रविवार, अगस्त 17

बात कहने के बहाने और रास्ते


पिछले दिनों मैं एक स्टडी ग्रुप के साथ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों की यात्रा पर था। मकसद था आदिवासियों की जीवन शैली के अनुरूप कम्युनिकेशन टूल्स की पहचान करना। यह ग्रुप ऐसे समय वहां पहुंचा था जब पूरा देश इस बहस का हिस्सा बना हुआ है कि आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा में किस तरह लाया जाये। राइट टु इनफार्मेशन के इस समय में उन्हें उनके अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध कानूनों व सरकारी योजनाओं की जानकारी से लैस कराने के लिए कौन सा कम्युनिकेशन टूल कारगर होगा, तलाश का मुख्य मुद्दा था। इसे लेकर ग्रुप के सभी सदस्यों के पास अपनी-अपनी सोच थी। लेकिन यह सभी जानते थे कि यह काम उतना आसान नहीं है, जितना समझा जा रहा है।
फिलहाल हम सभी मीडिया में खुद को माहिर समझने वाले लोग अपनी-अपनी सोच के साथ बस्तर में थे। एक ऐसे इलाके में जिसे वहां से बाहर रहने वाले लोग अत्यन्त पिछड़ा मानते हैं। हमारे सामने कला और सम्प्रेषण के तरीकों का इतना बड़ा जखीरा था कि सहसा हमें लगा कि हमारी पूरी यात्रा ही बेमानी है। मुझे यह कहने में कतई गुरेज नहीं कि कम्युनिकेशन के जितने कारगर टूल्स आदिवासी कहे जाने वाले लोगों के पास हैं, शायद उतने टेक्नोलाजी बेस्ड समाज के आधुनिक कहे जाने वाले लोगों के पास नहीं हैं। बड़ी बात यह कि उनके टूल्स एक साथ कई-कई मैसेज देने में सक्षम हैं और हर मैसेज की अपनी सार्थकता को किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता।
मैं यहां अपने कुछ अनुभव शेयर करना चाहता हूं। सबसे पहले मैं बात करूंगा आदिवासी चित्रकार पेमा फात्या की। झाबुआ में रहने वाले इस चित्रकार से मैं कई वर्षों पहले भी मिला था। पिथौरा चित्रकला में माहिर इस बुजुर्ग चित्रकार की कृतियों में प्रकृति को बचाने से लेकर समाजिक सौहाद्र्र और साक्षरता के सहारे खुद के जीवन को बेहतर बनाने के संदेश मिल जाते हैं। रोचक बात यह कि यह सभी बातें अकृतियों और रंग संयोजन के माध्यम से कहा जाता है और बड़ी ही सहजता से समझ में भी आ जाता है। झाबुआ की दीवारों पर बने ये चित्र जितनी सरलता से भील जाति के लोग पढ़ लेते हैं शायद उतनी सरलता से उन्हें किसी आधुनिक आफसेट मशीन में छपे कलरफुल पोस्टर को पढ़ाने के लिए कफी मशक्कत करनी पड़े। हमने झाबुआ के आस-पास के इलाकों में दीवारों पर बने चित्रों को पढऩे की जितनी बार कोशिश की उतनी बार हर एक चित्र एक नया मैसेज देता हुआ मिला। बात कहने की सबसे पुरानी विधा इतनी सशक्त ढंग से हमारे सामने थी कि हम सभी चमत्कृत थे।
मैं अपनी इस यात्रा की एक और फाइन्डिंगस आपके साथ शेयर करता हूं। वह है वहां के लोगों का रेडियो प्रेम। अपनी भाषा और अपनी संस्कृति में रचे-बसे ये लोग आधुनिक कही जाने वाली दुनिया के लोगों के सरीखे ही हैं। इनमें से कुछ युवा इलाके के पास के शहरों में पढ़ाई करने या रोजी कमाने जाते रहते हैं। इनके पास मोबाइल भी हैं और छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर रेडियो भी। ये हिन्दी फिल्मों के गाने सुनते हैं और आकाशवाणी से प्रसारित समाचार भी। वैसे रेडियो लगभग सभी के घर में है। मेरे लिये यह रोमांचित करने वाला अनुभव था कि आदिवासियों में रेडियो सुनते हुए अपने काम निपटाने की आदत सा बन गई है।
अब जरा इमेजिन कीजिये कि आप आदिवासी इलाके में हैं और रेडियो गीत-संगीत के साथ दीवारों पर मीनिंगफुल पिथौरा या फिर कोई अन्य फोक पेन्टिंग बनायी जा रही है। थोड़ी ही देर में यह तैयार भी हो जाती है। उधर से गुजरने वाला हर कोई थोड़ी देर के लिये ठहरता है और कुछ न कुछ गुनता-बुनता आगे बढ़ जाता है। कौन कहता है कि इस समाज में कम्युनिकेशन के टूल्स तलाशे जाने की जरूरत है? वास्तव में हर समाज चाहे वह अगड़ा हो या पिछड़ा, अपनी बात कहने के बहाने और रास्ते तलाश ही लेता है। .. .. और हमारी रिपोर्ट की सबसे अहम पंक्ति यही है।