रविवार, जनवरी 10

प्रयोगधर्मी सम्पादक थे रवीन्द्र कालिया


‘हम सब रवि को यूं ही जाने नहीं देंगे। भरोसा रखो वे वापस लौटेंगे।’ तीन दिनों पहले ममता जी ने जब ये कहा था तो अनायास ही लगने लगा था कि शायद कुछ आश्चर्यजनक घटे और कालिया जी एक बार फिर हम सब के बीच हों। पर नहीं, ऐसा नहीं हो सका। हम सब के बीच से एक ऐसा व्यक्तित्व विदा ले गया है, जिसने रचनाकारों और पत्रकारों की कई-कई पीढिय़ों को बनाने और मांजने-संवारने का काम  किया। जालंधरी मस्ती, बम्बईया अंदाज और इलाहाबादी ठसक लिए हुए कालिया जी साथ हों तो जीने के मायने कुछ अलग ही हो जाया करते थे। वे सिखाते, हंसाते और फिर बेहतर करने का उत्साह बड़ी ही सहजता से दे देते।
मुझे उनके साथ तब के चर्चित साप्ताहिक गंगा-जमुना में सीखने और कुछ बेहतर कर गुजरने का मौका मिला। वे शीर्षकों को लगाते समय और खबरों को जीवंतता देते समय बड़ी ही सतर्कता बरतते और साहितियक चुहल से उनमें रोमांच और रोचकता भर देते। कई बार तो गंगा जमुना में छपने वाले आलेख या खबर अपने शीर्षकों से ही चर्चा में आ जाते थे। मैंने उनसा प्रयोगधर्मी सम्पादक नहीं देखा। उन्होंने देश की वागर्थ और नया ज्ञानोदय पत्रिका का सम्पादन करते हुए साहित्यिक पत्रकारिता को एक नए ढंग के तेवर से लैस कर दिया। ज्ञानोदय में तो उन्होंने लेखकों का परिचय देने में जो प्रयोग किया वह अद्भुद था। वे किसी मुद्दे पर अपनी राय बनाते थे और फिर वे उसपर अडिग रहते थे। हम लोगों के साथ किसी विषय पर चर्चा होती तो हमेशा अभिभावक की मुद्रा में आ जाते और पहले सबको सुन लेते तब अपनी बात रखते।
मुझे याद है, जब इलाहाबाद की रानी मंडी में स्थित अपने निवास को वे छोड़ रहे थे और किताबों को ढेर अलमारियों से बाहर आया हुआ था। उनकी इलाहाबाद प्रेस में छपी कई किताबें भी उस ढेर में थीं। रचनाओं की इतनी अकूत सम्पदा मेरे सामने थी। मैं उस बड़ी ही कातर दृष्टि से निहार रहा था। वे तपाक से बोले- कुछ किताबें लेनी हो तो उठा सकते हो। बस फिर क्या था मैंने तड़ातड़ कई किताबें छांट लीं। उन्होंने उन किताबों को देखा और कहा कि-  तुम पास हो गए। अगर फेल हुए होते तो मैं किताबें वापस धरवा लेता। मैंने पूछा कि पास होने से आपका क्या मतलब है? तो वे बड़ी ही सहजता से बोले- किताबों का चयन। नई पीढ़ी में पढऩे-लिखने की आदत पड़े, इसे लेकर वे हमेशा कुछ न कुछ सुझाते रहते थे। मैंने उन्हें जब भी विश्वविद्यालय में अपने विभाग सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज में बुलाया वे समय निकालकर दिल्ली से आए और कुछ नया बता कर-सिखाकर गए।
मुझे व्यंग्य लिखने की आदत उन्हीं ने डलवाई। गंगा जमुना में ‘बैठे ठाले’ कॉलम में मेरे लिखे व्यंग्य छपा करते थे। पिछले वर्ष जब उनका संग्रह आया तो वे दिल्ली से इलाहाबाद उसका विमोचन करने आए। यह मरे लएि बड़ी बात था, लेकिन उन्होंने कहा कि तुम मेरे दोस्त हो और दोस्त की बात भला कोई टाल सकता है। मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा था, लेकिन वे हमेशा अपने छोटों के बीच उन सा ही हो जाया करते थे। यही वजह थी कि युवाओं की फौज को वे संवारने का काम बड़ी ही सहजता से कर सके। वे कई पीढिय़ों तक भुलाए नहीं जा सकेंगे। उनके शब्द हमेशा साथ निभाते रहें।