सोमवार, अप्रैल 22

मिशन और मुनाफे की मुठभेड़


धनंजय चोपड़ा
दर्शकों की अटेंशन बेच खाने के खेल पर सरकार ने नजर क्या टेढ़ी की, सारे खबरिया चैनल छाती पीट-पीट कर स्यापा करने लगे हैं। तोहमत लगाई जा रही है कि युरोप की व्यवस्थाओं का नकल करने वाली सरकार अपने देश की परिस्थितियों से वाकिफ नहीं है, जबकि ट्राई यानी टेलीकॉम रेगुलेट्री अथार्टी ऑफ इण्डिया ने एक घंटे में केवल 12 मिनट ही विज्ञापन दिखाने के नियम का प्रस्ताव करके कोई नया कदम नहीं उठाया है, बल्कि पहले से मौजूद व्यवस्था को नए ढंग से रखा है ताकि उस पर अमल किया जा सके। इधर ट्राई का फरमान जारी हुआ उधर तत्काल नेशनल ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन और इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग फाउण्डेशन ने सूचना प्रसारण मंत्री से मिलकर अपना विरोध दर्ज करा दिया। बहरहाल अब बहस चल पड़ी है तो हाशिए पर फेंक दिए गए दर्शकों के बीच से होकर गुजरेगी और पक्ष-विपक्ष के तमाम मुद्दे सामने आएंगे।
वास्तव में ट्राई ने कहा है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय और ब्रॉडकास्टर से इकट्ठे किए गए आंकड़े बताते हैं कि देश के टीवी चैनल, 'केबिल टेलीविजन नेटवक्र्स रूल्स-1994Ó का पालन करने में कोताही बरतते हैं। सच भी यही है कि विज्ञापन दिखाए जाने वाले निर्धारित समय को लेकर लगभग सभी चैनल 1994 में ही अस्तित्व में आ गए नियमों को ठेंगा दिखाकर मुनाफे की होड़ में शामिल हैं। ट्राई ने तो बस इन्हीं नियमों को पालन करने को अनिवार्य बनाने की बात कही है। हो हल्ला मचाने वालों का तर्क है कि 1994 में भारत सरकार ने युरोप में बने नियमों की नकल की थी, लेकिन उसने यह नहीं देखा था कि वहां के टीवी चैनलों की आमदनी के मॉडल और भारत के चैनलों की आमदनी के मॉडल में बहत फर्क है। भारत में चैनलों के अलम्बरदारों का कहना है कि चैनलों के खर्च के लिए विज्ञापनों पर निर्भरता नब्बे प्रतिशत है और सबक्रिप्शन फीस से होने वाली आमदनी नगण्य है। जबकि युरोप के देशों में चैनलों की आमदनी का सत्तर प्रतिशत सबक्रिप्शन फीस से ही आता है। बहरहाल ट्राई का फैसला ऐसे समय में आया है, जब पूरे देश में टेलीविजन नेटवर्क के डिजिटाइजेशन को मुहिम के तौर पर पूरा किया जा रहा है। यह काम लगभग सभी बड़े शहरों में पूरा भी हो चला है। यही वजह है कि ट्राई, ब्रॉडकास्टर्स की दलीलों को औचित्यपूर्ण मानने से कतरा रही है।
वैसे सारा खेल खुद न्यूज चैनलों द्वारा ही चौपट किया गया है। समस्या तो तभी शुरू हो गई थी जब लगभग सभी चैनल आगे निकल जाने और टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए थे। पूंजी और मुनाफे की गणित में दर्शक बेचारा 'उपभोक्ताÓ बन कर रह गया और उसके हिस्से खबरें टीवी स्क्रीन से गायब हो गईं। दर्शकों को बेवजह हंसने पर मजबूर किया जाने लगा या फिर स्क्रीन पर रिएलिटी शो के बहाने इमोशनल ब्लैकमेलिंग का शिकार बनाया जाने लगा। खबरों के लिए तरसते दर्शकों को कभी स्पीड में तो कभी बुलेट की तर्ज पर खबरों का शतक लगाने का हुनर दिखाया जाने लगा। यह अकारण नहीं है कि इधर टेलीविजन न्यूज चैनल खबरों की हॉफ सेंचुरी और फुल सेंचुरी लगाने में मस्त थे और उधर दर्शकों ने अपने पुराने साथी अखबार से जुडऩा ठीक समझा। