मंगलवार, जनवरी 27

जो दिलों में रहते हों, उन्हें स्मारकों की जरूरत नहीं


निराला सम्मान लेने के बाद प्रख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल ने कहा कि हिन्दी के साहित्यकारों को वह सम्मान नहीं मिलता जो अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को मिलता है। खासकर हमारी सरकारें हमें उस तरह नहीं लेतीं, जैसे कि अन्य भारतीय भाषाओं के प्रदेशों की सरकारें अपने साहित्यकारों को लेती हैं। उन्होंने बांग्ला और तमिल भाषा के साहित्यकारों के साथ रूस के साहित्यकारों के सम्मान में होने वाली गतिविधियों का जिक्र किया और समारोह में उपस्थित लोगों का आह्वान किया कि वे केन्द्र सरकार और प्रदेश सरकार को चिट्ठियां लिखकर यह मांग करें कि नई बनने वाली कालोनियों, हवाई अड्डों और सडक़ों के नाम हमारे साहित्यकारों के नाम पर करें, ताकि लोग अपने साहित्यकारों को करीब से महसूस कर सकें।
क्या आप समझते हैं कि ऐसा किया जाना जरूरी है? मेरी समझ में इस तरह की कोई भी पहल बेमानी ही साबित होगी। अव्वल तो हिन्दी के साहित्यकार अपने पाठकों से दूर हैं, ऐसा गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता। सच यह है कि अन्य भारतीय भाषाओं में बड़े साहित्यकारों की संख्या बहुत कम होती है। लिहाजा जब उनके लिए कोई कार्यक्रम होता है तो बहुत बढ़-चढक़र लोग भाग लेते हैं और यह अहसास होता है कि वे अपने साहित्यकारों को बहुत सम्मान दे रहे हैं। बरक्स इसके हिन्दी में बड़े साहित्यकारों की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त है। हिन्दी साहित्य की लगातार बनी रहने वाली सक्रियता भी नित ने बड़े साहित्यकारों का नाम इस फेहरिस्त में जोड़ती रहती है।
दूसरी बात यह कि इतनी बड़ी संख्या में साहित्यकारों का होना विचारों की टकराहट का कारण बना रहता है। यही वजह है कि पूरा हिन्दी साहित्य वादों और विवादों में बंटा हुआ है। अब बेचारा हिन्दी का पाठक, किसी वाद-विवाद का हिस्सा बने अगर किसी साहित्यकार को चाहना भी चाहे तो वह ऐसा नहीं कर सकता। वह इसलिए कि हमारे यहां इस तरह का कोई प्रयास नहीं होता कि लोगों को सीधे अपने लेखक से संवाद का मौका मिल सके। बड़े-बड़े स्वनामधन्य लेखकीय संगठन महज बयानिया टाइप के संगठन बन कर रह जा रहे हैं। कभी-कभी तो उनकी चुप्पी पर गुस्सा भी आता है, लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर कुछ कहा तो वे तत्काल से आपको अपना विरोधी घोषित कर देंगे।
जब साहित्य समाज आती जाती सरकारों में अपने लिए ‘स्पेस’ तलाशता है तो वह जनता का नहीं रह जाता। कुछ लोग ही उसके साथ होते हैं और वह भी पार्टी लाइन पर सोच और समझ रखने वाले। मेरे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जब पुरनिया संगठनियों ने अपने-अपने संगठन महज इसलिए छोड़ दिए कि वे जनता से कटे-कटे से रहते हैं। अब चाहे वह नरेश मेहता हों या फिर अमरकांत और चाहे कोई अन्य। सभी ने यह माना कि वादों में बंटकर साहित्य और साहित्यकारों का अहित ही हुआ है। क्षत्रप बनने की ख्वाइश पाले कुछ लोगों ने स्थिति को और भी बिगाडक़र रखा हुआ है।
फिलहाल चित्रा जी की अपील पर कितना अमल होता है यह तो भविष्य ही बताएगा। मुझे जहां तक याद है कि इस शहर में महाप्राण निराला को जनता का सम्मान भी मिलता रहता है। दारागंज में बसंत पंचमी के दिन उनकी मूर्ति पर माला चढ़ाने की होड़ सी लगी रहती है या फिर आज भी होली के दिन लोग महादेवी के निवास पर पहुंचना नहीं भूलते। इलाहाबाद में साहित्यिक ठीहे किसी की कोशिश के मोहताज नहीं होते वे खुद-ब-खुद गुलजार हो जाया करते हैं। इलाहाबादी ठसक शायद ही चित्रा जी की अपील पर अमल कर सके। शायद मैं गलत साबित हो जाऊं। शायद...। कुछ भी हो सकता है। क्या होगा? यह आने वाला समय बताएगा।