सोमवार, अप्रैल 22

चैनलों ने कर दिया खबरों का गैंग रेप


धनंजय चोपड़ा
टेलीविजन खबरिया चैनलों ने एक बार फिर अपनी मेच्योरिटी पर प्रश्नचिन्ह लगवा लिया। सब के सब ठीक उसी तरह की होड़ में शामिल दिखे जिस तरह की अन्ना के आंदोलन के समय। दिल्ली के गैंग रेप काण्ड के बाद कुछ खबरिया चैनलों का रवैया तो इस तरह दिख और समझ में आ रहा था कि लोगों द्वारा किए जा रहे स्वत:सफूर्त आंदोलन के कर्ता-धर्ता वही हैं। यही नहीं टीवी पर जो बेमानी बहसें कराई जा रही थीं, उसे शायद ही कोई समझदार दर्शक देख-सुन रहा होगा। एक अहम मुद्दे को किस तरह बेअसर किया जाता है, यह उन तमाम खबरिया चैनलों ने अपनी बहस के कार्यक्रमों में कर दिखाया। शायद ही किसी चैनल ने इस बात पर गौर करने की जुर्रत की कि देश की राजधानी में निजी परिवहन व्यवस्था पर चोट किस तरह की जा सकती है? किस तरह इस तरह की घटनाओं को दोबारा होने से रोका जा सकता है? न तो किसी 'सरकारी जिम्मेदारÓ को पत्रकारीय अंदाज में घेरने की कोशिश की गई और न ही अहम मुद्दे उठाकर सरकार को मुश्किल में डालने का प्रयास हुआ। भीड़ को दिखाते रहे ताकि लोगों का ध्यान जरूरी मुद्दों की तरफ जाए ही नहीं। सवाल तो यह उठता है कि कहीं इस तरह के खबरिया खेल कार्पोरेटी मीडिया और सत्ता के बीच की नूरा कुश्ती के पर्याय तो नहीं हैं? कहीं इस दौरान लोगों का ध्यान अहम मुद्दों की तरफ जाने से रोकने की कोशिश का हिस्सा तो नहीं? और यदि ऐसा है तो क्या इसे खबरों का गैंगरेप नहीं कहा जाना चाहिए?
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में जो कुछ हुआ वह दरिंदगी की हदों को भी पार करने वाला था। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि युवाओं ने सडक़ों पर उतर कर जिस तरह विरोध प्रदर्शन किया वह जरूरी था। इंकार तो इस बात से भी कोई नहीं कर सकता कि जिन परिवारों की बेटियां घर से बाहर रहकर पढ़ रही हैं या फिर नौकरी कर रही हैं वे टीवी कवरेज और बेमानी बहसों से दहल से गए हैं। बात यह भी सही है कि देश व समाज को सही रास्ते पर चलाने के लिए कड़े कानूनों की जरूरत पड़े तो देर नहीं होनी चाहिए। लेकिन, क्या हमारे खबरिया चैनल इस तरह कोई दबाव सरकार पर बना पाने में सफल हो पाए? शायद नहीं।  महज लगातार एक ही तरह की खबरों को दिखाकर या फिर एक ही तरह की बहसों को दिखा कर पत्रकारीय दायित्वों की पूर्ति हो जाती है। खबरों के मायने ये कब से होने लगे कि आप पड़ताल करने की आदत को ही भूल जाएं। खबरों के मायने तो यह भी नहीं है कि आप 'चूज एण्ड पिकÓ की नीति अपनाएं। कहा तो यह भी जा सकता है कि टीवी खबरों के अलम्बरदारों को अपने मतलब का हप्प और बाकी सब थू करने की कहावत को चरितार्थ करना भाने लगा है। सच तो यही है कि इक्का-दुक्का चैनलों को छोडक़र किसी ने भी दरिंदगी की इस घटना की तहों तक जाने की कोशिश ही नहीं की और केवल आम आदमी की इमोशनल ब्लैकमेलिंग से काम चलाते रहे।
वैसे इस पूरे घटनाक्रम और चैनलों के बचकाने रवैये ने एक बार फिर टेलीविजन चैनलों के लिए नियामक तंत्र बनाने की मांग जोर पकड़ा दी है। ऐसा इसलिए भी कि सेल्फ रेगुलेटिंग का फण्डा इनके लिए उतना कारगर नहीं है जितना कि उसे लेकर चिल्ल-पों मचाया जाता है। अधिकांश खबरिया टीवी चैनल अभी भी यह मानते हैं कि भारतीय दर्शकों का बड़ा हिस्सा आसानी से इमोशनली ब्लैकमेल हो सकता है और उसे खुद से जोडऩे का एक ही तरीका है कि उसे सही मुद्दों और और उसके हिस्से की असल खबरों से दूर रखा जाए। पिछले दिनों एक सर्वे में यह बात सामने आई थी कि टीवी चैनल पत्रकारिता के चार मूल कामों में से तीन को यानी लोगों को सूचना देने, गाइड करने और शिक्षित करने को पूरी तरह भुला चुके हैं। उन्हें बस चौथा काम याद है और वह है लोगों का मनोरंजन करना। वास्तव में खबरों के नाम पर टाइम पास का खेल चलाने में तो कई टेलीवजन खबरिया चैनल पहले से ही माहिर हो चुके हैं और अब जो बचा-खुचा खबरों का हिस्सा था उसके भी गायब होने का सिलसिला शुरू हो चुका है। देखा जाए तो तमाम खबरिया चैनलों को रोज-ब-रोज ऐसे मुद्दों की तलाश रहने लगी है, जिसे वे लगातार जिंदा रख सकें और अपना खबरों के नाम पर टाइम पास करने का उल्लू सीधा करते रहें। बेचार दर्शक खबरों की लालसा लिए एक चैनल से दूसरे चैनल पर निगाहें डालता रह जाता है और उसे असल खबरों की जगह छद्म खबरें या तो बेमानी बहसों के रूप में मिलती हैं या फिर एक ही दृश्य को बार-बार दिखाने के रूप में। ये दृश्य किसी घटना के हो सकते हैं या फिर किसी नामचीन हस्ती के बयान के।
अंत में एक जरूरी सवाल कि क्या टेलीविजन खबरिया चैनल इस बात पर गौर करना चाहेंगे कि प्रिंट मीडिया अपनी स्मृति परम्पराओं का पालन करते हुए किस तरह आज भी लोगों का विश्वास पाए हुए है? सच यह है कि खबरों की असल खुराक आज भी अखबारों और पत्रिकाओं से ही मिल रही है। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि अखबारों ने हर मौके पर दिखाया है कि असल मीडिया वही हैं। यही वजह है कि अखबारों के नए संस्करण सामने आ रहे हैं और पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ चैनलों पर घूस मांगने के आरोप लग रहे हैं और संपादक जेल जा रहे हैं। 'डेफिसिट अंटेंशन थ्योरीÓ को समझना अब हर चैनल के लिए जरूरी है, वरना टेलीविजन से खबरिया चैनलों की अहमियत खत्म होते देर नहीं लगेगी। डर तो यह है कि कहीं टेलीविजन से इनके गायब होने के संदर्भ में 'गधे के सिर  से सींग गायबÓ होने वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए।  ।