रविवार, जनवरी 11

चलो, एकबार हम भी ‘विवादित’ हो जाएं


लिक्खाड़ों की दुनिया में विवादों में बने रहने का एक अजीब सा नशा है। इस साहित्यिक कही जाने वाली दुनिया में विवाद में रहने के मायने है कि आप केन्द्र में हैं और लोगों की नजर में हैं। विवाद में बने रहने के मायने यह भी हैं कि आप तथाकथित बड़ों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। ‘विवाद की साइज’ आपकी ‘हैसियत की साइज’ तय करती है। अरे वह लेखक ही क्या जिसके आचार, व्यवहार, सोच पर कभी विवाद ही न हुआ हो। अगर लिखे पर कोई विवाद नहीं हुआ तो कहे पर विवाद तो होना ही चाहिए। और, अगर कहे पर भी विवाद नहीं हुआ तो चरित्र पर ही विवाद हो जाना चाहिए। किताब छपे तो विवाद, पुरस्कार मिले तो विवाद, प्रेम करे तो विवाद , किसी पार्टी के नेता से हाथ मिला ले तो विवाद,किसी जुलूस में जाए तो विवाद, न जाए तो विवाद। विवाद होगा तभी तो संवाद की गुंजाइश बनेगी। विवादों में बने रहने में माहिर लोग पहले ही ताड़ लेते हैं कि मीडिया में कौन सा विवाद कितनी दूर तक उछलेगा और कौन दोतरफा टीआरपी का मजा देगा। इसी आधार पर वे सधे हुए अंदाज में कदम बढ़ाते हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि हमारी दुनिया विचारों की दुनिया है, तरह-तरह के विचार आपस में टकरायेंगे नहीं तो मंथन होकर सार्थक चीजें बाहर कहां से आयेंगी।
बहरहाल साहित्य में विवाद, विवादियों, विवादपरस्त और विवादग्रस्तों को देखकर कई बार तो विश्वास करना ही मुश्किल हो जाता है कि ये लोग एक ऐसी दुनिया से सम्बन्ध रखते हैं, जिसे सबसे अधिक संवेदनशील समझा जाता है। तरह-तरह के वादों में बंटे साहित्य समाज के लोग सदे-बदे अंदाज में जब अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होते हैं, तो यह भांपना मुश्किल होता है कि सच क्या है और झूठ क्या है। वैसे मीडिया के विस्तार के साथ ही साहित्य में विवादों को विस्तार मिला है और विवादों की कई-कई वैराइटी हमारे सामने आयी है। यही नहीं धुरंधर विवादबाजों के साथ कई नए-नए रंगरूट विवादबाज भी पैदा होते जा रहे हैं। अगर यह कह दिया जाए कि साहित्य में छत्रप कह जाने वाले लोगों के पास विवाद फैलाने वालों की फौज है तो गलत नहीं होगा। देश की राजधानी से लेकर प्रदेशों की साहित्यिक राजधानियों में इनके फ्रेंचाइजी एजेंट मौजूद रहते हैं और इशारा पाते ही कूद-फांद मचाना शुरू कर देते हैं। विवाद पर बयान, विवाद पर संगोष्ठी, विवाद पर प्रदर्शन, विवाद पर टिप्पणियों का प्रकाशन, विवाद को बनाए रखने के लिए लगातार आलेखों और पत्रिकाओं में सम्पादक के नाम पत्र लेखन आदि का काम इन्हीं प्रेंचाइजी एजेंटों के जिम्मे होता है। मजेदार यह कि विवादों में बने रहने के लिए कई छुटभइये कलमकार जोकरी की हदें पार कर जाते हैं।
देश की कई पत्रिकाएं भी साहित्य में विवादों को पैदा करने और उसे लगातार जिंदा रखने की कवायद करती रहती हैं। पत्रिकाओं के इतिहास को पलटें तो साहित्य के कई विवाद बिखरे हुए मिल जाते हैं। फर्क बस इतना है कि इन एतिहासिक दस्तावेजों में साहित्य के विवाद को दर्ज करने का काम किया गया है। विवाद को जन्म देने और उसे आगे बढ़ाने का काम कम ही दिखता है। दूसरी तरफ आज की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएं गाहे-बगाहे ऐसे कारनामे करती रहती हैं कि साहित्य समाज में बेमानी बहसें चलती रहें और उनके चहेते लेखक चर्चा में बने रहें। बहरहाल अपना शहर तो है ही इस कार्य में माहिर। वादों और विवादों को जन्म देने और उसे पुष्पित-पल्लवित करने में जितना योगदान अपने शहर इलाहाबाद का उतना शायद किसी का नहीं।