सोमवार, जुलाई 28

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले...


कुछ वर्षों पहले मैं एक ऐसे शहर में कार्यरत था, जिसे एक अदद विश्वविद्यालय की दरकार थी। उस शहर का हर बुद्धिजीवी गाहे-ब-गाहे अपनी बातचीत में इस कमी को ले आता और शासन-नेताओं को कोसता कि जिस शहर ने साहित्य में इतने बड़े नाम दिए, वहां एक अदद विश्वविद्यालय स्थापित कराने की कोई पहल नहीं करता। मैं अखबार में था सो मैंने इस मुद्दे को एक मुहिम की तरह लिया और लगातार इस सम्बन्ध में खबरें, लोगों के विचार, टिप्पणियां व जनप्रतिनिधियों को ललकारते बयान प्रकाशित करने शुरू कर दिये। शहर जाग गया। जगह-जगह विश्वविद्यालय की मांग को लेकर संगोष्ठियां और सेमिनार होने लगे। जुलूस निकला गया। शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी मोर्चा सम्भाल लिया। विधायकों और सांसदोंने भी पहल शुरू कर दी। वे भी लोगों के साथ आ गए। बड़ी मशक्कत के बाद अब वहां राज्य सरकार कृषि विश्वविद्यालय को स्थापित करने जा रही है। लोग खुश हैं कि उन्हें कुछ तो मिला। लेकिन लड़ाई जारी है, जब तक की उनके सपनों का विश्वविद्यालय मिल नहीं जाता। वह शहर है आजमगढ़, जहां राहुल सांकृत्यायन, श्याम नरायण पाण्डेय, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध, कैफी आजमी जैसे साहित्यकार पैदा हुए या फिर उसे अपनी कर्म स्थाली बनाई। शिबली नोमानी जैसे शिक्षा प्रेमी हुए, जिन्होंने शिक्षा को आंदोलन का रूप दिया। उस शहर की एक अदद विश्वविद्यालय पाने की तड़प आज भी मेरे जेहन में रची-बसी है।
अपना शहर इलाहाबाद भी किसी से कम नहीं है। एक से बढक़र एक साहित्यकार और शिक्षाविद यहां हुए, जिनकी फेरिस्त यहां देना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है। भाग्यशाली है यह शहर कि यहां एक नहीं कई विश्वविद्यालय और उसके समकक्ष शैक्षिक संस्थाएं हैं। विरासत में मिले पृष्ठों को पलटें तो गौरव के कई पल हमारे शहर की साहित्यिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्थाओं से जुड़े हुए मिल जाएंगे। सच तो यह है कि किसी शहर की पहचान उसकी अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक थाती के बलबूते ही बनती है। कभी इलाहाबाद भी ऐसी ही पहचान लिए हुए पूरी दुनिया के सामने था। यहां से निकली साहित्यिक धाराएं देश की भाषायी और साहित्यिक दुनिया को दिशा देती थीं। यहां की सांस्कृतिक परम्पराएं देश ही नहीं दुनिया भर के लोगों को संगम तट पर खींच लाने में कामयाब हो जाया करती थीं। यहां का शैक्षिक परिदृश्य युवाओं के लिए आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था। इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सके कि एक समय था कि यहां विश्वविद्यालय सरीखी शैक्षिक संस्थाओं का होना ही शहर की पहचान उसी तरह बनाता था, जैसे नालन्दा, आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज। काश! ऐसा हमेशा ही कायम रह पाता।
बहरहाल हालात यह हैं कि हम अपने शहर की पहचान खोते जा रहे हैं। हर ओर गिरावट का माहौल है। साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं ने तो पहले ही शहरवासियों की उपेक्षा के चलते पहले ही हथियार डाल रखे हैं। कोई बड़ा साहित्यिक आंदोलन अब इलाहाबाद से उपजता ही नहीं। हर ओर एक मुंह चिढ़ाता सन्नाटा है, जिसमें शोर तो है पर वे आवाजें नहीं, जिनके पीछे चल देने का मन करे। दूसरी ओर अब वह इलाहाबाद ही नहीं रहा जो शहर की शीर्ष साहित्यिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्थाओं से रिश्ते बनाकर वर्तमान और आने वाली पीढिय़ों को कुछ देने की दरकार रख सके। सच तो यह कि इन संस्थाओं का नेतृत्व करने वाले लोग ही जनता और संस्थाओं के बीच की रिश्तेदारी का नमक बड़ी ही बेहयाई से चटकर गए और लोग मुंह बाए अपने खाते से बहुत कुछ गंवा बैठे। आज हर ओर हाहाकार है। हमारे पीछे की पीढिय़ों को अपने होने की गवाही देने के लिए जूझना पड़ रहा है। तमाशा जारी है और शहर तमाशबीन बना सब कुछ होते देख रहा है। आखिर कब तक? ....कोई तो उत्तर दे। कैफी आजमी की ये पंक्तियां दोहरा लेने का मन करता है- कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले। उस इंकलाब का, जो अभी तक बाकी है। आमीन...।