रविवार, जनवरी 18

अब नहीं रहे वे साहित्यिक अड्डे


इलाहाबाद और अड्डेबाजी। कोई जोड़ नहीं है इस जुगलबंदी का। तरह-तरह के अड्डे और तरह-तरह के अड्डेबाज। बचपन में अहियापुर की चबूतरेबाजी देखा करता था। लाजवाब हुआ करता था मोहल्ले के हर घर के बाहर बने चबूतरे पर होने वाला विमर्श। तब लगता था कि यह महज समय काटने का जरिया है। टेलीविजन तो था नहीं, रेडियो पर धीमे-धीमे गाने बजा करते थे और निर्धारित समय पर समाचार को तेज आवाज में सुना जाता था और फिर उस पर ‘सामाजिक विमर्श’ हुआ करता था। हर किसी का अंदाज निराला था। हर कोई ‘गुरू’ था और हर ‘गुरू’ के पास अपने-अपने सिद्धांत। बता दीजिए दुनिया का कोई और शहर, जहां इतनी शिद्दत से तमाम गुरू एक साथ बैठकर देश-दुनिया की किसी सम्स्या पर विमर्श करते हों।  
बड़ा हुआ तो साहित्यिक अड्डेबाजी का सुख उठाने को मिलने लगा। यह पिछली सदी के अंतिम दो दशकों की बात है। शहर में कई-कई साहित्यिक अड्डे थे। काफी हाउस, एजी ऑफिस के बाहर, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संग्रहालय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन और लोकभारती। मुझे याद है कि उन दिनों हमें किसी साहित्यकार को खोजना होता था तो हम दोपहर से पहले कॉफी हाउस या लोकभारती और दोपहर बाद एजी ऑफिस के बाहर पहुंच जाया करते थे। कॉफी हाउस के भीतर एक टेबल को घेरकर बैठे रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, रामकमल राय, सत्यप्रकाश मिश्र, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया गप लड़ाते मिलते तो एजी के बाहर उमाकांत मालवीय, सरनबली श्रीवास्तव, नौबत राय पथिक, अमरनाथ श्रीवास्तव समेत कई लोग। उन दिनों हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद संग्रहालय और  हिन्दी साहित्य सम्मेलन की संगोष्ठियां यादगार हुआ करती थीं। हमारी पीढ़ी ने इन गोष्ठियों में अपने समय के तमाम साहित्यकारों के साथ महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, इलाचन्द जोशी, नरेश मेहता, अमरकांत, रघुवंश को यहीं कई-कई बार सुना और बोलना-रचना सीखा।
वास्तव में ये अड्डे ही हमारी पीढ़ी के तमाम लेखकों के लिए सृजन की पाठशाला हुआ करते थे। हमने साहित्य के कई फलसफे इन्हीं अड्डों पर बैठकर सीखे। बड़ी बात यह थी कि इन साहित्यिक अड्डों पर उपस्थित हर रचनाकार अपने पीछे आने वाली पीढ़ी की बनावट और मंजावट की जिम्मेदारी बखूबी निभाता था। यही वजह है कि हम इन अड्डों को किसी तीर्थ की तरह देखा करते थे। आज जब इन अड्डों की ज्यादा जरूरत है तो ये नहीं हैं। और, अगर हैं भी तो वैसे नहीं रहे जैसे पहले हुआ करते थे। काश वे दिन लौटाए जा सकते।