गुरुवार, मई 29

हंगामा-ए-पेड न्यूज चहुं ओर है बरपा



पिछले दिनों एक समाचार ने बरबस ही ध्यान खींच लिया। शीर्षक था ‘पेड न्यूज से परेशान चुनाव आयोग’। जाहिर है कि इसे पढऩा भी जरूरी लगा। हालाकि इन दिनों चुनावी माहौल में ‘पेड न्यूज’ के पैरोकारों की एक फौज तैयार हो गई है, जो तर्कों के सहारे इसे बाजार में बने रहने की जरूरत बताकर जायज ठहराने में तनिक भी देर नहीं लगाती। इनका कहना है कि पूंजी लगी है तो मुनाफे की जुगत तो लगानी ही पड़ेगी। याद आते हैं वे दिन जब पेड न्यूज को लेकर प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के नेतृत्व में बड़ी लड़ाई लडऩे का मन बनाकर हमसब अपने समय और तथाकथित पत्रकारीय अलम्बरदारों से जूझ रहे थे। यह वही समय था जब प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया की उस रिपोर्ट को जस का तस प्रकाशित करने की मांग भी की गई थी जो पेड न्यूज की जांच के बाद  तैयार की गई थी। प्रेस कौसिल ने तब रिपोर्ट का संक्षेप ही लोगों के आगे रखा था। यही वजह थी कि आरोप लगाया जा रहा था कि मालिकों के दबाव में ऐसा किया गया है।
बहरहाल हर बार चुनाव आते ही पेड न्यूज का शिगूफा सामने आ जाता है। तमाम लोग हो-हल्ला मचाने लगते हैं। इनमें वे प्रेस संगठन भी शामिल हैं जो पेड न्यूज के खिलाफ दिखने की हर कोशिश तो करते हैं, लेकिन अपनी तरफ से आज तक कोई ठोस पहल कर पाने में असफल ही रहे हैं। बहरहाल इस बार चुनाव आयोग ने बहुत पहले ही पेड न्यूज को लेकर अपनी कमर कस ली थी और इसके खिलाफ मुहिम छेडऩे की मंशा जाहिर कर दी थी। लेकिन रहा सबकुछ वही ढाक के तीन पात। चुनाव आयोग की सारी कवायदों को पलीता लगाते हुए पेड न्यूज के साथ-साथ पेड व्यूज का भी धंधा जोरों से चला। इसमें इलेक्टॉनिक मीडिया ने प्रिंट मीडिया को बहुत पीछे छोड़ दिया। मजेदार बात यह कि इस बार तो पूरी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जा रहा है। वैसे भी कार्पोरेटी मीडिया के चरित्र पर लांछन लगना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन हो तो यह सकता ही था कि सारा खेल इस तरह होता कि जन साधारण की निगाह में मीडिया की जो साख बनी है, वह बरकरार रह जाती। और, यह हो न सका। आज मीडिया पर बिके होने के आरोप महज राजनीतिक दल या उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ही नहीं लगा रहे हैं, बल्कि जन-साधारण भी इनमें शामिल हैं। तय है कि मीडिया को अपनी साख बचाने या फिर उसे वापस पाने के लिए चुनावों के बाद बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
एक बार फिर उस खबर पर लौटते हैं, जिसे लेकर मैंने अपनी बात कहनी शुरू की थी। ‘पेड न्यूज से परेशान चुनाव आयोग’। इस खबर के अनुसार छह चरणों के चुनाव के बाद आयोग ने पेड न्यूज के पांच सौ बयासी मामले पकड़े हैं, जिनमें से तीन सौ इक्कीस मामलों में पेड न्यूज होने की बात सिद्ध भी हो चुकी है। रोचक तथ्य यह कि ये पांच सौ बयासी मामले महज तीन सौ सीटों के चुनाव में ही सामने आ गये। ये सारे मामले प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया को मिलाकर हैं। इनमें सर्वाधिक मामले राजस्थान में सामने आए हैं, जहां एक सौ अड़सठ मामले सामने आए और इनमें से एक सौ पन्द्रह ही पुष्टि भी हो गई। दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र और तीसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है।
