शनिवार, मार्च 24

बैठे-ठाले: वे हमारे फुटकर सुख

बैठे-ठाले: वे हमारे फुटकर सुख

वे हमारे फुटकर सुख




धनंजय चोपड़ा

हम हमेशा ऐसे सुखों के इंतजार में रहते हैं, जिन्हें सेलिब्रेट कर सकें और जब तक ऐसे बड़े-बड़े सुख हमारे अपने खाते में नहीं आते तब तक हम खुद को दुखी लोगों की भीड़ का हिस्सा मानकर दयनीय बने रहते हैं। कभी-कभी दूसरों की सुहानुभूति का पात्र बनकर हम सोचते हैं कि ईश्वर हमपर दया करेगा और हमारे हिस्से का ‘बड़ा सुख’ हमारी झोली में डाल ही देगा। इस सारी कवायद में हम अपने हिस्से के ‘फुटकर सुखों’ को नकारते रहते हैं। शायद अनजाने में या यूं कहें कि लापरवाही में। फुटकर सुख यानी ऐसे सुख, जो छोटे-छोटे होते हैं और छोटी-छोटी खुशियां बांटते हमें अकसर मिल जाया करते हैं।
सच कहूं तो पहली बार फुटकर सुख का अहसास मेरे मित्रों ने कराया। वह मेरा छात्र जीवन था। हम सब एक परीक्षा देने जालंधर में थे। दिनभर की आपाधापी और परीक्षा का तनाव झेल लेने के बाद हम जालंधर की सडक़ों पर तफरी कर रहे थे। हमें बताया गया था कि ‘सूर्य अस्त, जालंधर मस्त’। बस इसी मस्ती का अहसास करने सभी निकले थे। मैं शायद कुछ ज्यादा ही तनाव में था सो उस जिन्दादिल शहर की मस्ती में गाती-चिल्लाती अपनी मित्र मंडली में साथ रहते हुए भी अलग-थलग था। होटल लौटकर सभी संतुष्ट थे कि आज का दिन सुख से बीत गया, सिवाय मेरे। सबको हंसता और यादगार लमहों बात करते देख अनायास मुझे लगा कि मैंने उस सुख से वंचित रहकर ठीक नहीं किया। खैर गलती सुधारने के लिए मुझे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। दूसरे दिन भी घूमने-फिरने का प्रोग्राम था और इस बार मैंने फुटकर में मिले इस सुख का पूरा मजा लिया।
बाद में मेरी आदत सी बन गयी फुटकर सुख बटोर लेने की। कभी ट्रेन के सामान्य डिब्बे में बम्पर भीड़ के साथ सफर करने का सुख उठाया तो कभी बिजली या फोन का बिल जमा करने की लम्बी-लम्बी लाइन में घंटों खड़े रहने का। कभी रात के अंधेरे में सुनसान सडक़ पर जोर-जोर चिल्लाने का तो कभी किसी बड़े की डाट सुनकर चुप रह जाने का। कभी बरसात के दिनों में जान-बूझकर रेनकोट आफिस में भूलकर जमकर भीग जाने का तो कभी सडक़ में भरे बरसाती पानी में किसी के छपाक से गिर जाने का और फिर दौडक़र उसे उठाने का। कभी किसी बच्चे को हंसा देने की कोशिश करने का तो कभी किसी सुन्दर चेहरे को मुस्कुराकर देखने के बाद उसकी ‘स्माइल’ का इंतजार करने का। कभी स्कूटर छोड़ रिक्शे पर बैठकर आराम से चारों तरफ देखते हुए लोगों की नमस्ते और मुस्कुराहटों का जवाब देने का तो कभी सिटी बस में घंटों सफर करने का। कभी किसी बुजुर्ग का हाथ पकडक़र रास्ता पार करा देने का तो कभी बस छूट जाने से परेशान बच्चे को स्कूल पहुंचा देने का । कभी सडक़ किनारे भुट्टा खाने का तो कभी ठेले से मुफ्त की मूंगफली उठाकर खा लेने का सुख। .. ..ठेर सारे ऐसे ही और भी सुख हैं, जो फुटकर सुख की श्रेणी में आते हैं और जिनका अहसास करना हमारे लिए बहुत जरूरी होता है।
मीडिया में काम करते हुए कई बार मुझे इन्ही फुटकर सुखों से खबरें भी मिलीं और उन्हें मेरे पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। मुझे याद है कि एक बार मैंने ट्रेन के जर्नल डिब्बे में सफर करने की लाइव कमेंट्री लिखी थी और पाठकों के ढेर सारे खत यह कहते हुए दफ्तर पहुंचे थे कि जो कुछ हम भोगते हैं उसे पढक़र मजा आया और इसी बहाने अपनी सोच को बदलने का मौका भी मिल गया। सच कहूं तो उन्हीं दिनों मुझे इन फुटकर सुखों की ताकत का भी अहसास हुआ। हम ट्रेन के डिब्बे में भीड़ या फिर किसी काउंटर पर लगी लम्बी लाइन को देखकर, अनायास होने वाली बारिश या फिर सडक़ पर हुए जलजमाव को देखकर या फिर ऐसी ही किसी बात पर घबड़ा जाते हैं या फिर भडक़ जाते हैं। लेकिन उनमें छिपे फुटकर सुखों को खोज निकालें और उनका लुत्फ उठायें तो बात ही कुछ और हो जाती है। सुख और दुख दोनों ही हमारे साथ-साथ अपनी-अपनी जिन्दगी पूरी करते हैं। यह तो हमारे ऊपर होता है कि हम अपने बेहतर समय के सुखों के साथ-साथ दुख देने वाले लमहों में फुटकर सुखों को खोज लें और भरपूर जिन्दगी जियें। .. .. जिन्दगी मिलेगी न दोबारा।
                 






