बुधवार, जनवरी 2

...अपने ढंग से जिएं जिन्दगी


हाल ही में मेरी मुलाकात कुछ ऐसे प‎‎‎ोफेशनल से हुई, जिन्होंने पन्दह से पच्चीस साल कार्पोरेट दुनिया में बिताने के बाद एकाएक नौकरी छोड़ दी और वह काम करने लगे,जिसकी ललक उनके दिल-दिमाग में नौकरी शुरू करने से पहले हुआ करती थी। इन दिनों कोई कैनवास पर अपनी मनोभावों को उकेरने और उनमें रंग भरने में लगा हुआ है तो कोई शबदों की खिलंदड़ी में शामिल होकर किताब लिख रहा है। किसी ने अपने गांव लौटकर गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोल लिया है तो कोई ज्वेलरी डजाइनिंग करने में मस्त है। कुछ ऐसे भी हैं, जिनदगी जीने के ढंग सिखाने का बीड़ा उठा रखा है और अब घूम-घूम कर वे लोगों को इस भागती-दौड़ती रफतार वाली दुनिया में जीते हुए अपने और अपनों के लिए समय निकालने की कला सिखा रहे हैं।
बातचीत के दौरान इन सबकी जुबान पर एक ही बात आत आती है कि दूसरों के ढंग से जीने की कवायद ने उनसे वह सब कुछ छीन रखा था, जो उनके दिल-दिमाग में रचा-बसा था। नौकरी करते हुए वह अपने ढंग का कुछ कर ही नहीं पाते थे और न ही इतनी फुरसत थी। भले ही अब उतन कमाई नहीं है, लेकिन पिछले टेन्योर से कहीं अधिक संतुष्ट हैं। सबसे बड़ी बात कि अब अपने ढंग-अपने अंदाज में जिन्दगी जी रहे हैं। इन सबका मानना है कि करियर के लिए अपना रंग-ढंग छोडक़र वे कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाये थे। बार-बार ऐसा लगता था कि हीं कुछ छूटा सा जा रहा है। यही वजह थी कि जिन्दगी जीने की रफ्तार को कुछ धीमा करके अपना रंग-ढंग वापस पाने में लग गये हैं। इन सबने माना कि पैसा कमाने की होड़ में शामिल रहते हुए इनसे केवल इनकी ललक ही नहीं छिनी हुई थी, बल्कि इनके अपने भी इनसे कहीं दूर से हो चले थे।
वास्तव में जब हम अपनी पोफेशनल लाइफ और पर्सनल लाइफ के बीच सही संतुलन नहीं बैठा पाते तो हमसे बहुत कुछ छूट सा जाता है और छूटे हुए का बड़ा हिस्सा पर्सनल ही रहता है। हम अपने पर्सनल को यह सोचकर करियर पर कुर्बान करते रहते हैं कि पहले पैसा कमा लिया जाये तब फिर अपने बारे में सोचेंगे। करियर और परिवार को बेहतर देने की होड़ और हड़बड़ी में हम अपने भीतर दबी ललक को भी नजरअंदाज किये रहते हैं। मेरी मुलाकात जिन लोगों से हुई थी उन्होंने पन्दह से बीस साल पैसा कमाने के बाद नौकरी छोड़ी थी। उन्होंने जब अपने दिल-दिमाग के हिसाब से चलने क ी ठानी तब उनकी जेब इतनी तो भरी थी कि उनको किसी तरह का अभाव नहीं था। ये लोग ‘देर से आये, दुरुस्त आये’ वाली कहावत चरितार्थ कर रहे थे।
सच तो यह है कि हम अपनी छोटी सी जिन्दगी का मकसद ही तय नहींं कर पाते। हम जिन्दगी के एक फेज को पूरा करते ही अनायास करियर पाने, उसे बनाने और फिर उसे बचाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं। जिन्दगी जीने के लिए है न कि बिताने के लिए। धड़ल्ले से इस्तेमाल होने वाला ‘बस बीत रही है’ का जुमला हताशा ही जताता है। इससे खुद को बचाना होगा। और,  अगर जिन्दगी जीना है तो यह तय होना चाहिये कि हम अपने पोफेशनल और पर्सनल व करियर और किएटिविटी के बीच किस तरह संतुलन बना कर चलेंगे। आधी जन्दगी पैसा कमाने में खपाने के बाद अपने ढंग से जीने की कवायद शुरू करने से पहले ही यह तय हो जाना चाहिये कि हम अपने समय और समाज में अपनी उपस्थिति  किस तरह दर्ज करायेंगे।