सोमवार, अक्तूबर 19

देर आए तो सही पर क्या दुरुस्त भी आए?

बरसों से साहित्यकारों की चुप्पी देख कर कोफ्त हुआ करती थी। बड़े-बड़े मुद्दे आए और निकल गए, लेकिन साहित्य बिरादरी चूं तक करने से बची रही। इक्का-दुक्का विरोध हुआ और इतिश्री मान लिया जाता रहा। मुझे याद है, जब चौरासी के दंगों में पूरे के पूरे सिक्ख खनादान ही मार दिए गए थे या फिर जला दिए गए थे, तब देश में कहीं भी इस तरह का विरोध नहीं दिखा था। न सम्प्रदायवादियों का और न ही सेक्युलरवादियों का। कितने घरों में भय का माहौल वर्षों तक बना रहा। कई-कई खानदान अपने जम-जमाए ठीहे से पलायन कर गए। अकेले इलाहाबाद से ही कितने परिवार पंजाब चले गए। लगता था कि इनकी आवाज उठाने वाला कोई है ही नहीं। आज जो लोग जागे हैं, उनमें से कई तब भी थे और आज से कहीं अधिक जवान और ऊर्जावान थे तब वे। फिलहाल जब जागो तभी सवेरा। लेकिन, ये जिन्हें बहुत पहले ही जाग जाना चाहिए था, वे अब जाग रहे हैं तो सवाल उठने लाजमी हैं। लोगों को इनके जागने में राजनीति दिख रही है तो गलत नहीं है।
वास्तव में सत्ता और साहित्य का हमेशा से छत्तीस आंकड़ा रहा है। साहित्य की प्रवृत्ति ही रही है कि वह व्यवस्था का विरोध करे और उसे जनता के हित में करने की पुरजोर कोशिश करे। सत्ता हमेशा जनता के पक्ष में होने और दिखने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन सच्चाई में वह हो नहीं पाती। चाहे वह कोई भी राजनीतिक दल हो वह चाह कर भी सभी को खुश नहीं कर सकता। भारतीय राजनीति में यह संभव ही नहीं है। जाति-धर्म-क्षेत्र जैसे मुद्दे हमेशा से आड़े आते रहे हैं। शोषण और पोषण के बीच की खाई को पाटने के लिए जनता ही इस्तेमाल में लाई जाती है। साहित्य इसी के खिलाफ आवाज बुलंद करता रहता है। इतिहास पलटकर देख लीजिए जनता के बीच वही साहित्य लोकप्रिय हुआ है, जिसने सत्ता के खिलाफ खड़े होकर जनता की आवाज बुलंद की हो। अब ऐसे में जनता अपनी जीवन यात्रा के हर मोड़ पर यह आशा लगाती ही है कि उसकी आवाज बुलंद करने का बीड़ा उसके अपने समय का साहित्य उठाए। अफसोस यह कि अपने देश में अस्सी के बाद से ऐसा होता दिखा ही नहीं।
इमरजेंसी के बाद थके-हारे साहित्यकारों ने जनता शासन और फिर कुछ सुधरे से दिखे कांग्रेस शासन के बाद यह मान लिया कि उनके अपने समय की लड़ाई खत्म हो गई और वे चुपचाप पड़े रहने में भलाई समझ बैठे। मुझे ऐसा कोई बड़ा आंदोलन याद नहीं आता, जो पिछली सदी में सन अस्सी के बाद से अब तक के समय में साहित्यकारों द्वारा चलाया गया हो। सब एक दूसरे की पीठ थपथपाने या फिर खुद ही खुद की पीठ थपथपाने में मस्त रहे। ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह के दे’ कहावत को चरितार्थ करते हुए पुरस्कार बांटे जाते रहे। संस्थाओं पर कब्जेदारी को लेकर जोड़-तोड़ की जाती रही। प्रकाशकों के साथ मिलकर सरकारी खरीद का लाभ साझा किया जाता रहा और रोना रोया जाता रहा कि पाठक कम हो रहे हैं। जनता कभी मंदिर-मस्जिद तो कभी मण्डल के नाम पर छली जाती रही और सब के सब चुप मार कर अपनी-अपनी सेंध में दुबककर बैठे रहे।  वादों और प्रतिवादों में बंटकर खुद की बात खुद की बनाई मंडली से की जाती रही और उन बातों को अनसुना किया जाता रहा जो इनके खेमे की नहीं थी। जनता ने साहित्य की ओर देखना ही बंद कर दिया तो नए समय और टेक्नोलॉजी को कोसना शुरू कर दिया गया। कह दिया गया कि जनता होड़ और हड़बड़ी में है। मीडिया को भी कोसा गया कि उसने जनता को साहित्य से दूर कर दिया। 
खैर बड़े दिन बाद सब जगे हैं। पुरस्कार वापस हो रहे हैं। ‘पुरस्कार वापसी’ को लेकर उसी तरह चर्चा हो रही है, जैसे कुछ दिनों पहले तक ‘घर वापसी’ और ‘काला धन वापसी’ पर चर्चाएं हो रही थीं। आरोप-प्रत्यारोप के बीच कई बड़े साहित्यकारों ने ‘पुरस्कार वापसी’ को उचित ठहराने में गुरेज किया है। चाहे प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह हों या फिर लेखक महीप सिंह। लेखिका मृदुला गर्ग हों या फिर गिरिराज किशोर, गोपालदास नीरज सरीखे बड़े रचनाकार। हम सुनें तो सही कि ये क्या कह रहे हैं। कहीं ये सही तो नहीं कह रहे। हम बहुत दिन बाद जगे हैं, तो सोचे-समझें। ऐसा न हो कि हम अपनी उसी शाख को काट डालें, जिस पर हम बैठे हैं।