शुक्रवार, मार्च 23

अपने समय का एक बड़ा सच हैं अमरकांत


 अपने समय को समझना और फिर उसे रचनाओं में उकेर देना का काम करने वाले शब्द शिल्पी अमरकांत को कल ज्ञानपीठ से सम्मानित किया जाना  साहित्य जगत के लिए ही नहीं बल्कि हिन्दी जगत के लिए बड़ा अवसर है। अमरकांत उन गिने-चुने रचनाकारों में से हैं जो अपने समय को बखूबी जीते हैं, उसमें रम जाते हैं, उसकी मिठास, उसकी कड़ुवाहट, उठा-पटक और उससे मुठभेड़ का अनुभव लेते हैं और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिंदगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी और इन्हीं हथियारों जैसी कालजई कृतियां रच डालते हैं। वे अपने जीवन के तमाम तरह के संघर्षों से जुझते हुए तो मिलते हैं, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन नहीं मिलती। वे हर हाल में जोश के साथ मिलते हैं और हर किसी में आत्मविश्वास और उत्साह भर देते हैं।
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वह अमरकांत ही हैं। आजादी की लड़ाई के दिनों से ही बेबाकपन अपनाकर अपनी जिंदगी की राहों को तय करके निकल पडऩे वाले अमरकांत भोगे हुए सच पर कलम चलाते गये और हिन्दी पट्टी की चेतना के प्रतीक बन गये। यही वजह है कि उनकी कहानियां अद्भुद कलात्मकता के कारण कई-कई पीढिय़ों की आवाज बनकर समाज के साथ-साथ बनी हुई हैं। ‘बस्ती’ कहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आई हताशा से साक्षात्कार कराती है। ‘डिप्टी कलक्टरी’ अपने समय के सच को बखान तो करती है, लेकिन उसके बाद बी हर समय का प्रतिनिधित्व करती मिलती है। गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां भी इसी कसौटी पर खरी उतरती हैं।
अमरकांत को पढ़ते हुए इस बात का अहसास सहजता से हो जाता है कि वे आशा और निराशा के बीच घड़ी के पेण्डुलम की तरह झूलते भारतीय समाज को बखूबी समझते हैं और शायद यही वजह है कि वे व्यंग्य की मार से सबकुछ दुरुस्त कर लेने की कोशिश नहीं छोड़ते। भले ही अमरकांत सामाजिक उठापटक से खुद को तटस्थ रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रूपताओं के खिलाफ चीख-चीख कर अलख जगाने में जुटी रहती हैं। पेश से पत्रकार होना उनके लिए जरूरी सा लगता है। ज्यादातर रचनाएं यह सिद्ध भी कर देती हैं कि वे मूलत: पत्रकार ही हैं। वास्तव में अमरकांत जिस अंदाज में बात कहते हैं, वह एक अलग तरह का आभास देता है। इस अंदाज को अमरकांत शैली कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वे अपने पास बैठे हर किसी को यह अहसास ही नहीं होने देते के वह अपने समय के किसी बड़े रचनाकार के पास बैठा है। वैसे भी अमरकांत को अपने पीछे की कई-कई पीढिय़ों को तैयार करने का श्रेय दिया जाये तो गलत नहीं होगा। वे इतने आत्मीय और सहज हैं कि हर छोटा-बड़ा रचनाकार उनसे बहुत कुछ पा लेने में सफल हो ही जाता है। अब तक साहित्य अकदमी सहित कई बड़े सम्मानों को प्राप्त कर चुके अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते देखना अपने समय की हर पीढ़ी के लिए बड़ी साहित्यक उपलब्धि होगी।


