रविवार, अक्तूबर 5

ओह,लाल बत्ती पर रुकने लगा है शहर!


कुछ दिनों पहले एक इलाहाबादी साहित्यकार के हाथ में स्मार्ट फोन देखकर बैचेनी बढ़ी थी। लगा था कि अब छपे हुए शब्दों पर आस्थाएं मूल स्थान पर से ही डिगने लगेंगी। स्मार्ट फोन के मायने ही हैं कि आपके पास नए जमाने के ऐसे ‘एप्स’ आ जाते हैं कि आप महज ‘सेल्फी’ पर विश्वास करके ‘सेल्फिश’ होने की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हाला कि इलाहाबादी शब्दकोश में इन सेल्फी और सेल्फिश जैसे शब्दों का कोई स्थान ही नहीं है और न ही इन जैसे शब्दों के मायने तलाशने और पाने की जरूरत ही महसूस की जाती है, लेकिन स्मार्ट फोन के संक्रमण का क्या भरोसा। अच्छे भले इलाहाबादी साहित्यकार को बदल दे तो कोई आश्चर्य नहीं। वैसे धक्का तो तब लगा जब मांने उन साहित्यकार को एक महिला रचनाकार के बगल में खड़े होकर सेल्फी खींचते देख लिया। कई दिनों तक सोचता रहा कि क्या अपना इलाहाबाद भी बदलाव की बयार के संग बह चला है क्या?
अभी इस सेल्फिश ख्याल से बाहर आ पाता कि अमरीका से खबर आई कि अपना इलाहाबाद भी स्मार्ट होने जा रहा है। मुआ ‘स्मार्ट’ शब्द एक बार फिर हमारे सामने था। अब आप ही सोचिए कि जो आदमी एक इलाहाबादी के पास स्मार्ट फोन से अपने इलाहाबाद में बदलाव की बयार बहते देख घबरा रहा हो, उसे समूचे शहर के स्मार्ट होने की खबर मिल जाए तो क्या हो। बहुत साल पहले दिल्ली बसने का ख्याल आया था। गया भी। लेकिन, भागती-दौड़ती दिल्ली में खुद को फिट न कर पाने पर यह कहकर वापस हो लिया था कि हम जैसे इलाहाबादियों के लिए यह शहर नहीं है। कुछ ज्यादा ही ‘स्मार्ट’ लोग रहते हैं यहां। अब देखिए उसी इलाहाबाद को ‘स्मार्ट’ बनाने पर आमादा हो गए हैं लोग। अरे जरा सोचिए कि कहीं यह हमारी इलाहाबादियत को छीनने की साजिश तो नहीं? स्मार्ट-स्मार्ट कहकर इन्होंने कई शहरों को फेसबुकिया टाइप के शहरों में तब्दील कर दिया है। बस मैसेजों में सिमटी रिश्तेदारी और कुछ लाइक्स में सिमटकर रह गई दोस्तियां। बड़े- बुजुर्गों की नजर में स्मार्टनेस तो अपना काम-काज समय से और बढिय़ा से कर लेने से ही आ जाती था और किसी टेक्नोलॉजी में क्या दम जो किसी शहर को स्मार्ट बना सके। लेकिन अब कौन इसे मान रहा है। अमरीका से खबर आई है तो लोगों को विश्वास करना पड़ रहा है। इसी बीच मैं जापानी शहर क्योटो की तरह होने जा रहे अपने सहोदर शहर बनारस भी हो आया। ढलुआ रिक्शे पर बैठकर यह विश्वास हो ही नहीं पाया कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान टेलीविजन में दिख रहे क्योटो शहर की तरह हमारा बनारस भी हो जाएगा।
आखिर ऐसे कैसे बदल सकते हैं लोगों की बरसों पुरानी रवायतों को और मानसिक ढंाचों को? कैसे कोई शहर अपने होने को झुठलाकर दूसरे शहर की नकल बन सकता है? बन क्यों नहीं सकता। जब अपना इलाहाबाद सारी ऐंठ को दरकिनार कर लाल बत्ती पर खुद-ब-खुद रुकने लगे तो कहा जा सकता है कि बदलते समय में अब वह सबकुछ हो सकता है, जिसकी कल्पना हम नहीं कर पा रहे हैं। हां, यह बदलाव किस हद तक और किस किस्म का होगा, यह अभी से कह पाना मुश्किल है। पहली बार जब लाल बत्ती पर ठिठकते इलाहाबाद को देखा तो डर सा लगा था कि अरे यह क्या हो गया अपने शहर को। न कोई ट्रैफिक पुलिस और न कोई वसूली पर लगा सिपाही। फिरभी शहर क्यों ठिठक कर खड़ा हो गया। कहते हैं कि बदलते समय के साथ जो नहीं बदलता उसे समय हाशिए पर ढकेल कर आगे निकल जाता है। लेकिन इलाहाबाद और बनारस जैसे शहरों ने लाख कोशिशों के बावजूद अपने आप को नहीं बदला और अपने-अपने हिस्से की जीवंतता को बनाए रखने की हर संभव कोशिश की है। शहर के अनियोजित विस्तार ने भले ही शहर की संस्कृति को कुछ हद तक प्रभावित किया हो लेकिन शहर अपनी सारी सरकारी-गैरसरकारी दुरूहताओं को अपनी अलमस्त अदाओं से किनारे ढकेलकर आगे बढ़ता आया है। ऐसे में इसके एकाएक स्मार्ट हो जाने पर शक तो होता ही है।
लाल बत्ती पर कुड़बुड़ाते एक ठेठ इलाहाबादी का यह कहना कि  ‘साले, सब के सब पगलाय गए हैं। अब एका (इलाहाबाद को) दिल्ली बनाय पर तुले हैं। अब इनका कउन समझाय कि ई इलाहाबाद है। बड़े-बड़े तीसमार खां आएं और चले गयें। एका कुछ नय बिगाड़ पायें। देख्यो, चार दिन के बाद ई सब लाइट-लुईट, लाल-हरा सब टांय-टांय फिस्स होय जाई।’ मायने रखता है।  ईश्वर करे....। आमीन।

बुधवार, अक्तूबर 1

मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....


याद कीजिए वे दिन जब हमारे समाज में मनोरंजन और जनसंचार का काम हमारी लोक कलाएं ही किया करती थीं। लोक गीत, लोक कथाएं, लोक नृत्य, लोक आख्यान और लोक चित्र कला, यही वे सब उपक्रम थे, जिनके सहारे हमारे पूर्वज अपने समाज की बनावट और मंजावट का काम किया करते थे। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग इन्हें सहेजने में जुटा हुआ है। यह बात और है कि सरकारी सहयोग और आधुनिक सामाजिक मान्यताओं के उपेक्षात्मक रवैये ने इन्हें हाशिए में रख छोड़ा है और अब इनका हमारे बीच होना मात्र एक अनुष्ठान भर रह गया है।
पिछले दिनों इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन की एक संगोष्ठी में देश भर से आए लोक कलाकारों के बीट उपस्थित होने का मौका मिला। वहां उपस्थित हर कलाकार के पास अपने-अपने दुख थे, जिन्हें वह अपनों के संग बांट लेना चाहता था। इसी संगोष्ठीमें हमें फेडरेशन की ओर से ‘मरती लोक कलाएं और सिसकते कलाकार....’ शार्षक से एक पत्रक मिला। इस पत्रक में लोक कलाओंं और लोक कलाकरों की दशा का बड़ा ही मार्मिक बखान किया गया है। जो लोग लोक कलाओं और कलाकारों को करीब से जानते हैं उनको इस पत्रक पर सहजता से विश्वास हो जाएगा, लेकिन जिनके लिए लोक कलाएं जीवन और समाज के लिए जरूरी नहीं बल्कि मनोरंजन भर का एक साधन मात्र हैं उन्हें शायद ही इस पत्रक की सच्चाई और पीड़ा पर विश्वास हो सके। मैं ऐसे कई विद्वानों को जानता हूं जो लोक कलाओं के होने और उनकी जरूरतों पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जब उनके हक के लिए आवाज उठाने की बात आती है तो कन्नी काट जाते हैं। जब तमाम विद्वानों का यह हाल है तो फिर आम जन की तो बात ही छोडि़ए। वास्तव में सरकारों ने जो भी योजनाएं ऐसे कलाकारों के लिए बनाई हैं, उनकी मलाई कुछ लोग ही चट कर जाते हैं। इन कलाकारों के हिस्से में इन योजनाओं का कुछ सुख ही हाथ आ पाता है। मैं यह नहीं कहता कि विद्वानों के द्वारा लोक कलाओं पर शोध कार्य नहीं होना चाहिए, लेकिन साथ ही साथ इन लोक कलाकारों को प्रस्तुतियों की बारम्बारता और बेहतर मानदेय तो मिलना ही चाहिए।
बहरहाल इन लोक कलाकारों की आवाज बनने का बीड़ा  इण्डियन फोक आर्ट फेडरेशन ने उठाया है। इसका फैलाव बहुत कम समय में ही देश भर में हो चुका है और यह अपनी संगोष्ठियों व अन्य प्रस्तुतियों व आयोजनों के माध्यम से लोगों में इन कलाओं और कलाकारों के प्रति लोगों व सरकारों को जगाने का कम कर रहा है। फेडरेशन की मांगों में लोक कलाकारों की गणना, इन्हें राष्ट्रीय धरोहर घोषित करना, लोक कलाकारों के लिए वैकल्पिक आयवृद्धि योजना, स्वास्थ्य बीमा, 70 बरस से ऊपर के कलाकारों को पेंशन, कलाओ ंकी नियमित प्रस्तुतियों की व्यवस्था व उचित मानदेय की व्यवस्था करना शामिल है। फेडरेशन ने राष्ट्रीय लोक कला विकास व अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की मांग के साथ-साथ कई अन्य णांगें भी संस्कृति मंत्रालय से की हैं।
सच यही है कि लोक कलाएं पूरे समाज की होती हैं। समाज में रहने वाले समुदाय, जातीय समूह या परिवार इसके जन्म और विकास के लिए जिम्मेदार बनते हैं, लेकिन इन पर किसी का एक का अधिकार नहीं होता। जीवन के हर लमहों जुड़ी लोक कलाएं न केवल पीढिय़ों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन करती है, बल्कि कड़ी मेहनत के बाद राहत देने का काम भी करती हैं। लोक जीवन के अधिक निकट होने के कारण लोक कलाएं और इनके सभी प्रकारों के सम्बन्ध में समाज का हर सदस्य सहजता से जानता है और उसे अपना लेता है। यही नहीं वह अपनी परम्पराओं और जीवन शैली के अनुरूप थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इन लोक कलाओं का सहभागी बन जाता है। ऐसा होने के कारण ही लोक कला में कलाकार और श्रोता या दर्शक का कोई अंतर होता ही नहींं। कलाकार ही श्रोता या दर्शक होता है और दर्शक या श्रोता ही कलाकार। यही वजह है कि लोक कलाओंंके बिना हमारा स्वयं का अस्तित्व भी अधूरा सा ही है। तो क्यों न हम सभी भी इसके लिए उठती आवाजों के सहभागी बनें।

