सोमवार, जनवरी 17

 

बिरजू महाराज रगों में बहता था प्रयाग

डॉ. धनंजय चोपड़ा

यमुना तट पर स्थित सरस्वती घाट की वह अप्रतिम शाम। त्रिवेणी महोत्सव का भव्य आयोजन । बिरजू महाराज मंच पर आने वाले थे। लोगों में अद्भुत उत्साह था। कथक सम्राट की झलक पाने और उनके नृत्य के भावों से सराबोर हो जाने की आतुरता बढ़ती ही जा रही थी। और...अचानक लोगों के कान में आवाज गूंजी...आए रहे हैं भाई, थोड़ा सबर करो। यह तो अपने बिरजू महाराज की आवाज है, यह समझते लोगों को देर न लगी और फिर तालियों से पूरा वातावरण गूंज उठा। और फिर जब बिरजू महाराज मंच पर आए तो लोग अपलक लय, थाप और भंगिमाओं को अनूठे समन्वय को देखते ही रह गए। उस दिन उन्होंने तब की उत्तर प्रदेश विधानसभा में विधायकों के बीच हुई धक्का-मुक्की और एक-दूसरे पर माईक फेंकने की घटना को मंच पर नृत्य व संगीत के माध्यम से प्रस्तुत करके सभी को आश्चर्य में डाल दिया।

बिरजू महाराज की प्रयोगधर्मिता ही उन्हें सबसे अलग करती थी। वे धड़ल्ले से कह देते- अरे भाई प्रयाग की रवायतें मेरे खून में है। कुछ नया करने की धुन और लोगों को अपनी ओर खींच लेने की ताकत इसी धरती से मिलता है। देखो न, कुंभ में शामिल होने के लिए किस तरह करोड़ों लोग यहां विना किसी निमंत्रण के खिंचे चले आते हैं।  बिरजू महाराज ने कथक नृत्य को अपने समय से जोड़कर प्रस्तुत करके लगातार नए-नए प्रयोग करके एक नई परम्परा को जन्म दिया। वे बताया करते थे कि किस तरह उन्होंने एशियाड 1982 के दौरान कथक के माध्यम से कबड़्डी, रस्साकसी प्रस्तुत करके सभी को रोमांच से भर दिया था। प्रयागराज में तो उन्होंने संगम स्नान को कम्पोज  किया तो लोग अपलक देखते-सुनते ही रह गए।

बिरजू महाराज को हंडिया में स्थित अपने पूर्वजों की ड्योढ़ी बहुत प्रिय थी। वे वहां एक विशाल कथक चबूतरे की कल्पना किया करते थे। वे प्रायः बातचीत के दौरान प्रयागराज-वाराणसी के मध्य शेरशाह सूरी मार्ग पर स्थित हंडिया तहसील का किचकिला गांव की बात करते और अपने पूर्वजों के लखनऊ जाकर नवाबों को कथक सिखाने के बहान कथक परम्परा को आगे बढ़ाने के किस्से सुनाते। वे हसंते हुए कहते- अरे भाई, तुम इस बात से खुश हो सकते हो कि हमारे लखनऊ घराने की विरासत प्रयाग की धरती से जुड़ी हुई है। फिर कहते, देखो कुछ लोग इस बात से चिढ़कर ता-ता, थैया-थैया न करने लगें।

वे अपनी कविता सुनाते और कहते- यह भाव मुझे इसी धरती से मिला लगता है। यह रचनाकारों की धरती रही है। यहां और बनारस आकर जो सुकून मिलता है, वह पूरी दुनिया में नहीं मिलता। वह यह कहने से नहीं चूकते कि उन्हें अपने पिता अच्छन महाराज से ते गति की चपलता मिली है तो अपने एक चाचा शम्भू महाराज से नृत्य करने का जोश और दूसरे चाचा लच्छू महाराज से भावों की कोमलता मिली है। प्रयाग की तरह ही मेरी भी बनावट में त्रिवेणी का ही योगदान है। यहां गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी है तो मेरे भीतर अपने पिता व चाचाओं से मिली चपलता, जोश और मनोभाव की त्रिवेणी बहा करती है। और फिर जोरदार ठहाका लगाते हुए कहते – देख्यो, सिद्ध होय गवा न.... हम, तुमसे कहीं ज्यादा बढ़कर इस शहर के हैं। हमरी रगों में बहता है शहर।