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछल दस वर्षों में कई अखबारों के नए-नए संस्करण शुरू हुए हैं तो कई अखबारों ने अपने संस्करणों को यहां से निकालना शुरू कर दिया है और करते जा रहे हैं। मजेदार बात तो यह है कि ट्राई के फैसले को गलत ठहराने वाले न्यूज चैनलों के संगठन इसे 'रेगुलेशन ऑफ एडवरटीजमेंटÓ के बहाने 'कंट्रोल ऑफ कण्टेंटÓ की संज्ञा दे रहे हैं। यहां तक कि इसे संविधान में मिले नागरिक अधिकारों का हनन भी बताया जा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी उंगली उठने पर टीवी के अलम्बरदार 'सेल्फ रेगुलेशनÓ की बात करने लगे हैं। इस बात पर न तो किसी को शर्म आ रही है और न ही कोई गम्भीर है कि सेल्फ रेगुलेशन का टोटका अब मजाक बन कर रह गया है।
यह तो कहिए कि भारत में अभी 'कन्ज्यूमर फोरमÓ की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर के  'टेलीविजन दर्शक एसोसिएशनÓ नाम के संगठन नहीं बने हैं, वरना टेलीविजन चैनलों का नाकड़ा बंद कर दिया गया होता। वैसे इस तरह के संगठनों की जरूरत महसूस की जाने लगी है। दर्शकों को बिना अहसास कराए उनकी अटेंशन को बेच खाने वालों पर कहीं न कहीं से अंकुश बनाए रखने की कवायद तो होनी ही चाहिए। हो सकता है कि अपने देश में भी जल्दी ऐसे संगठन बने और फिर चेलीविजन चैनलों के अलम्बरदारों के साथ 'दर्शक खबरदारोंÓ की भी नीति निर्धारकों में शामिल किया जाने लगे। अगर ऐसा होता है तो यह भारतीय मीडिया के लिए नए समय की शुरूआत होगी।      
फिलहाल मुनाफे की होड़ और नकल मारने की भेड़ चाल का शिकार टीवी न्यूज मीडिया पिछले पांच वर्षों में ऐसा कुछ भी नया नहीं कर पाया है, जिसे पत्रकारिता के मिशन की कसौटी पर कसा जा सके। जिस किसी ने भी मिशन की बात की, उसे पुराने जमाने का मानकर हाशिए ढकेल देने में ही भलाई समझी। हर किसी को समझा दिया गया कि इण्डस्ट्री है तो पूंजी लगेगी ही और पूंजी लगी है तो मुनाफे की बात तो सोचनी पड़ेगी। लेकिन मुनाफे के लिए उपभोक्ता को ठगा जाना जरूरी है, यह तो नियम नहीं है। यह शायद मीडिया इण्डस्ट्री में ही होता हो कि उपभोक्ता की सुनने वाला कोई नहीं है। मिशन और मुनाफे में फंसी मीडिया के मानिंद भी इस मसले पर चुप्पी साधे रखने पर ही भलाई समझते हैं।

कोऊ नृप होय, हमें का हानि


