रविवार, फ़रवरी 15

...तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को


आज पन्द्रह फरवरी को लक्ष्मीकांत वर्मा का  जन्मदिन है। यूं तो उन्हें रंगकर्म की कई संस्थाएं याद करती रहती हैं, लेकिन किसी साहित्यिक संस्था या संगठन द्वारा उनकी याद में कोई कार्यक्रम न करना खलता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक पीढ़ी ऐसी है इस शहर में जो उन्हें बहुत ही शिद्दत के साथ याद रखती है। अभी इस शहर में उनके साथ साहित्यिक संगोष्ठियों में मौजूद रहने वाले भी कई हैं जो उनकी यादों को बहुत करीने से सहेजे होंगे। कारण केवल इतना कि उनके जैसा सहज और सरल व्यक्तित्व साहित्य में जल्दी नहीं मिलता।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैं साहित्यिक खबरें खोजता इस शहर में फिरा करता था, उन दिनों लक्ष्मीकांत हम जैसे कई पत्रकारों के सबसे बड़े पैरोकार हुआ करते थे। वे न केवल साहित्य की राजनीति की दीक्षा दिया करते थे, बल्कि अपने उदाहरणों से हमें अपने समय से जूझने का सलीका  भी सिखाया करते थे।  वास्तव में तमाम उठापटकों और सामाजिक-साहित्यिक बवंडरों के बीच के बीच अपनी ठसक बनाकर लगातार सक्रिय रहना, केवल और केवल लक्ष्मीकांत के ही वश में था। वे एक साथ कई-कई पीढिय़ों में सक्रिय और लोकप्रिय थे। मुझे याद है कि वे शहर में होने वाले सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में पहुंचने की कोशिश करते और हर नए रचनाकार का हौसला बढ़ाने में लगे रहते।
पेश से पत्रकार रह चुके लक्ष्मीकांत वर्मा सामाजित घटनाओं के प्रति जितनी सजगता रखते थे, उतनी ही राजनीतिक सतर्कता भी उनमें दिखती थी। लेकिन, मजाल है कि लाभ के लिए वे अपनी साख और मान्यताओं से किसी तरह का समझौता कर लें। वे जिस शिद्दत के साथ पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों के प्रति चिंतित रहते थे, मैंने अन्य किसी साहित्यकार को चिंतित होते नहीं देखा। वे केवल चिंता जता कर इतिश्री कर लेने वालों में से नहीं थे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रदेश सरकार को पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों की बेहतरी के लिए नीतियां बनाने और उन्हें अमल में लाने के लिए बकायदा एक मसौदा तैयार करके दिया था। यदि उस मसौदे पर अमल हुआ होता तो तस्वीर का रुख और ही होता।
लक्ष्मीकांत वर्मा ने अपने पीछे की पीढिय़ों को अपनी बात बेबाकी से रखना तो सिखाया ही, साथ ही उस पर इमानदारी के साथ डटे रहना भी सिखाया। मुझे यह बात कई बार दुहराने में कोई गुरेज नहीं है कि हमारे समय की कई पीढिय़ों की बनावट और मंजावट में लक्ष्मीकांत वर्मा का बहुत बड़ा योगदान था। अपने समय को समझना और फिर उस अपने समाज के बने-बनाए खांचे में इस तरह फिट कर देना कि हर किसी को वही सच लगने लगे, यह उन्हें बखूबी आता था। उनके कविता संग्रह ‘रू-ब-रू लक्ष्मीकांत’ में इस बात को सच होते देखा जा सकता है। तो फिर क्यों न याद रखें हम लक्ष्मीकांत वर्मा को। उनकी स्म़तियों को सहेजते हुए उन्हें उनके जन्मदिन पर नमन।