गुरुवार, सितंबर 4

बेचारी बहस और बेमानी बहसिए

वे अपनी ही रौ में कहते जा रहे थे और उनके साथ शामिल लोग उनकी बात को काटने में लगे हुए थे। इन सब को एक साथ जूझते देख कुछ-कुछ चांव-चांव या कांव-कांव या फिर हुंआ-हुंआ का भाव आ रहा था। बहरहाल बीस मिनट बीत जाने के बावजूद भी पता नहीं चल पाया कि आखिर रार किस मुद्दे पर मची हुई है। दरअसल लाख आलोचनाओं के बावजूद समाचार चैनलों पर बहस के लंबे-लंबे उबाऊ कार्यक्रमों पर न तो रोक लग रही है और न ही उसके घिसे-पिटे फार्मेट में कोई बदलाव लाने की कोशिश हो रही है। यह कहना गलत न होगा कि बेतुकी और बे- सिर-पैर की बात करने वालों की बढ़ती फौज का फायदा उठाने में लगे समाचार चैनल महज समय बिताने के नाम पर ऐसे कार्यक्रमों की होड़ में शामिल हो चुके हैं। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि उनका अपना हम-दम दर्शक इन बकवास मुद्दों (अधिकांशत:) पर होने वाली बेचारी बहसों और बेमानी बहसियों से ऊब सी गई है। कभी-कभी तो लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  इण्डस्ट्री ही एकमात्र ऐसी इण्डस्ट्री है, जिसे अपने उपभोक्ताओं की कोई परवाह नहीं है, वरना ब्रैण्डिंग और पैकेजिंग के इस समय में हर उद्योग अपने उपभोक्ता को सिर-माथे पर रखकर साथ निभाने के दबाव में नजर आ रहा है।
अब पिछले दिनों को ही लीजिए, पहले सरकारी सूत्रों के हवाले से यह खबर प्रसारित की गई कि केन्द्र सरकार पांच लोगों को भारत रत्न दिए जाने की तैयारी कर रही है। कई चैनलों ने उन नामों पर भी कयास लगा डाले जिन्हें भारत रत्न दिया जा सकता है या उनकी नजर में वे इसके हकदार हैं। नामों का चयन तमाम चैनलों में बैठे तथाकथित मीडिया अलम्बरदारों ने सत्ताधारी पार्टी लाइन के आधार पर तय कर दिए। कयासों पर सरकारी मुहर लगती कि इससे पहले ही उन नामों को बेमानी बहसिओं के हवाले कर दिया गया और फिर शुरू हो गया  चांव-चांव, कांव-कांव, हुंआ-हुंआ का दौर। हर कोई अपने-अपने हिसाब से भारत रत्नों की खोज कर रहा था और उन्हें बिना सोचे-समझे बहस में शामिल कर ले रहा था। किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि देश के जिन सपूतों को ये सब भारत रत्न देने की मांग के साथ अपनी बेचारगी से लथपथ बहस में शामिल कर रहे हैं, वे अपने देश की जनता के दिल और दिमाग में क्या जगह रखते हैं। चैनलों ने भी इन सपूतों के नामों को इन बेमानी बहसिओं की लपालप चलती बेमानी जुबानों पर आने देने में कोई बुराई नहीं समझी। बहस में भारत रत्न के हकदारों में हनी सिंह भी शामिल हो गया। अब आप इस दुर्गति को क्या कहेंगे।
एक चैनल को 'हिन्दी, हिन्दुस्तान और हिन्दूÓ का जुमला भा गया और उसने इस पर बहस करने के लिए आरोप-प्रत्योरोप में माहिरों को जुटाकर जो बहस कराई, वह किसी साम्प्रदायिकता फैलाने वाले कार्यक्रम की तरह ही लगी। जनाब एंकर महोदय लगातार अपने चहेते बेमानी बहसिओं को उकसाते नजर आए कि वे आपसे में तो भिड़ें ही साथ में ऐसा कुछ बोलें कि आम जनता भी आपस में भिड़ जाए। इसी तरह नेताओं के संसद से गायब रहने वाली बहस ने नेताओं को अपने दायित्वों को निभाने से वाकओवर सा दे दिया। इस बहस को देख-सुन कर ऐसा लग रहा था कि यह बहस संसद से गायब रहने का आरोप झेल रहे सांसदों की ओर से प्रायोजित की गयी हो। वैसे 'पेड न्यूजÓ और 'पेड व्यूजÓ का आरोप झेलने वाली मीडिया के लिए नया नहीं है। पहले भी कई बार इस तरह का आभास मिलता रहा है कि खबरिया चैनल प्रायोजित मुद्दे पर प्रायोजित बहसिओं को लेकर बेमानी बहस कराने में जुटे हैं।
बेचारे खबरिया चैनल। इन दिनों सुबह से ही इस बात में जुट जाते हैं कि आज शाम किन मुद्दों पर बहस हो सकती है और इन मुद्दों पर कौन लोग बात रख सकते हैं। हर चैनल के पास दो-तीन समाजशास्त्री, दो-तीन अर्थशास्त्री, दो-तीन विधि विशेषज्ञ और दो-तीन साहित्यकार टाइप के लोगों की फेरिस्त तैयार रहती है। राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं या फिर टेलीविजन बहसों में शामिल होने के लिए नामित नेताओं की फेहरिस्त भी पास में होती है। चैनलों में एक पूरी टीम होती है इन लोगों को आमंत्रित करने या फिर उन्हें बहस के दौरान कनेक्ट करने की। कई बार तो बहसिओं से राय-मश्विरा करके ही विषय का टयन होता है या फिर विषय को अंतिम रूप दिया जाता है। साथ ही इस बात की कोशिश की जाती है कि विषय ऐसा हो, जिसमें विषय से इतर जाकर आरोप-प्रत्यारोप लगाने और आंय-बांय शांय बकने की भरपूर गुंजाइश हो।
फिलहाल 'शर्म उन्हें आती नहींÓ कहकर ही काम चलाने वालों की बड़ी फौज होने के कारण बेचारी बहसों और बेमानी बहसिओं का दौर जारी है। ऐसी कोई नियामक संस्था ही नहीं है जो खबरिया चैनलों पर आयोजित या फिर प्रायोजित होने वाली इन बहसों में कहे जाने वाले 'वाक्योंÓ को स्वयं ही संज्ञान लेकर कोई कार्रवाई करे या फिर दिशा-निर्देश दे सके। हां, एक खबर कुछ भरोसा दिलाती है या फिर संशय में डालती है कि आने वाले दिन सुधार के हो सकते हैं या फिर मीडिया पर नकेल कसे जाने के हो सकते हैं। और खबर यह है कि देश के सूचना प्रसारण मंत्री ने कहा है कि एफएम रेडियो पर रेडियो जॉकी किसी का मजाक नहीं उड़ा सकेंगे। उन्होंने इन रेडियो पर प्रसारित होने वाले कंटेंट पर भी निगरानी रखने की बात कही है। तय है कि जल्दी ही इन बहसों के लिए भी मानक बनाए जाएं। अगर ऐसा होता है तो यह खबरिया चैनलों के उपभोक्तोओं के लिए बेहतर खबर होगी।  

