मंगलवार, जनवरी 13

पेरिस,पत्रकारिता और पस्त होती दुनिया


साल के जाते-जाते पाकिस्तान के पेशावर शहर में मानवता को धता बताती घटना ने पूरी दुनिया का दिल दहला दिया था और तब दुनिया भर की पत्रकारिता ने इस घटना का ब्योरा देते हुए चीख-चीख कर मानवता पर मंडराते खतरे के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। हर संवेदनशील आदमी इस घटना की निंदा करता मिल रहा था। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों ने इसके फिर न दोहराए जाने की दुआ भी की थी। पर किसे पता था कि कुछ ही दिनों के बाद पत्रकारिता के ऊपर भी इसी तरह का हमला होने वाला है। पेरिस की व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ के पत्रकारों की शहादत ने दुनिया की समूची पत्रकारिता को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब अभिव्यक्ति की आजादी के दिन लद गए? क्या अपने समय, अपने समाज और खुद अपने पर हंसने और व्यंग्य करने पर पाबंदी लग जाएगी? वैसे सच कहा जाए तो इस तरह की शुरूआत कुछ वर्षों पहले ही हो चुकी थी। याद कीजिए जब अपने देश में एम.एफ. हुसैन की एक पेंटिंग को लेकर हंगामा बरप गया था और एक पुराने प्रकाशित कार्टून को लेकर संसद का अहम समय हंगामे की भेंट चढ़ गया था। बहरहाल देश दुनिया में इस तरह की कई घटनाएं हैं जो इस बात की तस्दीक कर सकती हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी हमेशा से निशाने पर रही है। लेकिन, इस बार जो कुछ हुआ, उसकी कल्पना नहीं की गई थी।
अपने शायर अकबर इलाहाबादी ने बरसों पहले बड़े ही शान और विश्वास के साथ लिख दिया था कि - ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’। बार-बार स्तब्ध कर देने वाले इस समय में न जोने क्यों कभी-कभी अकबर की ये पंक्ति बेमानी से लगने लगती है। लेकिन, जिस एक पंक्ति के सहारे हमारी पत्रकारिता हर तरह के विरोध से जूझती आई हो उसे इस तरह झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। यही वजह है कि देश-दुनिया की स्तब्ध पत्रकारिता जगत ने एकबार फिर सच व इंसाफ के लिए जूझते रहने का जज्बा दोहराया है। मीडिया के सारे उपक्रम इस घटना के विरोध में एकजुट तो हैं, लेकिन उन्हें राजनीति और समाज से जो मुखर सम्बल मिलना चाहिए था, वह गायब है। साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी भी चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझ रहे हैं। शिक्षा जगत भी इस मुद्दे पर लगभग पल्ला झाड़े खड़ा है। आखिर ऐसा क्यों? उत्तर हर प्रश्न समझने वाले के पास है।
वास्तव में हमारा यह समय बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता है कि चूक कहां हो रही है। ऐसे समय में पता नहीं यह कहना ठीक है या नहीं, लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जाता कि क्या पत्रकारिता के मिशनरी मानकों और अभिव्यक्ति की आजादी पर लगते सवालिया निशानों पर हमें बदलती दुनिया और बदलते समय के हिसाब से सोचना नहीं चाहिए? यही नहीं एक बार फिर ‘सेल्फ रेगुलेशन’ की आवाज भी उठने लगी है। अब देखिए न शार्ली एब्दो पर हमले से घबराए टर्की के एक अखबार ने तत्काल यह घोषणा कर दी कि आगे से हम विवादित कार्टून नहीं छापेंगे। अब यह कौन तय करेगा और कैसे तय करेगा कि कौन सा कार्टून विवादित है और कौन सा नहीं। कार्टून विधा के माहिरों की मानें तो हर कार्टून किसी न किसी व्यक्ति या घटना या विचार पर कटाक्ष करता ही सामने आता है। तो फिर वह हर उसके लिए विवादित ही होगा जिसके खिलाफ उसे तैयार किया गया है। तो क्या कार्टून ही बनने बंद हो जाएं? या फिर कार्टून छापने से पहले सेंसर बोर्ड से अनुमति ली जाए? तो क्या सेंसर बोर्ड से पारित कार्टून सबको मान्य होंगे और उनपर विवाद नहीं होगा। पेंच दर पेंच और जवाब कुछ भी नहीं।
समाजशास्त्री और सामाजिक अलम्बरदार इसे माने या न माने पर सच यही है कि राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारे अपने समाज को अधिक असहिष्णु, दुरावग्रस्त, कट्टर धार्मिक और जातिगत प्रतिस्पर्धा रखने वाला बना दिया है। इसके लिए हमारी वे सामाजिक संस्थाएं भी दोषी हैं, जिनको हमने अपने समाज को बनाने, मांजने और गतिशील बनाने के लिए मान्यता दे रखी है और वे इनमें से कोई भी दायित्व सही ढंग से नहीं निभा पा रही हैं। यह कहना भी गलत न होगा कि टेक्नोलॉजी ने इन तथाकथित सामाजिक विशेषताओं के पुष्पित-पल्लवित होने का मौका दिया है। और, जब तक हम ऐसे सामाजिक ताने-बाने को बुनते रहेंगे या इनकी बुनावट से उदासीन बने रहेंगे तब तक किसी न किसी चित्रकार को एम.एफ.हुसैन की तरह देश छोडक़र जाते रहना पड़ेगा, किसी न किसी लेखक को अरुण शौरी के लेख पर हुए हल्ले की तरह का हल्ला सहना पड़ेगा, नेहरू और अम्बेडकर पर बने पुराने कार्टून की तरह किसी और कार्टून पर संसद का समय जाया होता रहेगा और शार्ली एब्दो की तरह किसी और अखबार या पत्रिका पर हमले जारी रहेंगे। सबको सम्मति दे भगवान...।