सोमवार, अक्तूबर 19

ओह, हम उतने वफादार क्यों नहीं निकले

इस बात से हम कतई इंकार नहीं कर सकते कि हम अपने समाज और संस्कृति के प्रति उतने वफादार नहीं निकले, जितने कि हमारे पुरखे थे। टेक्नोलाजी के बल पर इतराने वाली मीडिया की चकाचौंध में हम यह समझ ही नहीं सके कि हमारी संस्कृति और सामाजिकता को धता बताया जा रहा है। हमारे संस्कारों को हमारे ही घर में हाशिये पर ढकेला जाता रहा और हम चुपचाप पड़े रह गये। किसी ने टोकने की कोशिश भी की तो हमने समय की मांग कहकर उसे टाल दिया। बंटाधार तो यह हुआ कि हमारा ध्यान समाज के उस तबके की ओर गया ही नहीं, जो इन परिवर्तनों को ही सच मान रहा था। यह इस लिए भी कि उसके सामने हमारे समाज और संस्कृति का सच था ही नहीं। और ये थे हमारे घर-परिवार-समाज के बच्चे। वास्तव में हमारे बच्चे उतने बच्चे नहीं रहे कि हम उनमें अपने बचपन की झलक भी पा सकें। इनकी उम्र अपनी असल उम्र से भी कहीं अधिक लगती है। इनकी तरह की मेच्योर बातें और हाव-भाव हमारे पास कभी नहीं रहे।
कभी-कभी लगता है कि ये बच्चे हमसे भी कई वर्ष अधिक बड़े हो गये हैं। कई-कई मायनों में हम इनके आगे बौने नजर आते हैं। ये बात करते हैं तो इनकी आंखों की चमक देखने लायक होती है। बातों और आंखों की चमक एक नये समय के नये विचारों के साम्राज्य के फैलने पसरने के संकेत देते हैं। बड़ी बात यह कि कभी-कभी इनकी आंखों में सपने नहीं बल्कि महत्वकांक्षायें नजर आती हैं। अपनी महत्वकांक्षाओं को साकार करने के तमाम वैध-अवैध गुर इन्हें मालूम हैं। खतरनाक तो यह कि इन्हें अपने परवरिशकर्ताओं की सलाह की कोई जरूरत नहीं है। बेवजह लगने वाली सलाहों को ये बड़ी ही बेरहमी से खारिज कर देते हैं, बिना इसकी परवाह किये कि पुश्त दर पुश्त चलती आ रही इन्हीं सलाहों को मान कर इनके परवरिशकर्ता अपनी जिन्दगी में सफलतायें अर्जित करते आये हैं।
फिलहाल अपने समय की भयावह होती जा रही फैंटेसी में किसी अदृश्य दैत्य की उंगली पकडक़र आगे बढ़ते हमारे समय के बच्चे अब हमारे लिए ही चुनौती बनते जा रहे हैं। चुनौती भी ऐसी कि हम सामना करने से या तो कतराएं या फिर जूझते हुए हारने के लिए तैयार रहें, क्योंकि टेक्नोलॉजी ने हमें यानी हमारी और हमसे पहले की पीढिय़ों को आउटडेटेड घोषित कर दिया है। अगर जीतना है तो हमें भी इन पीढिय़ों के संग-संग कदमताल करके आगे बढऩा होगा। नए जमाने की नई धुन के साथ थिरक नहीं सकते तो क्या हुआ हम झूम तो सकते ही हैं। और इससे बड़ा सच क्या हो सकता है कि यही तो बचा है हमारे हिस्से की लड़ाई में। सच तो यह कि जो कुछ हमारे सामने है, इसके लिए हम सब जिम्मेदार लोग खुद जिम्मेदार हैं। इसलिए चूं-चपड़ करने से बेहतर है कि नई पीढ़ी के संग हो लिया जाए और उनके संग-संग चलते हुए जो कुछ बेहतर किया जा सकता है, उसे बेहतर करना जारी रखा जाए। अबकी चूके तो यह तय है कि ‘ढंूढ़ते रह जाओगे’ की उक्ति हमारे साहित्य और संस्कृति पर फिट बैठेगी।