रविवार, अगस्त 17

बात कहने के बहाने और रास्ते


पिछले दिनों मैं एक स्टडी ग्रुप के साथ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों की यात्रा पर था। मकसद था आदिवासियों की जीवन शैली के अनुरूप कम्युनिकेशन टूल्स की पहचान करना। यह ग्रुप ऐसे समय वहां पहुंचा था जब पूरा देश इस बहस का हिस्सा बना हुआ है कि आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा में किस तरह लाया जाये। राइट टु इनफार्मेशन के इस समय में उन्हें उनके अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध कानूनों व सरकारी योजनाओं की जानकारी से लैस कराने के लिए कौन सा कम्युनिकेशन टूल कारगर होगा, तलाश का मुख्य मुद्दा था। इसे लेकर ग्रुप के सभी सदस्यों के पास अपनी-अपनी सोच थी। लेकिन यह सभी जानते थे कि यह काम उतना आसान नहीं है, जितना समझा जा रहा है।
फिलहाल हम सभी मीडिया में खुद को माहिर समझने वाले लोग अपनी-अपनी सोच के साथ बस्तर में थे। एक ऐसे इलाके में जिसे वहां से बाहर रहने वाले लोग अत्यन्त पिछड़ा मानते हैं। हमारे सामने कला और सम्प्रेषण के तरीकों का इतना बड़ा जखीरा था कि सहसा हमें लगा कि हमारी पूरी यात्रा ही बेमानी है। मुझे यह कहने में कतई गुरेज नहीं कि कम्युनिकेशन के जितने कारगर टूल्स आदिवासी कहे जाने वाले लोगों के पास हैं, शायद उतने टेक्नोलाजी बेस्ड समाज के आधुनिक कहे जाने वाले लोगों के पास नहीं हैं। बड़ी बात यह कि उनके टूल्स एक साथ कई-कई मैसेज देने में सक्षम हैं और हर मैसेज की अपनी सार्थकता को किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता।
मैं यहां अपने कुछ अनुभव शेयर करना चाहता हूं। सबसे पहले मैं बात करूंगा आदिवासी चित्रकार पेमा फात्या की। झाबुआ में रहने वाले इस चित्रकार से मैं कई वर्षों पहले भी मिला था। पिथौरा चित्रकला में माहिर इस बुजुर्ग चित्रकार की कृतियों में प्रकृति को बचाने से लेकर समाजिक सौहाद्र्र और साक्षरता के सहारे खुद के जीवन को बेहतर बनाने के संदेश मिल जाते हैं। रोचक बात यह कि यह सभी बातें अकृतियों और रंग संयोजन के माध्यम से कहा जाता है और बड़ी ही सहजता से समझ में भी आ जाता है। झाबुआ की दीवारों पर बने ये चित्र जितनी सरलता से भील जाति के लोग पढ़ लेते हैं शायद उतनी सरलता से उन्हें किसी आधुनिक आफसेट मशीन में छपे कलरफुल पोस्टर को पढ़ाने के लिए कफी मशक्कत करनी पड़े। हमने झाबुआ के आस-पास के इलाकों में दीवारों पर बने चित्रों को पढऩे की जितनी बार कोशिश की उतनी बार हर एक चित्र एक नया मैसेज देता हुआ मिला। बात कहने की सबसे पुरानी विधा इतनी सशक्त ढंग से हमारे सामने थी कि हम सभी चमत्कृत थे।
मैं अपनी इस यात्रा की एक और फाइन्डिंगस आपके साथ शेयर करता हूं। वह है वहां के लोगों का रेडियो प्रेम। अपनी भाषा और अपनी संस्कृति में रचे-बसे ये लोग आधुनिक कही जाने वाली दुनिया के लोगों के सरीखे ही हैं। इनमें से कुछ युवा इलाके के पास के शहरों में पढ़ाई करने या रोजी कमाने जाते रहते हैं। इनके पास मोबाइल भी हैं और छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर रेडियो भी। ये हिन्दी फिल्मों के गाने सुनते हैं और आकाशवाणी से प्रसारित समाचार भी। वैसे रेडियो लगभग सभी के घर में है। मेरे लिये यह रोमांचित करने वाला अनुभव था कि आदिवासियों में रेडियो सुनते हुए अपने काम निपटाने की आदत सा बन गई है।
अब जरा इमेजिन कीजिये कि आप आदिवासी इलाके में हैं और रेडियो गीत-संगीत के साथ दीवारों पर मीनिंगफुल पिथौरा या फिर कोई अन्य फोक पेन्टिंग बनायी जा रही है। थोड़ी ही देर में यह तैयार भी हो जाती है। उधर से गुजरने वाला हर कोई थोड़ी देर के लिये ठहरता है और कुछ न कुछ गुनता-बुनता आगे बढ़ जाता है। कौन कहता है कि इस समाज में कम्युनिकेशन के टूल्स तलाशे जाने की जरूरत है? वास्तव में हर समाज चाहे वह अगड़ा हो या पिछड़ा, अपनी बात कहने के बहाने और रास्ते तलाश ही लेता है। .. .. और हमारी रिपोर्ट की सबसे अहम पंक्ति यही है।

शुक्रवार, अगस्त 15

निशाने पर आ गया पुराना साथी रेडियो


इधर केन्द्र सरकार ने रेडियो के अच्छे दिनों को लाने की कवायद शुरू की तो उधर बॉलीवुड में भी रेडियो दिखने लगा। पिछले दिनों सरकार ने एफएम पर समाचारों के प्रसारण को हरी झंडी दी तो लगा कि अब रेडियो एक बार फिर अपने पुराने रिश्तों को जल्दी ही बहाल कर लेगा। अभी कुछ बात आगे बढ़ पाती की बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्ट कहे जाने वाले अभिनेता आमिर खान अपनी नई फिल्म के पोस्टर में बिना कपड़ों के रेडियो के सहारे अपने को अश्लील कहे जाने से बचाते हुए नजर आ गए। सरकार और बॉलीवुड के इस अंदाज ने रेडियो के प्रशंसकों में नई तरह की बहस छेड़ दी है कि आने वाले दिनों में आखिर रेडियो क्या-क्या गुल खिलाएगा।
बहरहाल मोदी सरकार ने किसी के अच्छे दिन लाए हों या नहीं, लेकिन इतना तय है कि जन माध्यमों में सर्वाधिक मजबूत रेडियो के अच्छे दिन जरूर आने वाले हैं। बहुत इंतजार के बाद अब एफ एम रेडियो पर समाचार प्रसारित करने की मांग पूरी होने जा रही है। पिछले दिनों सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में बताया कि एफएम रेडियो  के तीसरे चरण के अंतर्गत मंजूर दिशा निर्देशों के तहत निजी एफएम रेडियो पर प्रसार भारती के साथ आपसी सहमति के आधार पर ऑल इण्डिया रेडियो का समाचार फरसारित करने की मंजूरी दे दी गई है। श्री जावड़ेकर ने यह भी कहा कि एफएण रेडियो स्थानीय स्तर खेल कार्यक्रमों, यातायात और मौसम सम्बन्धित बुलेटिन, सांस्कृतिक कार्यक्रम, परीक्षा व दाखिले की जानकारी, रोजगार के अवसरों की जानकारी, बिजली व जलापूर्ति तथा स्वास्थ्य सम्बन्धित जानकारियां या एलर्ट जैसी गैर समाचार सामाग्री सहजता से प्रसारित कर सकते हैं। बहरहाल सरकार की ओर से यह भी कहा गया है कि निजी एफएम रेडियो चैनल अपने समाचारों के लिए पीटीआई समाचार एजेंसी को भी स्रोत के रूप में अपना सकते हैं। एक महत्वपूर्ण निर्णय सरकार ने यह भी लिया है कि अब एफएम रेडियो के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 26 प्रतिशत कर दिया है। वादा तो यह भी है कि इन निर्णयों के परिणाम देखने के लिए सतत समीक्षा भी की जाती रहेगी। जाहिर है कि सरकार ने रेडियो की दुनिया को नया जीवन देने की पहल कर दी है।

यह तो तय था कि हमारे पास एक बार फिर रेडियो लौट रहा है। पिछले कुछ वर्षों में लोगों के बीच मोबाइल फोन की बढ़ती पहुंच ने एफएम रेडियो को करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। देश के जिन बड़े शहरों में एफएम के निजी चैनलों को लोगों तक पहुंचने का मौका दिया गया, उनके अनुभव उत्साहवर्धक रहे हैं। सरकार और बाजार, दोनों एफएम की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साह में हैं। विज्ञापन बाजार भी अपने फायदे की तलाश में लग गया है। वास्तव में रेडियो एक ऐसा माध्यम आज भी बना हुआ है जो समाचारों और मनोरंजन के लिए लोगों के करीब है। ग्रामीण भारत ही नहीं इस माध्यम की शहरी युवाओं पर भी बहुत व्यापक पकड़ है। युावओं को केन्द्र में रखकर नीतियां तय करने वाले हुक्मरान को इस माध्यम की व्यापक स्वीकृति को नकारने की हिम्मत जुटा पाना नामुमकिन है। बाजार और सत्ता, दोनों ही इसमें अपने-अपने हिस्से के मुनाफे को देख रहे हैं।
बहरहाल बाजार के मानिंद जहां अधिक से अधिक एफएम रेडियो के लाइसेंस प्राप्त करने के जुगाड़ में लग गए हैं, वहीं सरकार भी बहुत दिनों तक जनसंचार के इस सर्व-सुलभ मीडियम की अनदेखी नहीं करना चाहती। इण्डस्ट्री से जुड़े लोग कास्टिंग के इस सिस्टम के फिर से तेजी पकडऩे को लेकर उत्साह में हैं। आने वाले दिनों में अगर सबकुछ ठीक-ठाक ढंग से चलता रहा तो यह तय है कि देश के हर जिले में दो से तीन एफएम रेडियो चैनल होंगे और उनके बीच जमकर प्रतिस्पर्धा रहेगी। यह प्रतिस्पर्धा जहां अधिक से अधिक श्रोताआो को पाने की होगी, वहीं विज्ञापन बटोर लेने की भी होगी। इससे कहां इंकार किया जा सकता है कि जब पूंजी का निवेश होगा तो मुनाफे की होड़ तो मचेगी ही। यह भी तय है कि मुनाफे और पूंजी के बीच मचने वाले घमासान में कंटेंट प्रभावित होकर रहेगा।  
फिलहाल मीडिया इंडस्ट्री में रेडियो की वापसी और उसके तेजी से व्यापक हो जाने की धमक भर से एक डर सभी को सताने लगा है कि निजी एफएम रेडियो के कंटेंट पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इसको लेकर भी टेलीविजन और सोशल मीडिया के कंटेंट को लेकर मचने वाले बवाल की तरह ही मीडिया इंडस्ट्री और सरकारी तंत्र के बीच समस्याएं खड़ी होने में देर नहीं लगेंगी।
पिछले दिनों यह बात सामने आई थी कि सरकार 12 वीं पंचवर्षीय योजना के तहत एफएम रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाली सामाग्रियों की निगरानी के लिए एक तंत्र स्थापित करने की योजना बना रही है। वास्तव में सरकार ने इस योजना अवधि में देश में 800 निजी एफएम रेडियो चैनल प्रारम्भ करने का मन बनाया हुआ है, जिसकी धमक नई सरकार के आने के बाद तेजी से सुनाई देने लगी है। यह भी तय ही है कि आने वाले दिनों में ये निजी एफएम रेडियो समाचार प्रसारण का विस्तृत अधिकार पा जाएंगे। ऐसे में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इनसे प्रसारित होने वाले कंटेंट को किसी निगरानी तंत्र से गुजारकर ही लोगों तक पहुंचाया जाए। पिछले दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया मानिटरिंग सेंटर के एक कार्यक्रम में भारत सरकार के सूचना एंव प्रसारण सचिव ने इस बाबत जानकारी देते हुए यह चिंता जताई थी कि अभी तक रेडियो पर प्रासारित होने वाली सामाग्रियों की अर्थपूर्ण ढंग से निगरानी नहीं की जा सकी है, लेकिन इस तरह के प्रभावी तंत्र को विकसित किये जाने की जरूरत है। उस कार्यक्रम में मौजूद हर मीडिया विशेषज्ञ ने इस बात पर सहमति जताई थी।
पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया और फिर सोशल मीडिया के कंटेंट को लेकर हो चुके विवादों के मद्देनजर इस तरह की पहल बहुत जरूरी होगी। वैसे भी अभी तक जो एफएम रेडियो बाजार में हैं, उनके कंटेंट, भाषा और प्रेजेंटेशन को लेकर पहले भी प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। दूसरी ओर मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों में से अधिकांश ने इस मीडियम को अपने सिलेबस में शामिल ही नहीं किया और अगर किया भी तो प्रायोगिक पक्ष गायब ही रहा। ऐसे में बाजार में एकाएक आने वाले एफएम रेडियो के चैनलों पर कैसे लोग और कब तक काम करेंगे, इस प्रश्न पर भी गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है।