गद्दी खाली थी। कई बरसों से खाली थी। परम रानी का शासन था, जिस अपने अलावा कोई और राजा का होना पसंद ही नहीं था। सत्ता बदली। परम रानी गई और परम राजा का शासन आ गया। उधर सत्ता बदली और इधर खाली पड़ी गद्दी पर लोगों की निगाह लग गई। कई की लार टपकने लगी। दावेदारी ठोंकी जाने लगी। परम दरबार में फेरा लगने लगा और दरबारी होने का दावा ठोंका जाने लगा। परम राजा के पास नामों की झड़ी लगी तो एक लम्बी फेहरिस्त ही तैयार हो गई। राजा बनने की होड़ में शामिल लोगों की फेहरिस्त बार-बार दोहराई जा रही थी और हर बार कोई न कोई नया नाम जुड़ जा रहा था। राजा बनाने वाले परम राजा के सामने असमंजस था कि किसे राजा बनाए और किसे नहीं। परम्पराएं और फेहरिस्त का दबाव उसे परेशान किए हुए था। कोई जाति का आधार देकर दावा ठोंक रहा था तो कोई धर्म और भाषा की अल्पसंख्यकता का हवाला देकर दबाव बनाने में लगा हुआ था। एकाएक नया फार्मूला सामने आया और राजा ने उसे तत्काल आयात कर लिया और एक तथाकथित 'बाहरीÓ गद्दीनशीं कर दिया गया। फेहरिस्त में शामिल लोग सीना पीट-पीट कर स्यापा करने लगे।
जब चौबीस नामों वाली फेहरिस्त अखबार वाले छाप रहे थे, तब एकमत होकर किसी एक का नाम देने से गुरेज करने वालों को रोते देख मजा आ रहा है। राजा मस्त है कि आपस में लड़ाई का मजा तो बाहर वाले ही उठाते हैं, सो उसके हिस्से में यह मजा अपने आप ही आ गया। जय हो राजा बनाने वाले की। राजा नई-नई घोषणाएं कर रहा है और स्यापा कमेटी परम राजा के दरबार में गुहार लगाने की जुगत भिड़ा रही है। इतिहास गवाह है कि राजा बनाने के खेल में जो जीता वही सिकंदर चलता है। जनता के दबाव में निर्णय बदलने की परम्परा तो है, लेकिन इसका निर्वहन करने के लिए वर्तमान राजा का कार्यकाल खत्म होने का इंतजार करना पड़ेगा। लोकतंत्र है भाई। अगली बार का इंतजार करें। आपको राजा बदलने का मौका अवश्य मिलेगा।
एक मजेदार बात यह कि 'आग लगाकर जमालो बीबी तमाशा देखेंÓ वाली कहावत चरितार्थ होते दिख गई। अब देखिए न पहले तो साथ देने का वादा किया कुछ बड़ों ने और फिर राजघराने से सम्बन्ध बिगडऩे के डर से वे भाग खड़े हुए। बेचार स्यापा करने वाले जिनकी अगुवाई में लड़ाई लडऩे का मन बना रहे थे, उनके साथ छोड़ देने से सकते में आ गए, लेकिन वाह रे जज्बे, उसने साथ नहीं छोड़ा और मैदान में जंग की गूंज अभी भी सुनाई दे रही है। इधर नए राजा ने भी बड़ी ही चतुराई से कई लोगों को अपने पक्ष में करने की जुगत भिड़ा ली। पिछले राजाओं से जिन्हें कुछ नहीं मिला वे नए राजा की जय-जयकार करने में लग गए। इस उम्मीद पर कि शायद नया राजा अपने गाढ़े समय में उनका साथ पाकर गदगद हो जाए और उन्हें राजा का दरबारी होने का मौका दे दे। बहरहाल अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें राजा के बदलने और न बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब राजा और प्रजा के रिश्तों में मिठास न हो, जब यह पता हो कि राजा उनके लिए कुछ करेगा ही नहीं, जब पता हो कि राजा के पास केवल वही होंगे जो राजा की जय-जय बोलते रहेंगे, जब पता हो कि राजा उनके कर्म का सहभागी नहीं होगा....तो फिर कोऊ नृप होय, हमें का हानि।