बहरहाल आयोग के पास पेड न्यूज को पकडऩे भर की शक्ति है, इसके खिलाफ किसी तरह की सजा देने या अन्य कार्रवाई करने की कोई शक्ति है ही नहीं। आयोग किसी भी पेड न्यूज की पुष्टि होने पर उसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में जोड़ देता है और अखबार के मामले में प्रेस कौसिल ऑफ इण्डिया और टेलीविजन न्यूज चैनल के मामले में नेशनल ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन को रिफर कर देता है। जाहिर है कि सारी कवायद टांय-टांय फिस्स हो जाती है। उम्मीदवार पर तभी कार्रवाई होगी जब उसका चुनाव खर्च तय सीमा से बाहर जाएगा और कौंसिल व ऐसोसिएशन अपने किसी सदस्य के खिलाफ जाने से रहीं। पिछला इतिहास इस बात की गवाही भी दे सकता है। वास्तव में पेड न्यूज को मीडिया घराने जितनी शिद्दत से व्यापारिक जरूरत के रूप में देखते हैं, राजनीतिक दल उतनी ही शिद्दत से  ‘राजनीतिक आवश्यकता’ के रूप में देखते हैं। यही वजह है कि आती-जाती सरकारें इस पर कोई निर्णय लेने से कतराती हैं। जब से पेड न्यूज का मामला प्रकाश में आया है, तब से कई बार चुनाव आयोग सरकार के आगे इसे अपराध घोषित करने और इसके लिए सजा का प्रावधान की सिफारिश कर चुका है। लेकिन हर बार इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालकर गाहे-ब-गाहे इसके खिलाफ महज लफ्फाजी करके काम चलाया जा रहा है।
वैसे अभी तक का रिकार्ड है कि पेड न्यूज के पकड़े गए किसी भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई है। चुनाव आयोग ने भी माना है कि उसके पास पेड न्यूज के कारण बढ़े चुनाव खर्च के दो मामले लम्बित हैं और वह कोई कार्रवाई नहीं कर सका है। एक मामला महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण के खिलाफ और दूसरा झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ है। आयोग इनके खिलाफ क्यों कोई कार्रवाई नहीं कर सका, इसका जवाब तो वह सीधे तौर पर नहीं दे सका है, लेकिन साफ जाहिर है कि सरकारी अनिच्छा और पेड न्यूज को राजनीतिक आवश्यकता मान लेना ही इसके पीछे कारण रहा है। यहां यह बता देने में कोई गुरेज नहीं है कि पिछले वर्ष संसदीय समिति ने यह सिफारिश की थी कि पेड न्यूज की रोकने के लिए चुनाव आयोग को इतनी शक्तियां तो दी ही जाएं कि वह मीडिया और उम्मीदवार दोनों को सजा दे सके। समिति ने यह भी माना था कि प्रेस कौसिल ऑफ इण्डिया और  नेशनल ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ये दोनों ही संस्थाएं पत्रकारों के अपने हित साधने के लिए बनी हैं न कि उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए।
बहरहाल पेड न्यूज का रोग अब पहले जैसा नहीं रहा। पहले केवल राजनीतिक दलों या फिर सत्ता और मीडिया का ही गठजोड़ इसके लिए जिम्मेदार था, लेकिन अब इसमें एक तीसरे और मजबूत कोण के रूप में कार्पोरेट शामिल हो गया है। जाहिर है कि जब पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में मीडिया के मिशन को पलीता लगाया जा चुका हो तो फिर पेड न्यूज के कोढ़ के समाप्त होने का इलाज सामने आने की उम्मीद करना ही बेमानी होगा।