन और जनसंचार का काम हमारी लोक कलाएं ही किया करती थीं। लोक गीत, लोक कथाएं, लोक नृत्य, लोक आख्यान और लोक चित्र कला, यही वे सब उपक्रम थे, जिनके सहारे हमारे पूर्वज अपने समाज की बनावट और मंजावट का काम किया करते थे। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग इन्हें सहेजने में जुटा हुआ है। यह बात और है कि सरकारी सहयोग और आधुनिक सामाजिक मान्यताओं के उपेक्षात्मक रवैये ने इन्हें हाशिए में रख छोड़ा है और अब इनका हमारे बीच होना मात्र एक अनुष्ठान भर रह गया है।
पिछले दिनों इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन की एक संगोष्ठी में देश भर से आए लोक कलाकारों के बीट उपस्थित होने का मौका मिला। वहां उपस्थित हर कलाकार के पास अपने-अपने दुख थे, जिन्हें वह अपनों के संग बांट लेना चाहता था। इसी संगोष्ठीमें हमें फेडरेशन की ओर से ‘मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....’ शार्षक से एक पत्रक मिला। इस पत्रक में लोक कलाओंं और लोक कलाकरों की दशा का बड़ा ही मार्मिक बखान किया गया है। जो लोग लोक कलाओं और कलाकारों को करीब से जानते हैं उनको इस पत्रक पर सहजता से विश्वास हो जाएगा, लेकिन जिनके लिए लोक कलाएं जीवन और समाज के लिए जरूरी नहीं बल्कि मनोरंजन भर का एक साधन मात्र हैं उन्हें शायद ही इस पत्रक की सच्चाई और पीड़ा पर विश्वास हो सके। मैं ऐसे कई विद्वानों को जानता हूं जो लोक कलाओं के होने और उनकी जरूरतों पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जब उनके हक के लिए आवाज उठाने की बात आती है तो कन्नी काट जाते हैं। जब तमाम विद्वानों का यह हाल है तो फिर आम जन की तो बात ही छोडि़ए। वास्तव में सरकारों ने जो भी योजनाएं ऐसे कलाकारों के लिए बनाई हैं, उनकी मलाई कुछ लोग ही चट कर जाते हैं। इन कलाकारों के हिस्से में इन योजनाओं का कुछ सुख ही हाथ आ पाता है। मैं यह नहीं कहता कि विद्वानों के द्वारा लोक कलाओं पर शोध कार्य नहीं होना चाहिए, लेकिन साथ ही साथ इन लोक कलाकारों को प्रस्तुतियों की बारम्बारता और बेहतर मानदेय तो मिलना ही चाहिए।
बहरहाल इन लोक कलाकारों की आवाज बनने का बीड़ा  इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन ने उठाया है। इसका फैलाव बहुत कम समय में ही देश भर में हो चुका है और यह अपनी संगोष्ठियों व अन्य प्रस्तुतियों व आयोजनों के माध्यम से लोगों में इन कलाओं और कलाकारों के प्रति लोगों व सरकारों को जगाने का कम कर रहा है। फेडरेशन की मांगों में लोक कलाकारों की गणना, इन्हें राष्ट्रीय धरोहर घोषित करना, लोक कलाकारों के लिए वैकल्पिक आयवृद्धि योजना, स्वास्थ्य बीमा, 70 बरस से ऊपर के कलाकारों को पेंशन, कलाओ ंकी नियमित प्रस्तुतियों की व्यवस्था व उचित मानदेय की व्यवस्था करना शामिल है। फेडरेशन ने राष्ट्रीय लोक कला विकास व अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की मांग के साथ-साथ कई अन्य णांगें भी संस्कृति मंत्रालय से की हैं।
सच यही है कि लोक कलाएं पूरे समाज की होती हैं। समाज में रहने वाले समुदाय, जातीय समूह या परिवार इसके जन्म और विकास के लिए जिम्मेदार बनते हैं, लेकिन इन पर किसी का एक का अधिकार नहीं होता। जीवन के हर लमहों जुड़ी लोक कलाएं न केवल पीढिय़ों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन करती है, बल्कि कड़ी मेहनत के बाद राहत देने का काम भी करती हैं। लोक जीवन के अधिक निकट होने के कारण लोक कलाएं और इनके सभी प्रकारों के सम्बन्ध में समाज का हर सदस्य सहजता से जानता है और उसे अपना लेता है। यही नहीं वह अपनी परम्पराओं और जीवन शैली के अनुरूप थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इन लोक कलाओं का सहभागी बन जाता है। ऐसा होने के कारण ही लोक कला में कलाकार और श्रोता या दर्शक का कोई अंतर होता ही नहींं। कलाकार ही श्रोता या दर्शक होता है और दर्शक या श्रोता ही कलाकार। यही वजह है कि लोक कलाओंंके बिना हमारा स्वयं का अस्तित्व भी अधूरा सा ही है। तो क्यों न हम सभी भी इसके लिए उठती आवाजों के सहभागी बनें।