बहरहाल जिनका नाम फेहरिस्त में था, वे सब के सब सदमे में हैं कि परम राजा के प्रसादपर्यन्त राज्य मंत्री का दर्जा हासिल करने से वे क्योंकर चूक गए। लाल बत्ती का सुरूर कितना मजेदार होता है, इसका स्वाद चखते-चखते रह गए। नया राजा जो बयान दे रहा है, वह भी कचोट रहा है। नया राजा यह बता रहा है कि उसने कौन-कौन से तीर मारे हैं तब जाकर परम राजा ने उस राजा होने का गौरव दिया है। वह परम राजा के कसीदे पढ़ रहा है और स्यापा करने वाले बिलबिला जा रहे हैं। कसीदे तो वे भी पढ़ सकते थे। यह तो केवल 'मंचीयÓ कसीदे पढ़ रहा है, हम तो किताबों में दर्ज होने लायक 'गंभीरÓ कसीदे पढ़ सकते थे। हाय, फिर हम कैसे चूक गए। अब चूक गए तो चूक गए। बहरहाल बेमानी लड़ाई लडऩे में माहिर लोग भी इस स्यापा कमेटी में शामिल हो गए हैं और अब यह कई बरस तक इस लड़ाई को ढोते रह जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। बहरहाल लड़ाई लडऩे वाले अपने हैं सो उन्हें लड़ाई जीत लेने की ढेर सारी शुभकामनाएं।

'हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर बवाल



धनंजय चोपड़ा
'हिन्दुस्तानी भाषा के लिए काम करने वाली देश की अकेली संस्था हिन्दुस्तानी एकेडेमी को लगभग सात वर्षों बाद अध्यक्ष तो मिल गया, लेकिन एक नए ढंग के बवाल के साथ। लगातार कई बरसों से इलाहाबाद में इस संस्था के लिए अध्यक्ष की मांग करने वाले इलाहाबादी साहित्यकार इस समय गुस्से में हैं कि प्रदेश की सरकार ने उनके अपने बीच के साहित्यकारों को खारिज करते हुए दिल्ली के कवि डा. सुनील जोगी को अध्यक्ष बना दिया है, जबकि परम्परा रही है कि शहर के ही किसी वरिष्ठ साहित्यकार को यह पद दिया जाता रहा है। बहरहाल शहर के साहित्यकारों ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर अपना विरोध सरकार के दरबार में गुंजाने का मन बना लिया है। उधर विरोध को दरकिनार कर जोगी ने पदभार ग्रहण करके सबको मना लेने की बात कही है।
आजादी की लड़ाई के दिनों में जब भाषा को हथियार बनाकर देश के लोगों को एक करने और उन्हें निज भाषा के गौरव के प्रति जागरूक बनाने की मुहिम चल रही थी, तभी 1926 में इस संस्था की स्थापना की गई थी। इस संस्था से राय राजेश्वर बली, यज्ञ नारायण उपाध्याय, सर तेज बहादुर सप्रू, डा. धीरेन्द्र वर्मा, डा. ताराचन्द्र, हाफिज हिदायत हुसैन, बालकृष्ण राव, डा. राम कुमार वर्मा, डा. जगदीश गुप्त, डा. रामकमल राय, प्रो. अकील रिजवी, हरिमोहन मालवीय, कैलाश गौतम आदि साहित्यकार व भाषाविद् किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं,जिनके नेतृत्व में यहां शोध व प्रकाशन के कई महत्वपूर्ण काम होते रहे हैं। पिछली मुलायम  सिंह यादव की सरकार ने भाषाविज्ञानी डा. वाई. पी. सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे दो बरस भी इस पद पर नहीं रह