सोमवार, जुलाई 28

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले...


कुछ वर्षों पहले मैं एक ऐसे शहर में कार्यरत था, जिसे एक अदद विश्वविद्यालय की दरकार थी। उस शहर का हर बुद्धिजीवी गाहे-ब-गाहे अपनी बातचीत में इस कमी को ले आता और शासन-नेताओं को कोसता कि जिस शहर ने साहित्य में इतने बड़े नाम दिए, वहां एक अदद विश्वविद्यालय स्थापित कराने की कोई पहल नहीं करता। मैं अखबार में था सो मैंने इस मुद्दे को एक मुहिम की तरह लिया और लगातार इस सम्बन्ध में खबरें, लोगों के विचार, टिप्पणियां व जनप्रतिनिधियों को ललकारते बयान प्रकाशित करने शुरू कर दिये। शहर जाग गया। जगह-जगह विश्वविद्यालय की मांग को लेकर संगोष्ठियां और सेमिनार होने लगे। जुलूस निकला गया। शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी मोर्चा सम्भाल लिया। विधायकों और सांसदोंने भी पहल शुरू कर दी। वे भी लोगों के साथ आ गए। बड़ी मशक्कत के बाद अब वहां राज्य सरकार कृषि विश्वविद्यालय को स्थापित करने जा रही है। लोग खुश हैं कि उन्हें कुछ तो मिला। लेकिन लड़ाई जारी है, जब तक की उनके सपनों का विश्वविद्यालय मिल नहीं जाता। वह शहर है आजमगढ़, जहां राहुल सांकृत्यायन, श्याम नरायण पाण्डेय, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध, कैफी आजमी जैसे साहित्यकार पैदा हुए या फिर उसे अपनी कर्म स्थाली बनाई। शिबली नोमानी जैसे शिक्षा प्रेमी हुए, जिन्होंने शिक्षा को आंदोलन का रूप दिया। उस शहर की एक अदद विश्वविद्यालय पाने की तड़प आज भी मेरे जेहन में रची-बसी है।
अपना शहर इलाहाबाद भी किसी से कम नहीं है। एक से बढक़र एक साहित्यकार और शिक्षाविद यहां हुए, जिनकी फेरिस्त यहां देना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है। भाग्यशाली है यह शहर कि यहां एक नहीं कई विश्वविद्यालय और उसके समकक्ष शैक्षिक संस्थाएं हैं। विरासत में मिले पृष्ठों को पलटें तो गौरव के कई पल हमारे शहर की साहित्यिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्थाओं से जुड़े हुए मिल जाएंगे। सच तो यह है कि किसी शहर की पहचान उसकी अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक थाती के बलबूते ही बनती है। कभी इलाहाबाद भी ऐसी ही पहचान लिए हुए पूरी दुनिया के सामने था। यहां से निकली साहित्यिक धाराएं देश की भाषायी और साहित्यिक दुनिया को दिशा देती थीं। यहां की सांस्कृतिक परम्पराएं देश ही नहीं दुनिया भर के लोगों को संगम तट पर खींच लाने में कामयाब हो जाया करती थीं। यहां का शैक्षिक परिदृश्य युवाओं के लिए आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था। इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सके कि एक समय था कि यहां विश्वविद्यालय सरीखी शैक्षिक संस्थाओं का होना ही शहर की पहचान उसी तरह बनाता था, जैसे नालन्दा, आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज। काश! ऐसा हमेशा ही कायम रह पाता।
बहरहाल हालात यह हैं कि हम अपने शहर की पहचान खोते जा रहे हैं। हर ओर गिरावट का माहौल है। साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं ने तो पहले ही शहरवासियों की उपेक्षा के चलते पहले ही हथियार डाल रखे हैं। कोई बड़ा साहित्यिक आंदोलन अब इलाहाबाद से उपजता ही नहीं। हर ओर एक मुंह चिढ़ाता सन्नाटा है, जिसमें शोर तो है पर वे आवाजें नहीं, जिनके पीछे चल देने का मन करे। दूसरी ओर अब वह इलाहाबाद ही नहीं रहा जो शहर की शीर्ष साहित्यिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्थाओं से रिश्ते बनाकर वर्तमान और आने वाली पीढिय़ों को कुछ देने की दरकार रख सके। सच तो यह कि इन संस्थाओं का नेतृत्व करने वाले लोग ही जनता और संस्थाओं के बीच की रिश्तेदारी का नमक बड़ी ही बेहयाई से चटकर गए और लोग मुंह बाए अपने खाते से बहुत कुछ गंवा बैठे। आज हर ओर हाहाकार है। हमारे पीछे की पीढिय़ों को अपने होने की गवाही देने के लिए जूझना पड़ रहा है। तमाशा जारी है और शहर तमाशबीन बना सब कुछ होते देख रहा है। आखिर कब तक? ....कोई तो उत्तर दे। कैफी आजमी की ये पंक्तियां दोहरा लेने का मन करता है- कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले। उस इंकलाब का, जो अभी तक बाकी है। आमीन...।

मंगलवार, जुलाई 22

मतवाला, खिचरी और महामना की ससुराल

पिछले दिनों अपनी लोक यात्रा के दौरान मैं मिर्जापुर में था। बहुत दिनों बाद मैं एक ऐसे शहर में था, जिसके पास विरासत में सहेजने को बहुत कुछ है, लेकिन वर्तमान में सिवाय जूझने के कुछ भी पास में नहीं। सच कहूं तो एक शहर के फक्कड़ पन के कई रूप हमारे सामने थे। अब देखिए न, सड़कें थीं, पर लगता रहा कि अगर ये न होतीं तो शायद अधिक बेहतर होता। किसी भी तरह से उन्हें पार करने की कोशिश काजिए, आपकी आंतें हिल जाने की गारंटी है। लोग हैं कि अपनी मस्ती में जिए जा रहे हैं। किसी को इन सड़कों से कोई शिकायत ही नहीं। फक्कड़ी का एक अंदाज सुबह-सुबह घाट किनारे भी दिखा। यहां जुटने वालों की दुनिया सबसे न्यारी लगी। लोगों का नदी और उसके तटबंधों से जुडऩे का मतवालापन देखते ही बना। नदी किनारे साढिय़ों पर बना-बसा 'लेडीज मार्केटÓ बार-बार अल्मोड़ा की मार्केट की याद दिलाता रहा। वह भी सीढिय़ों पर बना-बसा है। फर्क बस इतना है कि वहां की साढिय़ां पहाड़ के शीर्ष तक ले जाती हैं और यहां की साढिय़ां नदी के किनारे तक। मंदिरों के कपाट हमारी कलाओं की विरासत के अद्भुद नमूने दिखा रहे थे। कुछ लोग दीन-दुनिया से परे बंदरों के झुंड  को आम खिलाने में मस्त थे। यह सब हमारे सामने किसी पहले से तैयार स्क्रिप्ट की तरह था।
बहरहाल हम अपनी लोक यात्रा यानी लोक कलाओं को सहेजने की जुगत में यहां पहुंचे थे। 'कजरीÓ लोकगीत से जुडऩे, सहेजने और उसे डिजिटाइज्ड करने के दौरान मिर्जापुर की सांस्कृति व साहित्यिक विरासत से भी साक्षात्कार होता जा रहा था। मैं और मेरे सहयोगी अमित कजरी लोग गायकों की खोज में निकल पड़े। कजरी गायन की पर्याय मैना देवी के घर पर उनके  देवर हरिलाल से मुलाकात हुई तो हम इन दिनों की प्रख्यात गायिकाओं उर्मिला श्रीवास्तव और अजीता श्रीवास्तव से भी मिले। दिन भर के बाद हमारी मुलाकात प्रख्यात लेखक स्व. भवदेव पाण्डेय के पत्रकार पुत्र सलिल पाण्डेय से हुई और वे स्वेक्षा से हमारे संग हो लिए। उनका संग होना था कि हमारे सामने मिर्जापुर की विरासत के कई महत्वपूर्ण पृष्ठ अनायास ही खुल गए। हमारी इस लोक यात्रा के बीच ही 'मतवालाÓ प्रेस की पुरानी बिल्डिंग भी आ गई। हम वहां भी पहुंचे जहां निराला, उग्र और महादेव प्रसाद सेठ की बैठकें होतीं थीं और मतवाला की रूपरेखा तय होती थी। महादेव प्रसाद के प्रपौत्र ने हमें बताया कि प्रेस वाला हिस्सा उन्होंने बेच दिया है। उग्र जी जिस कमरे में रहते थे, वह कमरा अभी जस का तस है। अद्भुद अनुभूति थी उस स्थान पर पहुंच कर।
थोड़ा आगे बढऩे पर तिरमुहानी चौराहे पर हमें 'खिचरी समाचार प्रेसÓ दिखी। छोटी सी परचून की दुकान के ऊपर दीवार पर ही उभर हुए अक्षरों में लिखा हुआ  'खिचरी समाचार प्रेसÓ अपने आप में बहुत ही गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है। यहीं से 1888 में महादेव प्रसाद घवन ने 'खिचरीÓ अखबार निकाला था। रोचक यह कि यह अखबार हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी, तीनों भाषाओं में होता था। आज घवन साहब की पुश्तों के पास परचून की दुकान के साथ-साथ उनकी यादें हैं, जिसे वे हमेशा सहेज लेने को आतुर रहते हैं। मेरे कहने पर उन्होंने खिचरी की कुछ प्रतियां दिखाईं और आग्रह किया कि कुछ ऐसे हो कि इन्हें लोग पढ़ें और महादेव प्रसाद घवन के योगदान को याद रखें। यूं तो मिर्जापुर की विरासत के कई पृष्ठ हमने खेंगाले, लेकिन एक और जिक्र अवश्य करूंगा। वह है महामना मदन मोहन मालवीय की ससुराल का। धुंधी का कटरा इलाके में एक छोटे से मकान के बाहर शिलापट्ट लगा हुआ है कि यह महामना की ससुराल है। पीतल के बर्तन बनाने वालों के इस इलाके में देश की शिक्षा, पत्रकारिता और राजनीति दिशा तैयार करने वाले महापुरुश की ससुराल होना वहां के लोगों को गर्व का अहसास कराता है। हमने जिससे भी उस गली का पता पूछा, उसने बहुत ही आत्मीयता के साथ उस ओर जाने का रास्ता बताया।
बहरहाल कुछ बनारस सी तासीर रखने वाले  इस शहर के लोगों  के लोग अपनी संस्कृति और सामाजिकता की बात करते हुए अपनी परेशानियां भूले रहने की कोशिश करते हैं। हां यह जरूर कहते हैं कि 'फूलन देवी से लेकर अनामिका पटेल तक जितने भी सांसद यहां से हुए किसी ने कुछ नहीं किया। हमने अब मांगना ही छोड़ दिया। अब कोई कुछ पहल करे तो अच्छा और न करे तो भी अच्छा।Ó शहर में प्रदेश के एक मंत्री के जनसम्पर्क कार्यालय का बहुत विशाल सा बोर्ड न जाने क्यों बार-बार आंखों के आगे आ जाता है, जिसमें लिखा है- अपनी परेशानियां हमें अवश्य बताएं। अब जिन्हें शहर के हालात दिखते नहीं, उन्हें बताए कौन।