और जब उन्हें ‘सेवक’ उपाधि मिली 
बात १९८८ की है। सामाजिक-साहित्यिक संस्था ‘समाज सेवा सदन’ अपनी दसवीं वर्षगांठ मना रही थी। संस्था में सभी पदाधिकारी युवा ही थे। मैं भी उसमें शामिल था। तय हुआ कि अपने अपने क्षेत्र में विशेष योगदान देने वालों को ‘सेवक’ उपाधि से सम्मानित किया जायेगा। साहित्य के लिए अमरकांत का नाम तय हुआ। डर यह था कि वे इसे स्वीकार करेंगे या नहीं। अमरकांत जी उन दिनों बीमार चल रहे थे। हम सब उनके घर पहुंचे और उनसे सम्मान लेने का आग्रह किया। वे सहज ही तैयार हो गये और हमें बेहतर काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया। उन्हें सेवक उपाधि का सम्मान पत्र देते समय ऐसा लग रहा था कि हम सब सम्मानित हो रहे हैं। ...और यही सच भी था।

फेस बुक पर अमरकांत
फेसबुक पर जैसे ही पोस्ट लिखा कि अपने समय के बड़े रचनाकार अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने का दिन आ गया है, वैसे ही ढेर सारे लोगों ने कुछ ही पलों में उसे लाइक करने और कमेंट लिखने की होड़ मचा दी। अनायास ही हमारे सामने वह सच था, जिस हम हमेशा यह कहकर नकारते आ रहे थे कि देश के युवाओं में अपनी भाषा के साहित्य और साहित्यकारों के प्रति लगाव ही नहीं रहा है। वास्तव में इंटरनेट पर फेसबुकिंग करते युवाओं से इस तरह की उम्मीद ही नहीं की जाती कि वे साहित्य के प्रति लगाव भी रखते हैं, जबकि सच्चाई यह है ्क लगभग सभी युवा रचनारा इन दिनों सोशल नेटवर्किंग के सहार देश-दुनिया के लोगों से जुड़े हुए हैं।