पाए थे कि उन्हें प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का शिकार होना पड़ा। बसपा सरकार के आते ही उन्हें पद से हटा दिया गया और फिर यह पद एक अदद साहित्य व भाषा सेवी के लिए तरसता रह गया। एक बार फिर सपा सरकार के सत्ता में आते ही जब भाषा और साहित्य को समर्पित संस्थाओं में खाली पड़े पदों पर नियुक्तियों का दौर चला तो इलाहाबादी साहित्यकारों का एक तबका पूरे जोर शोर से कई-कई नाम उछालने और उनकी-अपनी पैरवी करने में जुट गया। एक समय तो ऐसा आया कि स्थानीय अखबारों ने तो दर्जन भर लोगों का नाम छाप कर बताया कि इतने लोग अध्यक्ष पद की दौड़ में शामिल हैं। रोचक यह कि इस पद को पाने के लिए जातीय और धार्मिक आरक्षण दिये जाने तक की गुहार लगने लगी।
बहरहाल राज्य मंत्री का दर्जा हासिल इस पद पर सपा सरकार ने इलाहाबादियों की दलीलों और उनकी सुझाई फेहरिस्त को किनारे कर दिल्ली के कवि डा. सुनील जोगी को अध्यक्ष बना दिया है। कवि सम्मेलनों के जान-पहचाने चेहरे रहे डा. जोगी ने विरोध को खारिज करते हुए कहा है कि ''कोई साहित्यकार किसी दूसरे की बराबरी नहीं कर सकता है। लेकिन मेरा भी साहित्य में दखल है। तेरह साल पहले दिल्ली सरकार की हिन्दी एकेडेमी का सहायक सचिव रहा हूं। 75 किताबें लिखीं हैं, जिनमें से दस तो भाषा विज्ञान की ही हैं। हिन्दी से एमए किया है। अवधी भाषा पर पांच वर्ष शोध किया है। कई मंत्रालयों में हिन्दी को लेकर काम किया है। सरकार ने कुछ सोच-समझ कर ही मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी है। मैं सभी से रचनात्मक सहयोग लेकर एकेडेमी चलाना चाहता हूं। ÓÓ
बहरहाल डा. जोगी का विरोध का झंडा बुलंद करने वाले कोई दलील मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि सरकार ने इलाहाबादी साहित्यकारों का अपमान किया है। विरोध करने वालों का कहना है कि सरकार जिसे चाहे उसे नियुक्त करे, यह उसका अधिकार है, लेकिन संस्था की गरिमा का ख्याल करके ही उसके पदों पर नियुक्तियां होनी चाहिए। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर बड़े ख्यातिनाम साहित्यकार और भाषाविद् ही नियुक्त होते रहे हैं। अभी इलाहाबाद में अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, अकील रिजवी सहित कई ऐसे नाम हैं जिन्हें इस पद पर बैठा कर गरिमा को बरकरार रखा जा सकता था। बहरहाल विरोधियों ने अपनी बातों का एक प्रस्ताव बनाकर मुख्यमंत्री को भेजने का मन बनाया है और इसके लिए हस्ताक्षर अभियान भी शुरू कर दिया है। हस्ताक्षर करने वाले प्रारम्भिक लोगों में जनसंस्कृति मंच के प्रो. राजेन्द्र कुमार, जनवादी लेखक संघ के विवेक निराला, प्रगतिशील लेखक संघ के अविनाश मिश्र, अजित पुष्कल, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, प्रो. ए.