शुक्रवार, मार्च 23

अपने समय का एक बड़ा सच हैं अमरकांत


 अपने समय को समझना और फिर उसे रचनाओं में उकेर देना का काम करने वाले शब्द शिल्पी अमरकांत को कल ज्ञानपीठ से सम्मानित किया जाना  साहित्य जगत के लिए ही नहीं बल्कि हिन्दी जगत के लिए बड़ा अवसर है। अमरकांत उन गिने-चुने रचनाकारों में से हैं जो अपने समय को बखूबी जीते हैं, उसमें रम जाते हैं, उसकी मिठास, उसकी कड़ुवाहट, उठा-पटक और उससे मुठभेड़ का अनुभव लेते हैं और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिंदगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी और इन्हीं हथियारों जैसी कालजई कृतियां रच डालते हैं। वे अपने जीवन के तमाम तरह के संघर्षों से जुझते हुए तो मिलते हैं, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन नहीं मिलती। वे हर हाल में जोश के साथ मिलते हैं और हर किसी में आत्मविश्वास और उत्साह भर देते हैं।
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वह अमरकांत ही हैं। आजादी की लड़ाई के दिनों से ही बेबाकपन अपनाकर अपनी जिंदगी की राहों को तय करके निकल पडऩे वाले अमरकांत भोगे हुए सच पर कलम चलाते गये और हिन्दी पट्टी की चेतना के प्रतीक बन गये। यही वजह है कि उनकी कहानियां अद्भुद कलात्मकता के कारण कई-कई पीढिय़ों की आवाज बनकर समाज के साथ-साथ बनी हुई हैं। ‘बस्ती’ कहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आई हताशा से साक्षात्कार कराती है। ‘डिप्टी कलक्टरी’ अपने समय के सच को बखान तो करती है, लेकिन उसके बाद बी हर समय का प्रतिनिधित्व करती मिलती है। गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां भी इसी कसौटी पर खरी उतरती हैं।
अमरकांत को पढ़ते हुए इस बात का अहसास सहजता से हो जाता है कि वे आशा और निराशा के बीच घड़ी के पेण्डुलम की तरह झूलते भारतीय समाज को बखूबी समझते हैं और शायद यही वजह है कि वे व्यंग्य की मार से सबकुछ दुरुस्त कर लेने की कोशिश नहीं छोड़ते। भले ही अमरकांत सामाजिक उठापटक से खुद को तटस्थ रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रूपताओं के खिलाफ चीख-चीख कर अलख जगाने में जुटी रहती हैं। पेश से पत्रकार होना उनके लिए जरूरी सा लगता है। ज्यादातर रचनाएं यह सिद्ध भी कर देती हैं कि वे मूलत: पत्रकार ही हैं। वास्तव में अमरकांत जिस अंदाज में बात कहते हैं, वह एक अलग तरह का आभास देता है। इस अंदाज को अमरकांत शैली कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वे अपने पास बैठे हर किसी को यह अहसास ही नहीं होने देते के वह अपने समय के किसी बड़े रचनाकार के पास बैठा है। वैसे भी अमरकांत को अपने पीछे की कई-कई पीढिय़ों को तैयार करने का श्रेय दिया जाये तो गलत नहीं होगा। वे इतने आत्मीय और सहज हैं कि हर छोटा-बड़ा रचनाकार उनसे बहुत कुछ पा लेने में सफल हो ही जाता है। अब तक साहित्य अकदमी सहित कई बड़े सम्मानों को प्राप्त कर चुके अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते देखना अपने समय की हर पीढ़ी के लिए बड़ी साहित्यक उपलब्धि होगी।


और जब उन्हें ‘सेवक’ उपाधि मिली 
बात १९८८ की है। सामाजिक-साहित्यिक संस्था ‘समाज सेवा सदन’ अपनी दसवीं वर्षगांठ मना रही थी। संस्था में सभी पदाधिकारी युवा ही थे। मैं भी उसमें शामिल था। तय हुआ कि अपने अपने क्षेत्र में विशेष योगदान देने वालों को ‘सेवक’ उपाधि से सम्मानित किया जायेगा। साहित्य के लिए अमरकांत का नाम तय हुआ। डर यह था कि वे इसे स्वीकार करेंगे या नहीं। अमरकांत जी उन दिनों बीमार चल रहे थे। हम सब उनके घर पहुंचे और उनसे सम्मान लेने का आग्रह किया। वे सहज ही तैयार हो गये और हमें बेहतर काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया। उन्हें सेवक उपाधि का सम्मान पत्र देते समय ऐसा लग रहा था कि हम सब सम्मानित हो रहे हैं। ...और यही सच भी था।

फेस बुक पर अमरकांत
फेसबुक पर जैसे ही पोस्ट लिखा कि अपने समय के बड़े रचनाकार अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने का दिन आ गया है, वैसे ही ढेर सारे लोगों ने कुछ ही पलों में उसे लाइक करने और कमेंट लिखने की होड़ मचा दी। अनायास ही हमारे सामने वह सच था, जिस हम हमेशा यह कहकर नकारते आ रहे थे कि देश के युवाओं में अपनी भाषा के साहित्य और साहित्यकारों के प्रति लगाव ही नहीं रहा है। वास्तव में इंटरनेट पर फेसबुकिंग करते युवाओं से इस तरह की उम्मीद ही नहीं की जाती कि वे साहित्य के प्रति लगाव भी रखते हैं, जबकि सच्चाई यह है ्क लगभग सभी युवा रचनारा इन दिनों सोशल नेटवर्किंग के सहार देश-दुनिया के लोगों से जुड़े हुए हैं।