सोमवार, जुलाई 7

कहानी कहना रहा, कह दिया, का कर लेबो


एक बार फिर शहर में एक कहानी को लेकर बवाल मचा हुआ है। कहानी उर्दू में है सो अभी यह बवाल छन-छन कर गति पकड़ रहा है। वैसे कहानीकार ने जल्दी ही इसे किसी हिन्दी पत्रिका में छपवाने की घोषणा करके शुद्ध इलाहाबादी में यह जता दिया है कि 'कहानी कहना रहा, कह दिया, का कर लेबो।Ó बताया जा रहा है कि कहानी अपने संगठनिया मित्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है, सो सारे किरदार बखूबी पहचान में आ जा रहे हैं। चूंकि किरदार जाने-पहचाने हैं, सो सभी उनकी करस्तानियों से भी वाकिफ हैं, लिहाजा किरदारों को अपने आस-पास के लोगों में फिट कर देने की जुगत भिड़ाने की होड़ लगी है। संगठन में उबाल है। कहानीकार है कि किसी को सेठने से इंकार करके यह दलील देने में लगा है कि चूंकि कहानी ज्वलंत मुद्दे पर है सो उसे हम अपने आस-पास ही पाएंगे। और जब कहानी आस-पास ही होगी तो किरदार भी तो हमारे बीच के ही होंगे।
बहरहाल अपने ही लोगों पर कहानी लिखकर तहलका मचाने का यह खेल नया नहीं है। पहले भी इस शहर ने कहानियों पर मचते बवाल को देखा-सुना है। कई बवाल तो राष्ट्रीय स्तर पर 'ख्यातिÓ बटोरने में भी कामयाब हुए थे। मुझे याद हैं वे दिन जब शहर में तथाकथित कहानियों के फोटोस्टेट बंटा करते थे और लोगों को जबरन पढ़वाया जाता था। इस खेल में पक्ष-विपक्ष दोनों ही शामिल रहा करते थे। साहित्यिक संगठन उस समय इसी तरह चुप थे, जिस तरह आज हैं। अंदर ही अंदर निपटने की कवायद चलती रही। पता नहीं किस तरह निपट रहे थे लोग। उन 'सत्य कथाओंÓ की व्यथा इतनी गंभीर थीं कि आज तक तथाकथित किरदारों में टीस के रूप में समायी हुई हैं। जो अब रहे नहीं उनके प्रति संवेदना अभी लोगों के दिल में है।
कभी साहित्यिक आंदोलनों के अगुआकार रहने वाले इस शहर में कहानियों और लेखों के जरिए  'कीचड़ उछालो और मस्त रहोÓ के जुमले को चरितार्थ करने के  भी प्रयास हुए हैं। एक कहानी में तो पूरा का पूरा एक साहित्यिक खेमा ही समाया हुआ था। कहते हैं कि उस कहानी को कुछ विरोधी खेमे के लोगों ने स्वयं बैठकर तैयार करवाया था। यह कहानी भी शहर भर में फोटोस्टेट कराकर बंाटी गई थी। करते भी तो क्या करते। कहानी छपी ही थी किसी गुमनाम सी पत्रिका में। कुछ और भी उदाहरण हैं ऐसी ही 'कथा करतूतोंÓ की, जिनका जिक्र करना कुछ ज्यादा ही हो जाएगा।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता जरूर है। हो भी यही रहा है। शहर में एक बार फिर कहानी पर बवाल मचा है। लगातार इसे प्रचार देने की कोशिशें भी हो रही हैं। पहले इस्तीफे की राजनीति से इस मुद्दे को गरमाने का प्रयास हुआ और अब संगठनिया कार्रवाई की मांग करके इसे रोशनी में लाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं। कहानीकार भी इसे हिंदी में छपवाकर तूल देने की कोशिश में हैं। इलाहाबाद एक बार फिर फार्म में है और वह भी पुराने तुर्रे के साथ कि 'कहानी कहना रहा, कह दिया, का कर लेबो।Ó अब आगे-आगे देखिए होता है क्या।  

वे जो विज्ञान, कला और साहित्य की त्रिवेणी थे


उनके हिस्से में कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोध हैं, जिनपर आज हम गर्व कर सकते हैं। उनकी कई साहित्यिक कृतियां हैं, जो हमारे लिए किसी धरोहर और प्रेरणा से कम नहीं हैं। उनकी कलाकृतियां, युवा कलाकारों के लिए किसी जरूरी अध्याय से कम नहीं। उनके लिखे नाटकों से आज भी रंगमंच गुलजार रहता है। सच कहा जाए तो वे विज्ञान, कला और साहित्य की त्रिवेणी थे। हां, वे अपने प्रो. बिपिन कुमार अग्रवाल थे।
प्रो. बिपिन कुमार अग्रवाल देश के जाने-माने भौतिकविद् थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भौतिक विभाग में पढ़ाई, शोध और फिर अध्यापन के दौरान उन्होंने एक्स-रे, पार्टिकिल फिजिक्स, लिक्विड हीलियम और क्वांटम मिकैनिक्स जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर उन्होंने शोध कार्य किया। वे विभागाध्यक्ष और विज्ञान संकाय के डीन भी रहे। भौतिकी के विभिन्न विषयों पर लिखी आपकी कई पुस्तकों के कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें क्वांटम फिजिक्स और स्टेटिस्टिकल मिकेनिक्स पर लिखीं पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं। प्रो. अग्रवाल अपने सहयोगियों और विद्यार्थियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। उनकी सदाशयता व विद्वता का बखान करने वाले विद्यार्थी देश-विदेश में विभिन्न महत्वपूर्ण संस्थानों में बड़े पद पर कार्यरत मिल जाया करते हैं।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो. अग्रवाल की रुचि शुरू से ही साहित्य सृजन और चित्रकला में भी रही। उन्होंने हिन्दी साहित्य जगत को कई महत्वपूर्ण कृतियों से समृद्ध किया है। इनमें छह कविता संग्रह-धूप की लकीरें, नंगे पैर, इस धरती पर, आदिहीन अनंत यात्रा, आकारहीन संसार एवं ढूंढ़ा और पाया, दो नाटक संग्रह-तीन अपाहिज एवं खोए हुए आदमी की खोज तथा लोटन नाटक, तीन निबंध संग्रह-आधुनिकता के पहलू, सृजन के परिवेश एवं कविता, नाटक तथा अन्य कलाएं और एक उपन्यास-बीती आप बीता आप शामिल हैं। ग्यारह बार उनकी चित्रकला की कृतियों की प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। यह प्रदर्शनी इलाहाबाद, लखनऊ और दिल्ली में ही नहीं, बल्कि न्यूयार्क में भी आयोजित हुई। उनकी इस सृजन यात्रा के विभिन्न आयामों पर शोध कार्य भी हुए हैं और हो रहे हैं।
इसी आठ जुलाई को प्रो. बिपिन कुमार अग्रवाल की पचीसवीं पुण्यतिथि है। हम उन्हें स्मरण करते हुए सृजन परिवेश का ताना-बाना बुनने वालों की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस संदर्भ में देश में हिन्दी में विज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी प्रमुख संस्था विज्ञान परिषद ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया है, जिसका विमोचन आठ जुलाई को ही होना है। इस पुस्तक का सम्पादन प्रो. शिव गोपाल मिश्र व डा. बबिता अग्रवाल ने किया है। अपने महत्वपूर्ण प्रकाशन ‘विज्ञान पत्रिका’ का शताब्दी वर्ष मना रही विज्ञान परिषद की यह पहल स्वगात योग्य तो है ही, यह हमें अपने समय में कुछ नया करने और अपनी विरासत से जुडऩे का अवसर भी देती है।

