सोमवार, नवंबर 28

‘मां देखो,ये बादल आए’ के बहाने बाल साहित्य पर बात




बाल दिवस यानी नवम्बर महीने की चौदह तरीख के ठीक एक दिन पहले मेरे हाथ बाल गीतों की पुस्तक ‘मां देखो, ये बादल आए’ लग गई। एक ही सर्रे में सारी कविताए पढ़ गया और सच कहूं तो हर कविता ने बचपन के किसी न किसी दृश्य को ताजा कर दिया। कुछ दृश्य तो ऐसे थे, जिनसे नई पीढ़ी अछूती सी है। वैज्ञानकि डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र द्वारा रचित इन कविताओं में नदी है तो बादल भी। हवा में तैरती पतंगें हैं तो धाराओं को काटकर रास्ता बानाती नाव भी है। चंदा मामा हैं तो घोसला बनाती चिडिय़ा, हाथी और नटखट बंदर भी। रेलगाड़ी है तो गुल्ली डंडा का खेल भी कविताओं में मिल जाता है। हर कविता में निहित गेयता का पुट उसे और भी सम्प्रेषणीय बना देता है। मुम्बई के परिदृश्य प्रकाशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह में पैंतीस कविताएं हैं जो बच्चों को अपने समय, समाज और संस्कृति से जोडऩे का सार्थक प्रयास करती हुई मिलती हैं।
यह कविता संग्रह ऐसे समय आया है, जब प्रकाशकों ने अपने खाते से बच्चों की किताबों को लगभग खारिज सा कर दिया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि बच्चों को किताबें पढऩे के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाने को भी कोई तैयार नहीं है। बच्चों के साहित्य पर कोई गम्भीर विमर्श भी कहीं होता नजर नहीं आ रहा। हां, एक दो पत्रिकाओं ने अवश्य ही हर वर्ष बाल दिवस पर बाल साहित्य पर विशेषांक निकालने की परम्परा निभाने की परम्परा निभाना जारी रखा है, लेकिन वे भी केवल आलोचना और समीक्षाएं ही छाप रहे हैं, बाल साहित्य नहीं। गंभीरता से विचार किया जाए तो हमने अपने पीछे आ रही पीढिय़ों को बनाने और मांजने में शामिल होने वाले साहित्य से उन्हें दूर कर दिया है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हम अपने समाज और संस्कृति के प्रति उतने वफादार नहीं निकले, जितने कि हमारे पुरखे थे। याद कीजिए उस दौर को जब बड़े से बड़ा रचनाकार बच्चों के लिए कुछ न कुछ जरूर लिखता था और प्रकाशक उसे बड़ी ही सहालयित के साथ छापा करते थे। समय बदला और उसके साथ हम भी बदलते चले गए। टेक्नोलाजी के बल पर इतराने वाली मीडिया की चकाचौंध में हम यह समझ ही नहीं सके कि हमारी संस्कृति और सामाजिकता को धता बताया जा रहा है। बंटाधार तो यह हुआ कि हमारा ध्यान समाज के उस तबके यानी उन बच्चों की ओर गया ही नहीं, जो इन परिवर्तनों को ही सच मान रहा था। यह इस लिए भी कि उसके सामने हमारे समाज और संस्कृति का सच था ही नहीं।
फिलहाल अपने समय की भयावह होती जा रही फैंटेसी में किसी अदृश्य दैत्य की उंगली पकडक़र आगे बढ़ते हमारे समय के बच्चे अब हमारे लिए ही चुनौती बनते जा रहे हैं। चुनौती भी ऐसी कि हम सामना करने से या तो कतराएं या फिर जूझते हुए हारने के लिए तैयार रहें, क्योंकि टेक्नोलॉजी ने हमें यानी हमारी और हमसे पहले की पीढिय़ों को आउटडेटेड घोषित कर दिया है। अगर जीतना है तो हमें भी इन पीढिय़ों के संग-संग कदमताल करके आगे बढऩा होगा और उन्हें उनका बचपन का हर लमहा शिद्दत से बिताना सिखाना होगा और इसमें हमारा कोई भरपूर साथ दे सकता है तो वह है हमारा साहित्य। एक बार फिर हमें बच्चों के साहित्य को समृद्ध करने की कवायद करनी होगी और साथ ही बच्चों को साहित्य से जोडऩे की मुहिम चलानी होगी। मैं आशान्वित हूं और इसका कारण है मेरे हाथ लगी पुस्तक ‘मां देखो, ये बादल आए’। मैं इस पुस्तक के रचनाकार और प्रकाशक दोनों को बधाई देता हूं कि उन्होंने इस गाढ़े समय में भी उम्मीद की किरण को जिंदा रखने में हिन्दी समाज की मदद की है। ढेर सारी शुभकामनाएं।