ए. फातमी, मत्स्येन्द्र नाथ शुक्ल आदि शामिल हैं। बहरहाल वादों और संघों की राजनीति में बंटे इलाहाबादी साहित्यकारों की फौज में से कुछ जोगी के पक्ष में खड़े हो गए हैं। जोगी ने भी कहा है कि इलाहाबाद में उन्हें जानने और पहचानने वाले बहुत हैं, उन्हें साथ लेकर मैं अपना काम प्रारम्भ करूंगा, धीरे-धीरे सब साथ आ जाएंगे। जोगी के इस बयान के पहले अखबारों में कथाकार दूधनाथ सिंह, प्रो. ए.ए. फातमी सहित कई लोगों का का यह बयान छपा था कि वे जोगी न तो जानते हैं और न ही उनका कभी नाम ही सुना है।
अध्यक्ष पद की रार के बीच एकेडेमी के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि इधर कई बरसों से एकेडेमी अपने मूल उद्देश्यों से भटकी हुई है। इस हिन्दी-उर्दू भाषाओं को साथ लेकर चलने वाली संस्था के रूप में प्रचारित करने वाले इसी के आधार पर अपने-अपने लिए पद की मांग करते हैं। जबकि यह संस्था देश की सभी भाषाओं को एक मंच पर लाकर काम करने के उद्देश्य से बनी थी। उत्तर प्रदेश में यही एकमात्र संस्था हैं जो सभी भाषाओं को साथ लेकर कुछ सार्थक कर सकती है। सरकार को इसका अध्यक्ष बनाते समय इसका ध्यान रखना चाहिए था। उन्होंने शोध व प्रकाशन के लिए एकेडेमी को बड़ा बजट देने की मांग भी की है।  बहरहाल अब प्रदेश के  मुख्यमंत्री के दरबार में ही तय होगा कि इलाहाबादी साहित्यकारों की सुनी जाती है या फिर हर विरोध की तरह यह भी टांय-टांय फिस्स हो जाता है।
                                 

चैनलों ने कर दिया खबरों का गैंग रेप


धनंजय चोपड़ा
टेलीविजन खबरिया चैनलों ने एक बार फिर अपनी मेच्योरिटी पर प्रश्नचिन्ह लगवा लिया। सब के सब ठीक उसी तरह की होड़ में शामिल दिखे जिस तरह की अन्ना के आंदोलन के समय। दिल्ली के गैंग रेप काण्ड के बाद कुछ खबरिया चैनलों का रवैया तो इस तरह दिख और समझ में आ रहा था कि लोगों द्वारा किए जा रहे स्वत:सफूर्त आंदोलन के कर्ता-धर्ता वही हैं। यही नहीं टीवी पर जो बेमानी बहसें कराई जा रही थीं, उसे शायद ही कोई समझदार दर्शक देख-सुन रहा होगा। एक अहम मुद्दे को किस तरह बेअसर किया जाता है, यह उन तमाम खबरिया चैनलों ने अपनी बहस के कार्यक्रमों में कर दिखाया। शायद ही किसी चैनल ने इस बात पर गौर करने की जुर्रत की कि देश की राजधानी में निजी परिवहन व्यवस्था पर चोट किस तरह की जा सकती है? किस तरह इस तरह की घटनाओं को दोबारा होने से रोका जा सकता है? न तो किसी 'सरकारी जिम्मेदारÓ को पत्रकारीय अंदाज में घेरने की कोशिश की गई और न ही अहम मुद्दे उठाकर सरकार को मुश्किल में डालने का प्रयास हुआ। भीड़ को दिखाते रहे ताकि लोगों का ध्यान जरूरी मुद्दों की तरफ जाए ही नहीं। सवाल तो यह उठता है कि कहीं इस तरह के खबरिया खेल कार्पोरेटी मीडिया और सत्ता के बीच की नूरा कुश्ती के पर्याय तो नहीं हैं? कहीं इस दौरान लोगों का ध्यान अहम मुद्दों की तरफ जाने से रोकने की कोशिश का हिस्सा तो नहीं? और यदि ऐसा है तो क्या इसे खबरों का गैंगरेप नहीं कहा जाना चाहिए?