गुरुवार, मई 29

हंगामा-ए-पेड न्यूज चहुं ओर है बरपा



पिछले दिनों एक समाचार ने बरबस ही ध्यान खींच लिया। शीर्षक था ‘पेड न्यूज से परेशान चुनाव आयोग’। जाहिर है कि इसे पढऩा भी जरूरी लगा। हालाकि इन दिनों चुनावी माहौल में ‘पेड न्यूज’ के पैरोकारों की एक फौज तैयार हो गई है, जो तर्कों के सहारे इसे बाजार में बने रहने की जरूरत बताकर जायज ठहराने में तनिक भी देर नहीं लगाती। इनका कहना है कि पूंजी लगी है तो मुनाफे की जुगत तो लगानी ही पड़ेगी। याद आते हैं वे दिन जब पेड न्यूज को लेकर प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के नेतृत्व में बड़ी लड़ाई लडऩे का मन बनाकर हमसब अपने समय और तथाकथित पत्रकारीय अलम्बरदारों से जूझ रहे थे। यह वही समय था जब प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया की उस रिपोर्ट को जस का तस प्रकाशित करने की मांग भी की गई थी जो पेड न्यूज की जांच के बाद  तैयार की गई थी। प्रेस कौसिल ने तब रिपोर्ट का संक्षेप ही लोगों के आगे रखा था। यही वजह थी कि आरोप लगाया जा रहा था कि मालिकों के दबाव में ऐसा किया गया है।
बहरहाल हर बार चुनाव आते ही पेड न्यूज का शिगूफा सामने आ जाता है। तमाम लोग हो-हल्ला मचाने लगते हैं। इनमें वे प्रेस संगठन भी शामिल हैं जो पेड न्यूज के खिलाफ दिखने की हर कोशिश तो करते हैं, लेकिन अपनी तरफ से आज तक कोई ठोस पहल कर पाने में असफल ही रहे हैं। बहरहाल इस बार चुनाव आयोग ने बहुत पहले ही पेड न्यूज को लेकर अपनी कमर कस ली थी और इसके खिलाफ मुहिम छेडऩे की मंशा जाहिर कर दी थी। लेकिन रहा सबकुछ वही ढाक के तीन पात। चुनाव आयोग की सारी कवायदों को पलीता लगाते हुए पेड न्यूज के साथ-साथ पेड व्यूज का भी धंधा जोरों से चला। इसमें इलेक्टॉनिक मीडिया ने प्रिंट मीडिया को बहुत पीछे छोड़ दिया। मजेदार बात यह कि इस बार तो पूरी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जा रहा है। वैसे भी कार्पोरेटी मीडिया के चरित्र पर लांछन लगना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन हो तो यह सकता ही था कि सारा खेल इस तरह होता कि जन साधारण की निगाह में मीडिया की जो साख बनी है, वह बरकरार रह जाती। और, यह हो न सका। आज मीडिया पर बिके होने के आरोप महज राजनीतिक दल या उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ही नहीं लगा रहे हैं, बल्कि जन-साधारण भी इनमें शामिल हैं। तय है कि मीडिया को अपनी साख बचाने या फिर उसे वापस पाने के लिए चुनावों के बाद बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
एक बार फिर उस खबर पर लौटते हैं, जिसे लेकर मैंने अपनी बात कहनी शुरू की थी। ‘पेड न्यूज से परेशान चुनाव आयोग’। इस खबर के अनुसार छह चरणों के चुनाव के बाद आयोग ने पेड न्यूज के पांच सौ बयासी मामले पकड़े हैं, जिनमें से तीन सौ इक्कीस मामलों में पेड न्यूज होने की बात सिद्ध भी हो चुकी है। रोचक तथ्य यह कि ये पांच सौ बयासी मामले महज तीन सौ सीटों के चुनाव में ही सामने आ गये। ये सारे मामले प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया को मिलाकर हैं। इनमें सर्वाधिक मामले राजस्थान में सामने आए हैं, जहां एक सौ अड़सठ मामले सामने आए और इनमें से एक सौ पन्द्रह ही पुष्टि भी हो गई। दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र और तीसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है।
बहरहाल आयोग के पास पेड न्यूज को पकडऩे भर की शक्ति है, इसके खिलाफ किसी तरह की सजा देने या अन्य कार्रवाई करने की कोई शक्ति है ही नहीं। आयोग किसी भी पेड न्यूज की पुष्टि होने पर उसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में जोड़ देता है और अखबार के मामले में प्रेस कौसिल ऑफ इण्डिया और टेलीविजन न्यूज चैनल के मामले में नेशनल ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन को रिफर कर देता है। जाहिर है कि सारी कवायद टांय-टांय फिस्स हो जाती है। उम्मीदवार पर तभी कार्रवाई होगी जब उसका चुनाव खर्च तय सीमा से बाहर जाएगा और कौंसिल व ऐसोसिएशन अपने किसी सदस्य के खिलाफ जाने से रहीं। पिछला इतिहास इस बात की गवाही भी दे सकता है। वास्तव में पेड न्यूज को मीडिया घराने जितनी शिद्दत से व्यापारिक जरूरत के रूप में देखते हैं, राजनीतिक दल उतनी ही शिद्दत से  ‘राजनीतिक आवश्यकता’ के रूप में देखते हैं। यही वजह है कि आती-जाती सरकारें इस पर कोई निर्णय लेने से कतराती हैं। जब से पेड न्यूज का मामला प्रकाश में आया है, तब से कई बार चुनाव आयोग सरकार के आगे इसे अपराध घोषित करने और इसके लिए सजा का प्रावधान की सिफारिश कर चुका है। लेकिन हर बार इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालकर गाहे-ब-गाहे इसके खिलाफ महज लफ्फाजी करके काम चलाया जा रहा है।
वैसे अभी तक का रिकार्ड है कि पेड न्यूज के पकड़े गए किसी भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई है। चुनाव आयोग ने भी माना है कि उसके पास पेड न्यूज के कारण बढ़े चुनाव खर्च के दो मामले लम्बित हैं और वह कोई कार्रवाई नहीं कर सका है। एक मामला महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण के खिलाफ और दूसरा झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ है। आयोग इनके खिलाफ क्यों कोई कार्रवाई नहीं कर सका, इसका जवाब तो वह सीधे तौर पर नहीं दे सका है, लेकिन साफ जाहिर है कि सरकारी अनिच्छा और पेड न्यूज को राजनीतिक आवश्यकता मान लेना ही इसके पीछे कारण रहा है। यहां यह बता देने में कोई गुरेज नहीं है कि पिछले वर्ष संसदीय समिति ने यह सिफारिश की थी कि पेड न्यूज की रोकने के लिए चुनाव आयोग को इतनी शक्तियां तो दी ही जाएं कि वह मीडिया और उम्मीदवार दोनों को सजा दे सके। समिति ने यह भी माना था कि प्रेस कौसिल ऑफ इण्डिया और  नेशनल ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ये दोनों ही संस्थाएं पत्रकारों के अपने हित साधने के लिए बनी हैं न कि उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए।
बहरहाल पेड न्यूज का रोग अब पहले जैसा नहीं रहा। पहले केवल राजनीतिक दलों या फिर सत्ता और मीडिया का ही गठजोड़ इसके लिए जिम्मेदार था, लेकिन अब इसमें एक तीसरे और मजबूत कोण के रूप में कार्पोरेट शामिल हो गया है। जाहिर है कि जब पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में मीडिया के मिशन को पलीता लगाया जा चुका हो तो फिर पेड न्यूज के कोढ़ के समाप्त होने का इलाज सामने आने की उम्मीद करना ही बेमानी होगा।

