सोमवार, अप्रैल 22

'हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर बवाल



धनंजय चोपड़ा
'हिन्दुस्तानी भाषा के लिए काम करने वाली देश की अकेली संस्था हिन्दुस्तानी एकेडेमी को लगभग सात वर्षों बाद अध्यक्ष तो मिल गया, लेकिन एक नए ढंग के बवाल के साथ। लगातार कई बरसों से इलाहाबाद में इस संस्था के लिए अध्यक्ष की मांग करने वाले इलाहाबादी साहित्यकार इस समय गुस्से में हैं कि प्रदेश की सरकार ने उनके अपने बीच के साहित्यकारों को खारिज करते हुए दिल्ली के कवि डा. सुनील जोगी को अध्यक्ष बना दिया है, जबकि परम्परा रही है कि शहर के ही किसी वरिष्ठ साहित्यकार को यह पद दिया जाता रहा है। बहरहाल शहर के साहित्यकारों ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर अपना विरोध सरकार के दरबार में गुंजाने का मन बना लिया है। उधर विरोध को दरकिनार कर जोगी ने पदभार ग्रहण करके सबको मना लेने की बात कही है।
आजादी की लड़ाई के दिनों में जब भाषा को हथियार बनाकर देश के लोगों को एक करने और उन्हें निज भाषा के गौरव के प्रति जागरूक बनाने की मुहिम चल रही थी, तभी 1926 में इस संस्था की स्थापना की गई थी। इस संस्था से राय राजेश्वर बली, यज्ञ नारायण उपाध्याय, सर तेज बहादुर सप्रू, डा. धीरेन्द्र वर्मा, डा. ताराचन्द्र, हाफिज हिदायत हुसैन, बालकृष्ण राव, डा. राम कुमार वर्मा, डा. जगदीश गुप्त, डा. रामकमल राय, प्रो. अकील रिजवी, हरिमोहन मालवीय, कैलाश गौतम आदि साहित्यकार व भाषाविद् किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं,जिनके नेतृत्व में यहां शोध व प्रकाशन के कई महत्वपूर्ण काम होते रहे हैं। पिछली मुलायम  सिंह यादव की सरकार ने भाषाविज्ञानी डा. वाई. पी. सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे दो बरस भी इस पद पर नहीं रह पाए थे कि उन्हें प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का शिकार होना पड़ा। बसपा सरकार के आते ही उन्हें पद से हटा दिया गया और फिर यह पद एक अदद साहित्य व भाषा सेवी के लिए तरसता रह गया। एक बार फिर सपा सरकार के सत्ता में आते ही जब भाषा और साहित्य को समर्पित संस्थाओं में खाली पड़े पदों पर नियुक्तियों का दौर चला तो इलाहाबादी साहित्यकारों का एक तबका पूरे जोर शोर से कई-कई नाम उछालने और उनकी-अपनी पैरवी करने में जुट गया। एक समय तो ऐसा आया कि स्थानीय अखबारों ने तो दर्जन भर लोगों का नाम छाप कर बताया कि इतने लोग अध्यक्ष पद की दौड़ में शामिल हैं। रोचक यह कि इस पद को पाने के लिए जातीय और धार्मिक आरक्षण दिये जाने तक की गुहार लगने लगी।
बहरहाल राज्य मंत्री का दर्जा हासिल इस पद पर सपा सरकार ने इलाहाबादियों की दलीलों और उनकी सुझाई फेहरिस्त को किनारे कर दिल्ली के कवि डा. सुनील जोगी को अध्यक्ष बना दिया है। कवि सम्मेलनों के जान-पहचाने चेहरे रहे डा. जोगी ने विरोध को खारिज करते हुए कहा है कि ''कोई साहित्यकार किसी दूसरे की बराबरी नहीं कर सकता है। लेकिन मेरा भी साहित्य में दखल है। तेरह साल पहले दिल्ली सरकार की हिन्दी एकेडेमी का सहायक सचिव रहा हूं। 75 किताबें लिखीं हैं, जिनमें से दस तो भाषा विज्ञान की ही हैं। हिन्दी से एमए किया है। अवधी भाषा पर पांच वर्ष शोध किया है। कई मंत्रालयों में हिन्दी को लेकर काम किया है। सरकार ने कुछ सोच-समझ कर ही मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी है। मैं सभी से रचनात्मक सहयोग लेकर एकेडेमी चलाना चाहता हूं। ÓÓ
बहरहाल डा. जोगी का विरोध का झंडा बुलंद करने वाले कोई दलील मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि सरकार ने इलाहाबादी साहित्यकारों का अपमान किया है। विरोध करने वालों का कहना है कि सरकार जिसे चाहे उसे नियुक्त करे, यह उसका अधिकार है, लेकिन संस्था की गरिमा का ख्याल करके ही उसके पदों पर नियुक्तियां होनी चाहिए। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर बड़े ख्यातिनाम साहित्यकार और भाषाविद् ही नियुक्त होते रहे हैं। अभी इलाहाबाद में अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, अकील रिजवी सहित कई ऐसे नाम हैं जिन्हें इस पद पर बैठा कर गरिमा को बरकरार रखा जा सकता था। बहरहाल विरोधियों ने अपनी बातों का एक प्रस्ताव बनाकर मुख्यमंत्री को भेजने का मन बनाया है और इसके लिए हस्ताक्षर अभियान भी शुरू कर दिया है। हस्ताक्षर करने वाले प्रारम्भिक लोगों में जनसंस्कृति मंच के प्रो. राजेन्द्र कुमार, जनवादी लेखक संघ के विवेक निराला, प्रगतिशील लेखक संघ के अविनाश मिश्र, अजित पुष्कल, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, प्रो. ए.ए. फातमी, मत्स्येन्द्र नाथ शुक्ल आदि शामिल हैं। बहरहाल वादों और संघों की राजनीति में बंटे इलाहाबादी साहित्यकारों की फौज में से कुछ जोगी के पक्ष में खड़े हो गए हैं। जोगी ने भी कहा है कि इलाहाबाद में उन्हें जानने और पहचानने वाले बहुत हैं, उन्हें साथ लेकर मैं अपना काम प्रारम्भ करूंगा, धीरे-धीरे सब साथ आ जाएंगे। जोगी के इस बयान के पहले अखबारों में कथाकार दूधनाथ सिंह, प्रो. ए.ए. फातमी सहित कई लोगों का का यह बयान छपा था कि वे जोगी न तो जानते हैं और न ही उनका कभी नाम ही सुना है।
अध्यक्ष पद की रार के बीच एकेडेमी के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि इधर कई बरसों से एकेडेमी अपने मूल उद्देश्यों से भटकी हुई है। इस हिन्दी-उर्दू भाषाओं को साथ लेकर चलने वाली संस्था के रूप में प्रचारित करने वाले इसी के आधार पर अपने-अपने लिए पद की मांग करते हैं। जबकि यह संस्था देश की सभी भाषाओं को एक मंच पर लाकर काम करने के उद्देश्य से बनी थी। उत्तर प्रदेश में यही एकमात्र संस्था हैं जो सभी भाषाओं को साथ लेकर कुछ सार्थक कर सकती है। सरकार को इसका अध्यक्ष बनाते समय इसका ध्यान रखना चाहिए था। उन्होंने शोध व प्रकाशन के लिए एकेडेमी को बड़ा बजट देने की मांग भी की है।  बहरहाल अब प्रदेश के  मुख्यमंत्री के दरबार में ही तय होगा कि इलाहाबादी साहित्यकारों की सुनी जाती है या फिर हर विरोध की तरह यह भी टांय-टांय फिस्स हो जाता है।