खबरिया चैनल का टाम एण्ड जेरी शो चालू है


छह मार्च,दो हजार बारह। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में हुए विधानसभा चुनावों के बाद मतगणना का दिन। सुबह के आठ बजे मतगणना प्रारम्भ होनी थी। टीवी पर खबरिया चैनलों ने अपने-अपने ‘चैनल फ्रेण्डली’ विशेषज्ञों को स्टूडियो में बैठा लिया था। स्क्रीन पर हर प्रदेश के लिए रुझान दर्शाने वाले मीटर लगा दिये गये थे। चुनावी जुगालियों का दौर सुबह होते ही शुरू हो चुका था। विशेषज्ञों को बार-बार कयास लगाने के लिए पे्ररित किया जा रहा था। कुछ विशेषज्ञ तो बार-बार की चैनलिया कोशिशों को नाकाम कर दे रहे थे, लेकिन कई बच नहीं पा रहे थे और गड-मड सा कयास लगा ही दे रहे थे।
सुबह के आठ बजते ही एकाएक एंकरों की भाषा बदल गयी। एक अजीब सी होड़ में लोग शामिल हो गये। कुछ ही मिनटों में रुझान के आंकड़े तरह-तरह से बने-ठने मीटरों पर दिखने लगे। एक चैनल ने इस होड़ में शुरुआती बढ़त ले ली और वह लगातार बढ़ता ही गया। टीआरपी गणित के पण्डितों ने जैसे ही सूचना दी कि रुझान बताने की होड़ में फलां चैनल आगे निकल रहा है तो एक दूसरे बड़े चैनल के इलीट कहे जाने वाले एंकर ने बिना उस चैनल का नाम लिए जनता को अगाह करना शुरू कर दिया गया। वह एंकर न जाने क्या-क्या कहता गया और पत्रकारिता के एथिक्स की दुहाई दे-दे कर एथिक्स की ऐसी-तैसी कर डाली। वास्तव में ये एंकर महाशय लगभग गरियाते हुए कहे जा रहे थे कि कुछ चैनल गलत आंकड़े दिखा रहे हैं, उस पर विश्वास मत करिये, केवल हमारा चैनल ही सही आंकड़े दिखा रहा है, हम चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़े दिखा रहे हैं और वह फर्जी आंकड़े दिखा रहा है, वगैरह-वगैरह। दूसरी ओर वह चैनल अपनी स्क्रीन पर लगे रुझान बताने वाले मीटर में बढ़त लेता रहा और दावा करता रहा कि उसके रिपोर्टर स्थान-स्थान पर बने हुए हैं और मौके से खबर दे रहे हैं। यही वजह है कि उसके आंकड़े अन्य चैनलों के आंकड़ों से बहुत आगे हैं।  इस चैनल का एंकर विजयी होने के दंभ में लगातार आगे रहने की बात कहता रहा। ‘टाम एण्ड जेरी’ सरीखे  इस खेल का दर्शक तो आनंद ले ही रहा था, कई विशेषज्ञ भी मजा लेने से नहीं चूके। बहरहाल यह तो कहा ही जा सकता है कि खबरिया चैनलों के इतिहास में यह पहला मौका था जब सीधे प्रसारण के दौरान एक टीवी एंकर लगातार दूसरे खबरिया चैनलों पर विश्वास न करने की गुजारिश करते हुए अपनी बिरादरी के लोगों को झूठा कहने पर मजबूर होता रहा।
मतगणना के दौरान जब वह टीवी एंकर दूसरे चैनल को झूठा और मीडिया एथिक्स के खिलाफ बता रहा था तो एक बात लगातार दिमाग में आ रही थी कि क्या इलेक्ट्रानिक माडिया के लिए इस तरह की कोई एथिक्स है और अगर है तो क्या उसका पालन शिद्दत के साथ किया जाता है? अपनी-अपनी ठपली और अपना-अपना राग अलापने वाले खबरिया चैनलों के निरंकुश रवैये पर तो प्रेस कौंसिल आफ इण्डिया के वर्तमान अध्यक्ष भी गरमा-गरम बयान दे चुके हैं। खबरिया चैनलों के अपने ‘न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन’ द्वारा घोषित नीति संहिता और प्रसारण मानक भी बहुत कारगर सिद्ध होते नहीं नजर आते हैं। इस एसोसिएशन की घोषित संहिताओं में साफ कहा गया है कि ‘इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े पेशेवर पत्रकारों को यह स्वीकार करना चाहिये और समझना चाहिये कि वे जनता के विश्वास के पहरुए यानी पहरेदार हैं।’ इन्हीं संहिताओं में यह भी लिखा गया है कि ‘लोकतंत्र में खबरों के प्रसारण का बुनियादी उद्देश्य है, लोगों को शिक्षित करना और उन्हें यह बताना कि देश में क्या हो रहा है ताकि देश की जनता महत्वपूर्ण घटनाओं को भली-भांति समझ सके और उनके मुताबिक निष्कर्ष निकाल सके।’ अब जरा सोचिये कि एक टीवी एंकर का यह चिल्लाना कि ‘फलां चैनल झूठ बोल रहा है, उस पर विश्वास मत करिये’ साफ संदेश देता है कि ये खबरिया चैनल लोगों में इतनी भी समझ पैदा नहीं कर पाये हैं कि क्या सही है और क्या गलत। यह भी कहा जा सकता है कि हल्ला मचाने वाले एंकर और उसकी तरह के टीवी पत्रकार अभी भी भारतीय दर्शकों को मूर्ख ही समझते हैं और यह जरूरी समझते हैं कि उन्हें बताना जरूरी है कि वे क्या देखें और क्या नहीं।

और अब बारी है...                                                    
नामवर जी जब बोलते हैं तो कुछ अलग ही बोलते हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में उन्होंने कहा कि अमरकांत को सम्मानित होते देख कर अच्छा लग रहा है। मुझे और अच्छा लगेगा जब इसी तरह शेखर जोशी को भी सम्मानित होते देखूं। और फिर बिना रुकते हुए उन्होंने कहा कि इस शहर में कई लोग हैं जिन्हें मैं सम्मानित होते देखना चाहता हूं। उनमें दूधनाथ भी शामिल हैं। बस फिर तो सबकी निगाहें शेखर जोशी और दूधनाथ सिंह की ओर मुड़ गयी। उस समय दोनों ही नामवर के इस बयान पर मुस्करा रहे थे, अपनी-अपनी मुस्कराहट के अपने-अपने मायनों के साथ।