सोमवार, अप्रैल 22

मिशन और मुनाफे की मुठभेड़


धनंजय चोपड़ा
दर्शकों की अटेंशन बेच खाने के खेल पर सरकार ने नजर क्या टेढ़ी की, सारे खबरिया चैनल छाती पीट-पीट कर स्यापा करने लगे हैं। तोहमत लगाई जा रही है कि युरोप की व्यवस्थाओं का नकल करने वाली सरकार अपने देश की परिस्थितियों से वाकिफ नहीं है, जबकि ट्राई यानी टेलीकॉम रेगुलेट्री अथार्टी ऑफ इण्डिया ने एक घंटे में केवल 12 मिनट ही विज्ञापन दिखाने के नियम का प्रस्ताव करके कोई नया कदम नहीं उठाया है, बल्कि पहले से मौजूद व्यवस्था को नए ढंग से रखा है ताकि उस पर अमल किया जा सके। इधर ट्राई का फरमान जारी हुआ उधर तत्काल नेशनल ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन और इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग फाउण्डेशन ने सूचना प्रसारण मंत्री से मिलकर अपना विरोध दर्ज करा दिया। बहरहाल अब बहस चल पड़ी है तो हाशिए पर फेंक दिए गए दर्शकों के बीच से होकर गुजरेगी और पक्ष-विपक्ष के तमाम मुद्दे सामने आएंगे।
वास्तव में ट्राई ने कहा है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय और ब्रॉडकास्टर से इकट्ठे किए गए आंकड़े बताते हैं कि देश के टीवी चैनल, 'केबिल टेलीविजन नेटवक्र्स रूल्स-1994Ó का पालन करने में कोताही बरतते हैं। सच भी यही है कि विज्ञापन दिखाए जाने वाले निर्धारित समय को लेकर लगभग सभी चैनल 1994 में ही अस्तित्व में आ गए नियमों को ठेंगा दिखाकर मुनाफे की होड़ में शामिल हैं। ट्राई ने तो बस इन्हीं नियमों को पालन करने को अनिवार्य बनाने की बात कही है। हो हल्ला मचाने वालों का तर्क है कि 1994 में भारत सरकार ने युरोप में बने नियमों की नकल की थी, लेकिन उसने यह नहीं देखा था कि वहां के टीवी चैनलों की आमदनी के मॉडल और भारत के चैनलों की आमदनी के मॉडल में बहत फर्क है। भारत में चैनलों के अलम्बरदारों का कहना है कि चैनलों के खर्च के लिए विज्ञापनों पर निर्भरता नब्बे प्रतिशत है और सबक्रिप्शन फीस से होने वाली आमदनी नगण्य है। जबकि युरोप के देशों में चैनलों की आमदनी का सत्तर प्रतिशत सबक्रिप्शन फीस से ही आता है। बहरहाल ट्राई का फैसला ऐसे समय में आया है, जब पूरे देश में टेलीविजन नेटवर्क के डिजिटाइजेशन को मुहिम के तौर पर पूरा किया जा रहा है। यह काम लगभग सभी बड़े शहरों में पूरा भी हो चला है। यही वजह है कि ट्राई, ब्रॉडकास्टर्स की दलीलों को औचित्यपूर्ण मानने से कतरा रही है।
वैसे सारा खेल खुद न्यूज चैनलों द्वारा ही चौपट किया गया है। समस्या तो तभी शुरू हो गई थी जब लगभग सभी चैनल आगे निकल जाने और टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए थे। पूंजी और मुनाफे की गणित में दर्शक बेचारा 'उपभोक्ताÓ बन कर रह गया और उसके हिस्से खबरें टीवी स्क्रीन से गायब हो गईं। दर्शकों को बेवजह हंसने पर मजबूर किया जाने लगा या फिर स्क्रीन पर रिएलिटी शो के बहाने इमोशनल ब्लैकमेलिंग का शिकार बनाया जाने लगा। खबरों के लिए तरसते दर्शकों को कभी स्पीड में तो कभी बुलेट की तर्ज पर खबरों का शतक लगाने का हुनर दिखाया जाने लगा। यह अकारण नहीं है कि इधर टेलीविजन न्यूज चैनल खबरों की हॉफ सेंचुरी और फुल सेंचुरी लगाने में मस्त थे और उधर दर्शकों ने अपने पुराने साथी अखबार से जुडऩा ठीक समझा। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछल दस वर्षों में कई अखबारों के नए-नए संस्करण शुरू हुए हैं तो कई अखबारों ने अपने संस्करणों को यहां से निकालना शुरू कर दिया है और करते जा रहे हैं। मजेदार बात तो यह है कि ट्राई के फैसले को गलत ठहराने वाले न्यूज चैनलों के संगठन इसे 'रेगुलेशन ऑफ एडवरटीजमेंटÓ के बहाने 'कंट्रोल ऑफ कण्टेंटÓ की संज्ञा दे रहे हैं। यहां तक कि इसे संविधान में मिले नागरिक अधिकारों का हनन भी बताया जा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी उंगली उठने पर टीवी के अलम्बरदार 'सेल्फ रेगुलेशनÓ की बात करने लगे हैं। इस बात पर न तो किसी को शर्म आ रही है और न ही कोई गम्भीर है कि सेल्फ रेगुलेशन का टोटका अब मजाक बन कर रह गया है।
यह तो कहिए कि भारत में अभी 'कन्ज्यूमर फोरमÓ की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर के  'टेलीविजन दर्शक एसोसिएशनÓ नाम के संगठन नहीं बने हैं, वरना टेलीविजन चैनलों का नाकड़ा बंद कर दिया गया होता। वैसे इस तरह के संगठनों की जरूरत महसूस की जाने लगी है। दर्शकों को बिना अहसास कराए उनकी अटेंशन को बेच खाने वालों पर कहीं न कहीं से अंकुश बनाए रखने की कवायद तो होनी ही चाहिए। हो सकता है कि अपने देश में भी जल्दी ऐसे संगठन बने और फिर चेलीविजन चैनलों के अलम्बरदारों के साथ 'दर्शक खबरदारोंÓ की भी नीति निर्धारकों में शामिल किया जाने लगे। अगर ऐसा होता है तो यह भारतीय मीडिया के लिए नए समय की शुरूआत होगी।      
फिलहाल मुनाफे की होड़ और नकल मारने की भेड़ चाल का शिकार टीवी न्यूज मीडिया पिछले पांच वर्षों में ऐसा कुछ भी नया नहीं कर पाया है, जिसे पत्रकारिता के मिशन की कसौटी पर कसा जा सके। जिस किसी ने भी मिशन की बात की, उसे पुराने जमाने का मानकर हाशिए ढकेल देने में ही भलाई समझी। हर किसी को समझा दिया गया कि इण्डस्ट्री है तो पूंजी लगेगी ही और पूंजी लगी है तो मुनाफे की बात तो सोचनी पड़ेगी। लेकिन मुनाफे के लिए उपभोक्ता को ठगा जाना जरूरी है, यह तो नियम नहीं है। यह शायद मीडिया इण्डस्ट्री में ही होता हो कि उपभोक्ता की सुनने वाला कोई नहीं है। मिशन और मुनाफे में फंसी मीडिया के मानिंद भी इस मसले पर चुप्पी साधे रखने पर ही भलाई समझते हैं।