कथाकार शेखर जोशी होने के मायने


कथाकर शेखर जोशी होने के मायने तलाशना अपने आप में सुख देने वाला रहा। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘अनहद’ के शेखर जोशी विशेषांक को पलटते हुए हर बार यही लगा कि मैं एक ऐसे जीवन से साक्षात्कार कर रहा हूं, जिसने संघर्षों के साथ रास्ते तय करते हुए कभी शिकायत की ही नहीं। सच तो यह कि हमें गर्व इस बात का कि हम उस समय में हैं जब हमारे साथ वे हैं और रचनाएं कर रहे हैं। सहज और सरल व्यक्तित्व के धनी शेखर जी ने जितना लगाव अपने पीछे आने वाली पीढिय़ों को दिया है, शायद ही किसी रचनाकार ने दिया हो।
सन 1950 के बाद जिन कहानीकारों ने शिल्प और संवेदना के अन्तर्सम्बन्धों को अपने रचनाकर्म में स्थान देकर सीधे समाज से जुडऩे का प्रयास किया और आजादी की लड़ाई के दौरान के आदर्शवाद को लेकर चलने का साहस दिखाया उनमें कथाकार शेखर जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। 10 सितम्बर 1934 को अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में जन्मे शेखर जोशी ने रेणु, मार्कण्डेय और शिवप्रसाद सिंह की ही तरह आंचलिक पृष्ठभूमि पर ग्रामीण जीवन का बखूबी अंकन किया है। ट्रेड यूनियनों से गहरे सम्पर्क के कारण शेखर दादा की कहानियों में श्रम के प्रति गहरा सौन्दर्य और विचार दिखाई देता है। पहली कहानी ‘दाज्यू’ 1953 में दिल्ली से निकलने वाले पत्र पर्वतीय जन के वार्षिकांक में छपी थी। और, तब से लेकर आज तक अनगिनत रचनाएं कर चुके शेखर जी ने अपने समय की दुरूहताओं और सामाजिक बवंडरों से मुठभेड़ करते हुए ऐसी कई रचनाएं दी हैं, जो रचनाकारों के लिए किसी पाठशाला से कम नहीं हैं।
अनहद के इस अंक में शेखर जोशी पर संस्मरण, उनके साक्षात्कार, उनके परिवारी की टिप्पणी, उनकी कविता तो है ही उनके रचनाकर्म की पड़ताल करती समालोचना भी शामिल है। नाटक, सिनेमा और शेखर जोशी की कहानी, शेखर जोशी और आज के कहानीकार, युवा आलोचकों की नजर में शेखर जोशी, नयी कहानी आंदोलन और शेखर जोशी, शेखर जोशी के पत्र और चित्रवीथिका शीर्षक से उनके होने के मायनों को तलाशने की जुगत बड़ी ही महत्वपूर्ण है। जिन लेखकों ने इस जुगत में अपनी भागीदारी निभाई है, उनमें सतीश जमाली, प्रणय कृष्ण, भाल चन्द्र जोशी, नीलकांत, स्वयं प्रकाश, सूरज पालीवाल, हरीश चन्द्र पाण्डेय, अनिल रंजन भौमिक, अल्पना मिश्र, प्रियम अंकित, मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी आदि शामिल हैं।
संपादक संतोष कुमार चतुर्वेदी की यह टिप्पणी मायने रखती है कि ‘इक्का-दुक्का रचनाकारों को छोडक़र प्राय: वे सभी रचनाकार शेखर जी पर लिखने को तैयार हो गए, जिनसे मैंने सम्पर्क किया। क्या बुजुर्ग, क्या युवा, वे सबके पसंदीदा हैं, अजातशत्रु हैं।’ वास्तव में शेखर जोशी हर पीढ़ी के लिए प्रिय रचनाकार तो हैं ही, वे बड़ी ही संवेदना के साथ सबके साथ जुड़े भी हैं। मैं इस बात का कई बार साक्षी रहा हूं कि उनसे मिलने शहर बाहर से कोई भी रचनाकार आता है तो वे इस गर्म जोशी से मिलते हैं कि वह बार-बार उनके पास आना चाहे। ‘अनहद’ के इस प्रयास की जितनी भी सराहना की जाए वह कम है। संपादक व उनकी टीम को बधाई।

सोमवार, फ़रवरी 17

बड़ी कठिन है डगर पनघट की...

जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने एलान किया कि वे अपनी लेखक बिरादरी को एक साथ काम करते देखना चाहते हैं। उन्होंने लेखक बिरादरी के तमाम संगठनों खासकर प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को साथ लेकर उन ताकतों का सामना करने की बात कही है, जो गाहे-ब-गाहे हमारी सामाजिक संचेतनाओं को चुनौती देती रहती हैं। दूधनाथ सिंह ने यह भी कहा है कि वे बरास्ते जनवादी लेखक संघ, रचनात्मक लेखन को बढ़ावा देने के साथ-साथ प्रजातांत्रिक शक्तियों को मजबूत करने का भी काम करेंगे। हम सब की शुभकामनाएं और बिना शर्त सहयोग उनके साथ होना चाहिए।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह सब क्या इतना आसान है? सच यह है कि लेखकों के बीच बिरादरीवाद इतनी गहराई तक है कि पूछिए ही नहीं। एक संगठन के कार्यक्रम में स्थानीय स्तर पर अपने-अपने संगठन से बाहर निकलकर भागीदारी निभाने वाले तो मिल जाएंगे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होते देख पाना दूर का सपना ही है। लेखकीय संगठनों का एक और रवैया है कि वे पूरी लेखकीय बिरादरी को अपने साथ लेकर चलना ही नहीं चाहते। कोई लेखक अगर उनके संगठन का सदस्य नहीं है या फिर उनकी विचारधारा से अभिप्रेरित किसी अन्य संगठन का भी सदस्य नहीं है तो उनके किसी काम का नहीं होता। वे न तो उसे अपने साथ बैठाना पसंद करते हैं और न ही अपने आयोजनों में भागीदारी का मौका ही देते हैं। जो उनके द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर आ गया वही अच्छा लेखक है, बाकी सब नाकारा। मजेदार बात यह कि लेखकीय संगठन के लोग किसी नए लेखक की पीठ तभी ठोंकने को तैयार होते हैं, जब तक वह उनके खेमे में बतौर सदस्य नहीं आ जाता। ये लोग खेमे के बाहर के लेखक की रचना पर चर्चा तक करने से गुरेज करते हैं।
पुराने दिनों की स्वस्थ्य परम्पराएं गायब हैं। जब संगठनों के बीच रचनात्मकता को आगे लाने और उससे जुड़े रहने की होड़ लगी रहती थी और लिखने वाले का सम्मान होता था। कोशिश होती थी कि हर अच्छा रचनाकार उनके संगठन में आ जाए। अब उखाड़-पछाड़ और स्वीकार-नकार की होड़ में शामिल लोग लिख कम रहे हैं, बयान ज्यादा दे रहे हैं। ‘ले दही-दे दही’ जुमले के अनुयायी एक दूसरे की पीठ थपथपाकर इतिश्री कर ले रहे हैं। लेखकीय संगठनों में क्रीमी लेयर और उसके नीचे के लोग साफ तौर पर अलग-अलग दिखाई देते हैं। क्रीमी लेयर में शामिल लोग तमाम हो-हल्लों से दूरी बनाकर चलने में ही ठीक समझते हैं। यही वजह है कि स्थिति उतनी बेहतर नहीं है, जितनी होनी चाहिए।
लिहाजा यह तय है कि दूधनाथ जी को अपने एलान को अमली जामा पहनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। दूधनाथ जी के पास यह क्षमता तो है ही कि वे इन तमाम दुरूहताओं से निपटकर लेखकीय संगठनों के इतिहास में कुछ नए पृष्ठ जोड़ सकें। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दिन हमें लेखकीय संगठनों को बेमानी लफ्फाजी से मुक्त होते और रचनात्मकता से जुड़ते और उसका सम्मान करते दिखाएंगे। अगर ऐसा होता है तो सच में हम सब रचनात्मकता के नए अध्याय लिखे जाते देखेंगे और प्रजतांत्रिक मूल्यों को मजबूत होते हुए भी। आमीन......।    




   


......वे जो  हमेशा अपने समय का सच रचते रहे 

कथाकार अमरकांत से धनंजय चोपड़ा की बातचीत 
वे अपने समय को बखूबी जीते थे, उसमें रम जाते थे, उसकी मिठास, कड़ुवाहट, उठा-पटक, उहापोह और जीवन संघर्ष का अनुभव लेते थे और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिन्दगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, मौत के नगर, दोपहर का भोजन, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी, इन्हीं हथियारों से जैसी सैकड़ों कालजयी कृतियां रच डालते थे। वे अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए मिलते थे, लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आती थी। वे जोश के साथ मुलाकात करते थे और लोगों को आत्मविश्वास भेंट कर देते थे। वे उम्र के कई अस्सी पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन किसी युवा रचनाकार से अधिक रचनाकर्म करते थे। यह सिर्फ इसलिए कि वे अमरकांत थे। वरिष्ठï कथाकार-पत्रकार अमरकांत!
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वे अमरकांत हैं। आजादी की लड़ाई केदिनों से ही उन्होंने जिस बेबाकपन को अपनाया वह किसी भी दौर में लिखते हुए भी उनकी पहचान बना रहा। नई कहानी के दौर से गुजरते हुए ही अमरकांत ने अद्ïभुत कलात्मक रचनायें देना शुरू कर दिया था। ‘बस्ती’ कहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आयी हताशा से साक्षात्कार कराती है। डिप्टी कलक्टरी अपने समय के एक बड़े सच को उजागर करती है तो गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां ढोंग और अवसरवादिता-काईंयापन पर चोट करती मिलती हैं।
अमरकांत अपनी रचनाओं में  इस बात से बखूबी परिचित मिलते हैं कि इस नंगे-भूखे देश में सबकुछ आशा और निराशा केबीच पेण्डुलम की तरह झूलता ही रहेगा। वे ‘व्यंग्य’ को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे और उसकी मार को दवा की तरह। भले ही अमरकांत सामाजिक-राजनीतिक उठापटक से अपने को तटस्थ रखते हों, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और हर एक विद्रूपता के खिलाफ चीखती, ‘इन्हीं हथियारों से’ वार करती और सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद जगाती मिलती हैं। अनगिनत कालजयी कृतियों देने वाले अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार सहित देश के कई बड़े सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। साहित्यकारों के पुरस्कार दिये जाने पर वे टिप्पणी करते हुए सहज भाव से कहते हैं कि ‘कोई लेखक पुरस्कार पाने के लिए थोड़े ही लिखता है। यह भी जान लीजिये कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते। प्रेमचन्द, रेणु, निराला बिना किसी पुरस्कार के ही अमर हैं। हां, यह अवश्य है कि पुरस्कार या सम्मान पाने वाले लेखक की अपने समाज और पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है।’
कथाकार अमरकांत से यह बातचीत उस लम्बी बातचीत का एक हिस्सा है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज की मीडिया रिसर्च सेल में धरोहर के रूप में सहेजने के लिए किया गया था।  हमें पता था कि अमरकांत जी से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है तो थमने का नाम ही नहीं लेता। उनके पास आजादी के संघर्ष का आंखों देखा और भोगा इतिहास है तो हिन्दी पत्रकारिता के मंजावट वाले दिनों का अनुभव भी है। वे साहित्य की रचना ही नहीं करते रहे हैं, बल्कि रचनाकारों की कई-कई पीढिय़ां तैयार करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया है। यही वजह थे कि हम वीडयिो कैमरा लगाकर बैठ गए और वे बोलते रहे .... अपने समय का इतिहास और  तैयार होते रहे आने वाली कई पीढिय़ों के लिए कई -कई अध्याय। प्रस्तुत हैं उनसे हुई इसी लम्बी बातचीत के कुछ अंश:

