सोमवार, फ़रवरी 17

बड़ी कठिन है डगर पनघट की...

जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने एलान किया कि वे अपनी लेखक बिरादरी को एक साथ काम करते देखना चाहते हैं। उन्होंने लेखक बिरादरी के तमाम संगठनों खासकर प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को साथ लेकर उन ताकतों का सामना करने की बात कही है, जो गाहे-ब-गाहे हमारी सामाजिक संचेतनाओं को चुनौती देती रहती हैं। दूधनाथ सिंह ने यह भी कहा है कि वे बरास्ते जनवादी लेखक संघ, रचनात्मक लेखन को बढ़ावा देने के साथ-साथ प्रजातांत्रिक शक्तियों को मजबूत करने का भी काम करेंगे। हम सब की शुभकामनाएं और बिना शर्त सहयोग उनके साथ होना चाहिए।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह सब क्या इतना आसान है? सच यह है कि लेखकों के बीच बिरादरीवाद इतनी गहराई तक है कि पूछिए ही नहीं। एक संगठन के कार्यक्रम में स्थानीय स्तर पर अपने-अपने संगठन से बाहर निकलकर भागीदारी निभाने वाले तो मिल जाएंगे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होते देख पाना दूर का सपना ही है। लेखकीय संगठनों का एक और रवैया है कि वे पूरी लेखकीय बिरादरी को अपने साथ लेकर चलना ही नहीं चाहते। कोई लेखक अगर उनके संगठन का सदस्य नहीं है या फिर उनकी विचारधारा से अभिप्रेरित किसी अन्य संगठन का भी सदस्य नहीं है तो उनके किसी काम का नहीं होता। वे न तो उसे अपने साथ बैठाना पसंद करते हैं और न ही अपने आयोजनों में भागीदारी का मौका ही देते हैं। जो उनके द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर आ गया वही अच्छा लेखक है, बाकी सब नाकारा। मजेदार बात यह कि लेखकीय संगठन के लोग किसी नए लेखक की पीठ तभी ठोंकने को तैयार होते हैं, जब तक वह उनके खेमे में बतौर सदस्य नहीं आ जाता। ये लोग खेमे के बाहर के लेखक की रचना पर चर्चा तक करने से गुरेज करते हैं।
पुराने दिनों की स्वस्थ्य परम्पराएं गायब हैं। जब संगठनों के बीच रचनात्मकता को आगे लाने और उससे जुड़े रहने की होड़ लगी रहती थी और लिखने वाले का सम्मान होता था। कोशिश होती थी कि हर अच्छा रचनाकार उनके संगठन में आ जाए। अब उखाड़-पछाड़ और स्वीकार-नकार की होड़ में शामिल लोग लिख कम रहे हैं, बयान ज्यादा दे रहे हैं। ‘ले दही-दे दही’ जुमले के अनुयायी एक दूसरे की पीठ थपथपाकर इतिश्री कर ले रहे हैं। लेखकीय संगठनों में क्रीमी लेयर और उसके नीचे के लोग साफ तौर पर अलग-अलग दिखाई देते हैं। क्रीमी लेयर में शामिल लोग तमाम हो-हल्लों से दूरी बनाकर चलने में ही ठीक समझते हैं। यही वजह है कि स्थिति उतनी बेहतर नहीं है, जितनी होनी चाहिए।
लिहाजा यह तय है कि दूधनाथ जी को अपने एलान को अमली जामा पहनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। दूधनाथ जी के पास यह क्षमता तो है ही कि वे इन तमाम दुरूहताओं से निपटकर लेखकीय संगठनों के इतिहास में कुछ नए पृष्ठ जोड़ सकें। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दिन हमें लेखकीय संगठनों को बेमानी लफ्फाजी से मुक्त होते और रचनात्मकता से जुड़ते और उसका सम्मान करते दिखाएंगे। अगर ऐसा होता है तो सच में हम सब रचनात्मकता के नए अध्याय लिखे जाते देखेंगे और प्रजतांत्रिक मूल्यों को मजबूत होते हुए भी। आमीन......।