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में जो कुछ हुआ वह दरिंदगी की हदों को भी पार करने वाला था। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि युवाओं ने सडक़ों पर उतर कर जिस तरह विरोध प्रदर्शन किया वह जरूरी था। इंकार तो इस बात से भी कोई नहीं कर सकता कि जिन परिवारों की बेटियां घर से बाहर रहकर पढ़ रही हैं या फिर नौकरी कर रही हैं वे टीवी कवरेज और बेमानी बहसों से दहल से गए हैं। बात यह भी सही है कि देश व समाज को सही रास्ते पर चलाने के लिए कड़े कानूनों की जरूरत पड़े तो देर नहीं होनी चाहिए। लेकिन, क्या हमारे खबरिया चैनल इस तरह कोई दबाव सरकार पर बना पाने में सफल हो पाए? शायद नहीं।  महज लगातार एक ही तरह की खबरों को दिखाकर या फिर एक ही तरह की बहसों को दिखा कर पत्रकारीय दायित्वों की पूर्ति हो जाती है। खबरों के मायने ये कब से होने लगे कि आप पड़ताल करने की आदत को ही भूल जाएं। खबरों के मायने तो यह भी नहीं है कि आप 'चूज एण्ड पिकÓ की नीति अपनाएं। कहा तो यह भी जा सकता है कि टीवी खबरों के अलम्बरदारों को अपने मतलब का हप्प और बाकी सब थू करने की कहावत को चरितार्थ करना भाने लगा है। सच तो यही है कि इक्का-दुक्का चैनलों को छोडक़र किसी ने भी दरिंदगी की इस घटना की तहों तक जाने की कोशिश ही नहीं की और केवल आम आदमी की इमोशनल ब्लैकमेलिंग से काम चलाते रहे।
वैसे इस पूरे घटनाक्रम और चैनलों के बचकाने रवैये ने एक बार फिर टेलीविजन चैनलों के लिए नियामक तंत्र बनाने की मांग जोर पकड़ा दी है। ऐसा इसलिए भी कि सेल्फ रेगुलेटिंग का फण्डा इनके लिए उतना कारगर नहीं है जितना कि उसे लेकर चिल्ल-पों मचाया जाता है। अधिकांश खबरिया टीवी चैनल अभी भी यह मानते हैं कि भारतीय दर्शकों का बड़ा हिस्सा आसानी से इमोशनली ब्लैकमेल हो सकता है और उसे खुद से जोडऩे का एक ही तरीका है कि उसे सही मुद्दों और और उसके हिस्से की असल खबरों से दूर रखा जाए। पिछले दिनों एक सर्वे में यह बात सामने आई थी कि टीवी चैनल पत्रकारिता के चार मूल कामों में से तीन को यानी लोगों को सूचना देने, गाइड करने और शिक्षित करने को पूरी तरह भुला चुके हैं। उन्हें बस चौथा काम याद है और वह है लोगों का मनोरंजन करना। वास्तव में खबरों के नाम पर टाइम पास का खेल चलाने में तो कई टेलीवजन खबरिया चैनल पहले से ही माहिर हो चुके हैं और अब जो बचा-खुचा खबरों का हिस्सा था उसके भी गायब होने का सिलसिला शुरू हो चुका है। देखा जाए तो तमाम खबरिया चैनलों को रोज-ब-रोज ऐसे मुद्दों की तलाश रहने लगी है, जिसे वे लगातार जिंदा रख सकें और अपना खबरों के नाम पर टाइम पास करने का उल्लू सीधा करते रहें। बेचार दर्शक खबरों की लालसा लिए एक चैनल से दूसरे चैनल पर निगाहें डालता रह जाता है और उसे असल खबरों की जगह छद्म खबरें या तो बेमानी बहसों के रूप में मिलती हैं या फिर एक ही दृश्य को बार-बार दिखाने के रूप में। ये दृश्य किसी घटना के हो सकते हैं या फिर किसी नामचीन हस्ती के बयान के।
अंत में एक जरूरी सवाल कि क्या टेलीविजन खबरिया चैनल इस बात पर गौर करना चाहेंगे कि प्रिंट मीडिया अपनी स्मृति परम्पराओं का पालन करते हुए किस तरह आज भी लोगों का विश्वास पाए हुए है? सच यह है कि खबरों की असल खुराक आज भी अखबारों और पत्रिकाओं से ही मिल रही है। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि अखबारों ने हर मौके पर दिखाया है कि असल मीडिया वही हैं। यही वजह है कि अखबारों के नए संस्करण सामने आ रहे हैं और पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ चैनलों पर घूस मांगने के आरोप लग रहे हैं और संपादक जेल जा रहे हैं। 'डेफिसिट अंटेंशन थ्योरीÓ को समझना अब हर चैनल के लिए जरूरी है, वरना टेलीविजन से खबरिया चैनलों की अहमियत खत्म होते देर नहीं लगेगी। डर तो यह है कि कहीं टेलीविजन से इनके गायब होने के संदर्भ में 'गधे के सिर  से सींग गायबÓ होने वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए।  ।