पहली कहानी कब लिखी?
प्रश्न सुनते ही मुस्कराते हैं अमरकांत जी। कुछ याद करते हुए कहते हैं- पढ़ाई के दिनों में शरतचन्द को पढक़र कुछ रोमांटिक कहानियां लिखी थीं, लेकिन वे सब कहीं छपी नहीं। वह समय 1940 के आस-पास का रहा होगा। छपने वाली पहली कहानी ‘बाबू’ थी, जो आगरा से निकलने वाले समाचार पत्र ‘सैनिक’ के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। शायद 1949-50 में (कुछ याद करते हुए)। दुखद यह रहा कि इस कहानी की न तो मेरे पास स्क्रिप्ट ही बची और न ही इसका प्रकाशित रूप। गुम गई ये कहानी। यही वजह है कि मैं हमेशा अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ को कहता हूं, जो पहले प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में मैंने पढ़ी और बाद में 1953 में ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई। इसी कहानी के बाद मैं सम्मानित लेखकों की श्रेणी में शामिल हो गया। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, जो आज तक जारी है।
 
आज के कथा लेखकों और उनकी रचनाओं को आप किस रूप में पाते हैं? 
नए लेखकों के सामने उनका समय और उसकी सगााइयां हैं। इन दिनों नई परिवर्तित परिस्थितियां हैं, जो हमारे शुरुआती दिनों से एकदम भिन्न हैं। ऐसा नहीं है कि नए लेखक जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। नई-नई समस्याओं पर लगातार लिखा जा रहा है। कई लेखक तो अपने समय से जूझ कर बेहतर कृतियां देने में सफल भी हो रहे हैं। हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बहुत से नए लेखक हड़बड़ी में हैं। मेरा मानना है कि मेहनत के बिना अ'छी रचना नहीं लिखी जा सकती है। शैली और भाषा में नए प्रयोग की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन ऐसा कम ही लेखक कर रहे हैं। एक बात और, अब हमारे समय जैसा सहज और सरल समय नहीं रहा और यही वजह है कि नई पर्स्थितियों में रचनाकर्म कठिन होता जा रहा है।

और आलोचकों की परफार्मेंस पर आपकी क्या राय है?
साहित्य में आलोचना के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आलोचना का मतलब सिर्फ आलोचना करना ही नहीं होता, जैसा कि प्राय: देखने-पढऩे को मिलता है। पहले के टीकाकार जो काम करते थे, वही आलोचकों करना चाहिये। अब देखिये, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन की मूल प्रति है ही नहीं। उसकी टीका लिखी गयी। वही मिलती है। उसी से इस दर्शन को समझा जाता है। आलोचकों को चाहिये कि वे बेहतर कृतियों को खोजकर उनकी व्याख्या करें, टीका लिखें। मैं यह बात टुटपुंजिए आलोचकों के लिए नहीं कह रहा हूं। गम्भीर रूप से आलोचना कर्म में जुटे लोगों को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। कुछ युवा आलोचकों ने उम्मीद जगा रखी है।  

निष्क्रिय पड़ते जा रहे लेखकीय संगठनों को आप क्या सलाह देंगे?
मैं यह नहीं कहूंगा कि वे निष्क्रिय हो गये हैं। वे सब अपनी नई मान्यताओं के अनुरूप काम कर रहे हैं। देखिए, हमारे समय में ये संगठन बहुत अधिक सक्रिय हुआ करते थे। मैं प्रगतिशील विचारधारा का नहीं था, लेकिन ये प्रगतिशीलियों की सक्रियता ही थी कि वे मुझे अपनी ओर ले गये। मैंने अपनी पहली कहानी आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ही सुनाई। आगरा के बाद जब इलाहाबाद आया तो यहां भी इस संगठन के लोगों ने मुझे अपने से जोड़ लिया। यहां उन दिनों परिमल संगठन भी बहुत सक्रिय था। दोनों ही संगठनों के बीच लेखन में आगे निकल जाने की होड़ मची रहती थी। स्वस्थ्य विमर्श होते थे। मेरा मानना है कि मतभेद होना गलत नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। इसी से नये रास्त निकलते हैं। संगठनों में होने वाले विमर्श नई पीढ़ी को तैयार हेने का मंच और अवसर उपलब्ध कराते हैं। संगठनों को चाहिये कि मतैक्य न होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों को आगे बढ़ाने के लिए काम करें।

आपने लगभग चालीस वर्ष पत्रकारिता की है। तब और अब की पत्रकारिता में क्या फर्क महसूस करते हैं? 
बहुत फर्क आया है। वेतन के मामले में कई अखबारों व पत्रिकाओं ने सार्थक पहल की है। हमारा समय वेतन के मामले में इतना बेहतर नहीं था। हमने आपातकाल भोगा है और उन दिनों पत्रकारों के समक्ष आने वाले संकट को भी। फिलहाल अब  पत्रिकाओं और अखबारों की प्रस्तुतियों और कंटेंट के वैविध्य में तो ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं,जिनकी कल्पना भर हम अपने समय में करते थे। पत्रकारों के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। ठीक उसी तरह की चुनौतियां हैं, जैसी लेखकों के सामने हैं। (अमरकांत जी टीवी पत्रकारिता पर कुछ नहीं कहते, शायद कहना नहीं चाहते।)  

आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने वाले अमरकांत से आज के हालात पर टिप्पणी मांगी जाये तो क्या होगी?
इस प्रश्न पर कुछ देर संयत रहने के बाद अमरकांत जी हंसते हुए कहते हैं-अब भ्रष्टाचार और घोटालों वाले इन हालातों पर क्या टिप्पणी की जाये। हाल के आंदोलन अपने समय को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। बदली परिस्थितियों में राजनीति और उसके मानक बदल गये हैं। लोगों की आकांक्षायें बढ़ी हैं और जागरूकता भी। हमारे देश की व्यवस्था जनतंत्र को संतुष्ट कर पाने में विफल सी हो रही है। गांव के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गयी है तो शहरी लोगों में राजनीति के प्रति ऊबाहट बढ़ी है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की गारंटी की लड़ाई जरूरी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि देश में एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है। एक बात और जिस देश में प्रगतिशील जनतंत्र नहीं होता वह कमजोप पड़ता जाता है।

एक लेखक के रूप में आप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं?
हां, यह सवाल बहुत जरूरी है। मैं जब सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लेने रूस गया था तो मुझे वहां टालस्टाय और चेखव के घर देखने का मौका मिला। वहां की सरकार ने दोनों ही लेखकों के घर, उनकी चीजों, उनकी किताबों और उन पर लिखी गयी किताबों को धरोहर के रूप में सम्भालने की जिम्मेदारी उठी रखी है। हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है कि महादेवी, पंत और निराला के घरों और उनकी चीजों का क्या हश्र हुआ है। सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी है। अरे भाई, किसी लेखक को पुरस्कार या सम्मान दे देने भर से कुछ नहीं होता। पुरस्कार या सम्मान तो लेखन के लिए होता है। सरकार को चाहिये कि बेघर लेखक को घर देने, प्रकाशकों से समय पर उचित रायल्टी दिलाने और उन्हें आर्थिक तंगी से उबारने  की दिशा में भी कदम उठाने की पहल करे और ठोस नीतियां बनाये। सुना है कि बंगाल में ऐसी कोई नीति बनी है, लेकिन पता नहीं यह कितना सच है। हिन्दी लेखकों के लिए तो इस तरह की अब तक कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को नए लेखकों और शोधार्थियों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। पढऩे और लिखने की प्रवृत्तियों को जितना प्रत्साहन मिलेगा उतना ही बेहतर समाज और देश हम बना पायेंगे।

आजकल आप क्या लिख रहे हैं? 
नियमित लेखन नहीं हो पा रहा है। ‘एक थी गौरा’ उपन्यास को पुरा करने में जुटा हूं। एक वर्ष में पूरा कर लेने की योजना है। पत्रकारिता पर भी एक उपन्यास लिखने की योजना बनी है। ‘खबरों का सूरज’ नाम के इस उपन्यास में मैं ‘सैनिक’, ‘उजाला’, ‘भारत’ व ‘अमृत पत्रिका’ आदि दैनिक व साप्ताहिक पत्रों व मित्र प्रकाशन की ‘मनोरमा’ पत्रिका में काम करते हुए मिले अनुभवों को पाठकों के साथ बाटूंगा। यह उपन्यास पत्रकारों के संघर्ष और संघर्ष के दौरान यूनियन के नेताओं से मिले धोखे पर आधारित होगा।

एक लम्बी बातचीत के बाद भी उनका चेहरा एक स्फूर्तिभरी दमक लिए हुए दिख रहा था। वे बात करते वक्त यह अहसास ही नहीं होने देते हैं कि हम एक बड़े लेखक के साथ हैं, जिसे देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और अनगिनत शोधकर्मी जिनपर शोध कर रहे हैं। वे जिस अंदाज में बात करते हैं, वह अपने आप में एक अलग शैली का निर्माण करता है। जीवन की विषमताओं पर लिखते समय या फिर जीवन संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते समय, हर बार यही लगता है कि वे अपने यूवा दिनों का स्वतंत्रता आंदोलनकारी रूप को अभी तक भूल नहीं पाये हैं। दूसरों के दुखों, कष्टों, संघर्षों, दुविधाओं को नितांत निजी मानकर रचना कर देने वाले अमरकांत चलते-चलते अपने समय के सच से मुठभेड़ करने की सीख देना नहीं भूलते।